महाभारत प्राचीन भारत का सबसे बड़ा महाकाव्य है। इसके रचयिता व्यास मुनि हैं। हमारे ऐतिहासिक और पौराणिक काल के बहुत सारे ऐसे योद्धा हुए हैं, जिन्होंने बड़ा दिल रखते हुए अपने त्याग और समर्पण से अपनी वीरता की कहानी को स्वर्णाक्षरों में लिखा।उन योद्धाओं में पाण्डु पुत्र महान गदाधारी भीम और हिडिंबा के प्रपौत्र वीर बर्बरीक का नाम लिया जा सकता है। बर्बरीक के पिता भीम पुत्र घटोत्कच थे।माता यादवों के राजा मुरू की पुत्री मोरवी थी।
बर्बरीक के माता-पिता दोनों शास्त्र और शस्त्र विद्या में निपुण थे। बर्बरीक की मां की तो शादी की यही शर्त्त थी कि जो उसे शस्त्र और शास्त्र विद्या में पराजित कर देगा,उसी से शादी करेगी। घटोत्कच ने मोरवी को शास्त्र और शस्त्र दोनों ही विद्याओं में पराजित कर उससे शादी की थी। बर्बरीक ऐसे ही महान माता-पिता के पुत्र थे।
बर्बरीक की बाल्यपन की शिक्षा -दीक्षा माता मोरवी के ही द्वारा संपन्न हुई थी। काले घुंघराले बालों के कारण उनका नाम बर्बरीक पड़ा।माता से शिक्षा प्राप्त कर बर्बरीक ने आगे की शिक्षा के लिए आदिशक्ति (अष्टदेव ) की घोर तपस्या की।उसकी तपस्या से प्रसन्न होकर देवी ने उन्हें तीन अभेद्य वाण दिए।
बर्बरीक तीन वाण नामधारी नाम से प्रचलित हो गया। बालपन में श्रीकृष्ण भी उसके गुरु रहे थे।शिवजी की भी उसपर कृपा थी। बर्बरीक को देवी ने इसी शर्त्त पर वाण दी थी कि हमेशा उसे हारनेवालों की तरफ से ही लड़ना होगा। बर्बरीक ने हमेशा देवी के इन्हीं सिद्धांतों का पालन किया।कठोर तपस्या से बर्बरीक को ऐसी सिद्धियां प्राप्त हो गईं कि वह पलक झपकते ही युद्ध समाप्त कर सकता था।
महाभारत युद्ध में बारह वर्ष के ज्ञात और एक वर्ष के अज्ञातवास की वनवास की अवधि पूरी होने पर पांडवों ने कुरु सम्राट धृतराष्ट्र से अपना साम्राज्य वापस मांगा, परन्तु कुरु युवराज ने राज्य देने से इंकार कर दिया। श्रीकृष्ण तो सर्वज्ञ थे, उन्हें पता था कि यह युद्ध संपूर्ण विश्व सभ्यता के विनाश का कारण बन सकता है,
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इसलिए श्रीकृष्ण अंतिम बार कुरु राज्यसभा में पांडवों की तरफ से शांति का प्रस्ताव लेकर जाते हैं। कुरु राज्यसभा में कुरु सम्राट धृतराष्ट्र पुत्र -मोह से ग्रसित हैं, दुर्योधन पांडवों को आधा राज्य भी देने से इंकार कर देता है। श्रीकृष्ण युद्ध टालने की नियत से पांडवों के लिए मात्र पांच गांव की मांग रखते हैं, परन्तु दुर्योधन चिल्लाते हुए कहता है “हे केशव!सुन लीजिए,बिना युद्ध के पांडवों को मैं सूई की नोंक के बराबर जमीन नहीं दूंगा।”
दुर्योधन की हठधर्मिता के कारण कौरवों और पांडवों के मध्य साम्राज्य के राज्य सिंहासन के लिए युद्ध होना निश्चित हो गया था। श्रीकृष्ण पांडवों के हितैषी थे। चूंकि यह अधर्म पर धर्म की विजय का युद्ध था,इस कारण इस युद्ध के रणनीतिकार भी थे। उन्होंने युद्ध की योजना बनाते हुए सभी योद्धाओं से पूछा “आप लोगों में से कौन योद्धा कितने दिनों में इस युद्ध को समाप्त कर सकता है?”
गंगापुत्र भीष्म ने कहा ” मैं इस युद्ध को बीस दिन में समाप्त कर सकता हूं।”
आचार्य द्रोणाचार्य ने कहा ” मैं इस युद्ध को पच्चीस दिन में समाप्त कर सकता हूं।”
महादानी कर्ण ने कहा “मैं इस युद्ध को चौबीस दिन में खत्म कर सकता हूं।”
महान धनुर्धर अर्जुन ने कहा ” मैं इस युद्ध को अट्ठाईस दिन में खत्म कर सकता हूं।”
जब इसी बात को श्रीकृष्ण ने बर्बरीक से पूछा तो उसने कहा ” हे प्रभु ! मैं केवल तीन वाणों की सहायता से एक मिनट में युद्ध समाप्त कर सकता हूं।”
बर्बरीक के जबाव ने श्रीकृष्ण के माथे पर बल डाल दिए।
महाभारत का युद्ध कौरवों और पांडवों के मध्य अवश्यंभावी हो गया था। दोनों तरफ से बड़े-बड़े राजा, जनपदों
के वीर योद्धा भाग लेने के लिए आ रहे थे । करोड़ों योद्धाओं ने धर्म -अधर्म के युद्ध में सम्मिलित होने का प्रण किया । महान गदाधारी भीम का प्रपौत्र तथा महायोद्धा होने के कारण बर्बरीक ने भी युद्ध में भाग लेने की इच्छा अपनी मां मोरवी से जताई।
माता मोरवी ने उसे आशीर्वाद देते हुए कहा -“पुत्र!यूद्ध में हमेशा कमजोर पक्ष का ही साथ देना।”
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माता से आशीर्वाद लेकर बर्बरीक अपने नीले घोड़े और तीन वाणों को लेकर युद्ध में शामिल होने के लिए कुरुक्षेत्र की ओर अग्रसर हो गया।
अब सर्वव्यापी श्रीकृष्ण के लिए परीक्षा की कठिन घड़ी थी।माता के आशीर्वाद फलस्वरूप अगर युद्ध में बर्बरीक हारनेवालों का साथ देगा तो धर्म की विजय न होकर अधर्म की विजय हो जाएगी। कमजोर पड़ती कौरव सेना बर्बरीक का साथ पाकर विजयी हो जाएगी।सत्य पर असत्य की विजय हो जाएगी।ऐसा सोचकर श्रीकृष्ण ने बर्बरीक को मार्ग में रोककर उसकी परीक्षा लेने की कोशिश की।
श्रीकृष्ण ने ब्राह्मण भेष बनाकर पूछा “वत्स!तुम कहां जा रहे हो?”
बर्बरीक ने जबाव देते हुए कहा ” हे विप्रवर! मैं महाभारत युद्ध में भाग लेने जा रहा हूं।”
ब्राह्मण वेषधारी श्रीकृष्ण हंसकर बर्बरीक से पूछते हैं -“हे वत्स! मात्र तीन वाण से ही तुम युद्ध में कैसे भाग लोगे?”
बर्बरीक ने जबाव देते हुए कहा -” मेरा एक वाण ही शत्रु को परास्त करने के लिए काफी है। शत्रु को परास्त कर वाण फिर से मेरी तरकश में आ जाएगा।यदि मैंने तीनों वाण का प्रयोग कर दिया तो तीनों लोक में हाहाकार मच जाएगा।”
श्रीकृष्ण ने बर्बरीक को सामने पीपल के पेड़ को दिखाते हुए कहा -“वत्स! मुझे इस पीपल के सारे पत्तों को छेदकर दिखाओ।”
बर्बरीक ने चुनौती को स्वीकार करते हुए आंखें बंद कर ईश्वर का स्मरण कर पेड़ के पत्तों की ओर वाण चलाएं।वाण ने क्षण भर में पेड़ के सभी पत्तों को छेद कर दिए। उसके बाद श्रीकृष्ण के पैरों के पास वाण चक्कर लगाने लगा, क्योंकि बर्बरीक के आंख बंद करते ही एक पत्ता उन्होंने अपने पैर के नीचे छिपा लिए थे।इस पर बर्बरीक ने कहा “प्रभो! अपने पैर हटा लीजिए, मैंने वाण को पत्तों को छेदने कहा है,पैर को नहीं!”
बर्बरीक की अद्भुत वाण-क्षमता देखकर श्रीकृष्ण सोच में पड़ गए। उन्होंने सोचा कि हर हाल में बर्बरीक को युद्ध में शामिल होने से रोकना होगा। ब्राह्मण वेष धारी श्रीकृष्ण ने बर्बरीक से गुरु -दक्षिणा में उसके शीश की मांग की। उन्होंने बर्बरीक से कहा -” वत्स ! युद्धभूमि की पूजा -अर्चना के लिए तुम जैसे वीर के शीश की जरूरत है,तुम अपना शीश दान कर दो।”
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बर्बरीक पल भर के लिए तो विचलित हो उठा, परन्तु वह समझ चुका था कि यह कोई साधारण ब्राह्मण नहीं है। बर्बरीक ने ब्राह्मण से उसका परिचय पूछा। ब्राह्मण ने बर्बरीक को अपना वास्तविक परिचय श्रीकृष्ण के रूप में दिया। श्रीकृष्ण का वास्तविक परिचय जानकर बर्बरीक ने कहा -” प्रभु!मेरी भी दो शर्त्त है।एक तो आप अपना विराट् रुप मुझे दिखाएं,दूसरा मैं अंत तक महाभारत युद्ध देखना चाहता हूं।”
श्रीकृष्ण ने बर्बरीक की दोनों शर्तें मान लीं। बर्बरीक ने भी अपना बड़ा दिल दिखाते हुए अपना शीश दान कर दिया। दधीचि ने अपना बड़ा दिल दिखाते हुए राक्षसों के नाश के लिए अपना शरीर दान कर दिया था और बर्बरीक ने तो धर्म की विजय के लिए अपना शीश ही दान कर दिया।वादानुसार श्रीकृष्ण ने बर्बरीक के शीश को युद्धभूमि के समीप पहाड़ी पर सुशोभित कर दिया, जहां से बर्बरीक सारा युद्ध देख सकता था।
अट्ठारह दिनों का महाविनाशकारी युद्ध बर्बरीक अपने कटे हुए शीश के साथ देखता रहा।जब अट्ठारह दिनों का प्रलयकारी युद्ध समाप्त हो गया और युद्ध में पांडवों की विजय हो गई, तो पांडवों में बहस होने लगी कि युद्ध में विजय का श्रेय किसे दिया जाएं?
बहस को सुलझाने के लिए श्रीकृष्ण पांडवों को बर्बरीक के शीश के पास ले गए, क्योंकि बर्बरीक से बेहतर निर्णायक दूसरा कोई नहीं हो सकता था!
श्रीकृष्ण ने बर्बरीक से पूछा -“वत्स!तुम युद्ध विजय का श्रेय किसे देना चाहते हो?”
बर्बरीक ने उनके सवाल के जबाव में कहा -“प्रभो ! मुझे तो युद्ध में चारों ओर केवल आप(श्रीकृष्ण)ही नजर आ रहे थे आपका सुदर्शन चक्र ही घूम-घूमकर सारी सेनाओं का विनाश कर रहा था।”
अब सभी को श्रीकृष्ण की माया समझ में आ चुकी थी। श्रीकृष्ण ने बड़े दिलवाले बर्बरीक के शीश को वहीं पास की नदी में बड़े आदर के साथ विसर्जित कर दिया। बर्बरीक के स्वेच्छा से शीश दान के महा बलिदान और बड़े दिलवाले के कारण कलियुग में कृष्ण नाम से पूजित होने का वरदान दिया। जहां श्रीकृष्ण ने बर्बरीक के शीश को रखा था,उसी स्थान पर बर्बरीक का विशाल मंदिर बना। कलियुग में बर्बरीक खाटू श्याम के नाम से आज भी आदर के साथ पूजा जाता है। यूं तो बर्बरीक ने प्रत्यक्ष रूप से युद्ध में भाग नहीं लिया था, परन्तु अपने बड़े दिल और अद्भुत बलिदान के कारण सदा के लिए अमर हो गया।आज हम उन्हें खाटू श्याम के रूप में आदर भाव से पूजते हैं।
समाप्त।
लेखिका -डाॅ संजु झा । स्वरचित