बड़ी बहू – मनु वाशिष्ठ : Moral Stories in Hindi

मैं सूत्रधार, मेरा कोई रूप या आकार नहीं, कहीं भी आ जा सकता हूं, किसी के भी मन की बात जान, बता सकता हूं। और उसे अपनी जुबां दे सकता हूं। आज एक ऐसे ही प्रसंग पर मैं सूत्रधार बन अपनी प्रतिक्रिया दे रहा हूं।

पुरुषों! तुम्हारे लिए बहुत आसान होता है ना, महान बनना जब चाहा तब त्याग दिया, और आप महान बन गए! यह सारी महानता क्या पत्नी पक्ष को लेकर ही होती है। धोबी के कहने पर सीता को त्याग कर राम! महान आदर्शवादी बन गए। लक्ष्मण! पत्नी को छोड़ वनवास गए, और भाईभाभी के अनुगामी हो महान बन गए

, नन्हे राजकुमार और यशोधरा को सोती हुई छोड़, बुद्ध महात्मा महान हो गए। कहीं ऐसा तो नहीं, जब आपके पास में इनके एवं स्वयं के भी यक्ष प्रश्नों के कोई हल नहीं सूझते हैं, तो आप तुरंत त्याग की मूर्ति बन जाते हैं। अच्छा भी है, जिम्मेदारी से भी मुक्त हुए और महानता भी मिली। नाम भी मिला, क्या आप आपने कभी सोचा कि उस स्त्री पर क्या बीती होगी,

उसने क्या-क्या नहीं सहन किया होगा। आज भी स्त्री ही भेंट चढ़ती रही है, यह महानता शादी से पहले क्यों नहीं आ पाती। गृहस्थ पालन की जिम्मेदारी भी तो प्रभु ने ही दी होगी … या केवल अपनी ज्ञानपिपासा को शांत करने के लिए अपने कर्तव्यों को भी इतर कर देना, मेरी समझ से परे है। अचानक रातोंरात तो ज्ञानपिपासा जागृत नहीं होती। वैसे तो मेरा मानना है, होई है वही जो राम रचि राखा। सभी तो ऊपर वाले की डोर से संचालित कठपुतली मात्र हैं।

इसी पर मुझे एक वास्तविक किस्सा याद आ रहा है। काफी पुरानी बात है, मेरी मां की एक सहेली थी। उनकी शादी हुई, घर की बड़ी बहू सारी जिम्मेदारी उनके ऊपर।और उनके पति शादी के तुरंत बाद सन्यासी हो गए। जब कभी गांव आते, उन्हें बड़ा सम्मान मिलता, खूब नाम, सब कुछ मिलता।

क्योंकि उसवक्त लड़कियों को अपना पक्ष रखने का साहस ही नहीं होता था, सो वे इसे भाग्य का लेखा मान स्वीकार करतीं थीं।

इस कहानी को भी पढ़ें: 

एक मॉ ऐसी भी – एम पी सिंह : Moral Stories in Hindi

और कुछ समय पश्चात मेरी मां की सहेली ने यानि मौसी ने, शादीशुदा होने के बावजूद भी घर में रहते हुए सन्यासिन की तरह ही जीवन यापन किया, जब जिसको जरूरत होती (मायके या ससुराल में) काम के लिए, अपनी जरूरत मुताबिक बुला लिया जाता। या यूं कहें, एक कोने से दूसरे कोने में धकेली जाती रहीं। अब कौन महान था, इसका मुझे पता नहीं, लेकिन मैं सूत्रधार तो बस इतना कहता हूं _

वह सन्यासी बने थे, अपनी मर्जी से। उसमें उन मौसी (मां की सहेली) का क्या दोष था? फिर भी उन्होंने सहन किया। तो महान कौन हुआ, मन की कर त्याग करने वाला ? या सहन करने वाला ? वृद्धावस्था में जब उन सन्यासी का स्वास्थ्य गिरने लगा तो वह धीरे-धीरे वापस अपनी ससुराल में मौसी के पास आने लगे। क्योंकि मौसी मायके में ही रहती थीं। वहां सब उनका (मौसी के पति) का बहुत आदर करते थे।

लेकिन अब वह उनको अपने साथ ले जाना चाहते थे।उनके मायके वाले भी समझाने लगे कि, चली जाओ ना अपने पति के साथ। देखो वो आज भी तुम्हें पूछ रहे हैं, सन्यासी की सेवा का फल मिलेगा। क्या आपका भी यही मानना है, कि वो व्यक्ति वास्तव में अपनी पत्नी को पूछ रहा था या अपना भविष्य देख रहा था।

फिर यह कौन सी महानता थी, क्या उनको अब अपनी सेवा के लिए कोई चाहिए था। या स्त्री का कोई मन नहीं होता वह बस अनुगामिनी बनकर ही महानता हासिल कर सकती है, एक यक्ष प्रश्न?? समाज का सारा दायित्व स्त्री के मजबूत कंधों पर।

_ मनु वाशिष्ठ कोटा जंक्शन राजस्थान

Leave a Comment

error: Content is Copyright protected !!