“माँ तुम्हारे खर्चे बढ़ते ही जा रहे है… कोई कंट्रोल नहीं है तुम्हारे खर्चे पर… तुम्हें ज़रा भी अंदाज़ा है कि.. कितनी मेहनत से हम पैसाकमाते है…तुम हो कि… हमने कोई धर्मशाला नहीं खोल रखी है जो…नित्य तुम्हारे रिश्तेदार मुँह उठाए चले आते है…अब पापा नहीं है.. ये घर अब मेरा है..
बेटे की बात सुनकर दंग रह गयी सुषमा..
कैसे समझाती कि… घर मेरे नाम है.. सिर्फ़ बिजली का बिल देने से …. घर उसका नहीं हो जाता….उस समय कुछ नहीं बोलीपर… उस दिन के बाद से… वह रोज़ एवं महीने के खर्चे लिखने लगी…कितने का फल…. कितने का राशन… कितने का दूध..कितने पैसे माँगे.. कितने पैसे दिए….इत्यादि।
“माँ चाय बनाओ… नौ बज गए… “अपना ऑफ़िस का लैबटॉप ऑन करते हुवे स्नेहा बोली।
कोई जवाब ना मिलने पर….
माँ… क्या क्या कर रही .., उठी नहीं क्या अभी तक….
तभी सौरभ आया और बोला…” चाय नहीं मिली अभी तक… मम्मी ने जगाया भी नहीं …. देरी हो रही…., ऑफ़िस के लिए…. दीदी … तुम ही बना दो।”
“ मैं तुम्हारी नौकर नहीं…. खुद से बना लो…मम्मी ने पैम्पर कर रखा है तुम्हें…”
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“ और तुमने.., मम्मी को अपनी …..नौकरानी…,, तभी तो… वो हर समय तुम्हारी पसंद का खाना बनाती है और तुम्हारा ही पक्ष लेती हरदम…।”
“ तो रखो अपने साथ ना…।”
सुषमा जी को दोनों बच्चे आवाज़ दे रहे… पर कोई जवाब ना मिलने पर उनके कमरे में गए…” अरे!!कमरे में नहीं तो… वाशरूम में होंगी??? शायद???यह सोच स्नेहा चाय बनाने के लिए पैन गैस पर चढ़ाने लगी तभी….” दीदी माँ …..कहीं चली गयी…. ये देखो यह पत्र…. तकिए के पास…,”
“क्या बकते हो ????? दिमाग़ ख़राब हो गया है तुम्हारा????” स्नेहा चिल्लाई।
“ यें …. देखो…।”
स्नेहा पत्र पढ़ने लगी..
प्रिय बच्चों
बहुत सारा प्यार!
मैं आज यह घर छोड़ कर जा रहीं हूँ… मैं अब तुम लोगों पर..,, और बोझ नहीं बनना चाहती….आए दिन मेरी वजह से बढ़ते खर्चें…. बढ़ते कलह .., और रोज़-रोज़ तुम लोगों के उलाहनों से तंग आ गयी थी… इतने उलाहने तो तुम्हारे पापा ने नहीं दिए कभी… तब तो मैं आत्मनिर्भर भी नहीं थी…
तुम्हारे पापा के जाने के बाद… उनकी पेंशन से मैं आत्मनिर्भर तो हूँ…
औरत हर हाल में निर्वाह करना जानती है क्योंकि उसे जीवन के प्रत्येक काल में निर्वहन करना होता है। लेकिन…”बच्चों और परिवार के पीछे वो ख़ुद को भूल जाती हैं कि… उसका भी कोई अस्तित्व हैं।”
हर पैरेंट्स को यह उम्मीदें रहती है कि…. बच्चों को उनकी आवश्यकता है और सच तो यह भी है कि … बच्चों को भी उनकी जरुरत होती है।
अपने बड़ों से सुना था कि “हम माता पिता अपने बच्चों को बचपन में जितना सपोर्ट और प्रेम करते हैं उसी अनुपात में वो बुढ़ापे में हमें लौटाते हैं… “
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लेकिन तुम्हारे पापा…. सदैव कहते कि….
“अपने आप को आर्थिक रूप से हमेशा मज़बूत रखना…..बुढ़ापे में यहीं तुम्हारी ताक़त है।
कौन पहले जाएगा पता नहीं… पर आजकल का ज़माना देखते हुवे …. हमें बच्चों से कोई भी आशा नहीं करनी चाहिए।”
लेकिन… तुम्हारे पापा के जाने के बाद.. मैं पापा-माँ दोनों की भूमिका निभाने में लग गई और अपना अस्तित्व पुनः भूल गयी,
पर..
अब मैं भी गुब्बारों की तरह मुक्त गगन में उड़ना चाहती थी जो चाहकर भी नहीं कर पाई।तुम्हारी परवरिश और तुम्हारे प्रति अपनी जिम्मेदारियों की बेड़ियों ने मुझे जकड़ रखा था।
पर अब और नहीं…. बहुत जिम्मेदारी निभा ली हमने…. फिर भी तुम लोगों के ताने और उलाहने…… हर चीज़ में टोका-टाकी अब बर्दाश्त नहीं…कुछ साल तो खुद के लिए जी लूँ….. अपने शौक़ पूरे करूँ।मैंने “सीनियर सिटीज़न ग्रुप” जॉइन कर लिया हैं…. और हाँ मैंने पापा की पॉलिसी के पैसों से एक “स्टूडियो अपार्टमेंट” बुक किया था… कुछ महीनों बाद वह भी मिल जाएगा… कुछ दिनों बाद वहाँ शिफ्ट हो हो जाऊँगी।
अब मैं कभी भी वापस ना आने वाली… क्योंकि… मैं तुम लोगों के साथ रहूँगी तो…
जाओ जिओ अपनी ज़िंदगी… जो मेरी वजह से जी नहीं पा रहे थे तुमलोग।
तुम लोग मेहनत करता है तो.. पैसे पाता है …तो…मैंने भी तेरे पापा को खो कर ये पेन्शन पायी है.. जो मेरे भरण-पोषण के लिए मिलता है ,ना कि… तेरे घर के खर्चे के लिए…मुझे पता है कि… पैसे पेड़ पर नहीं उगते ….तुम मेहनत कर पैसा कमाता हैं और मुझे तेरे पापा के खोने की क़ीमत…!
बहुत बार सुन चुकी मैं कि… पैसे पेड़ पर नहीं उगते.. ये देखो डायरी.. सब लिखा है इसमें… कितना और क्या-क्या और कौन-कौन से खर्चे है हर माह के… किसलिए और किस पर खर्च होते है…. तुम कितना देते हो और कितना लेते हो…इत्यादि।
और हाँ…, मैं कोई वस्तु नहीं … जो जब चाहे… किसी के पास रहे या कोई मुझे रखे.. हांड-मांस का पुतला नहीं … एक जीवित इंसान हूँ मैं… जिसका कोई आत्मसम्मान है…अपनी सारी जवानी गँवा दी…. तुम्हारी परवरिश और तुम्हारे सपनों को पूरा करने में….
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और तुम कहते हों कि….” आपने नया क्या किया???? हर पेरेंट्स करता है…. जन्म दिया है तो करना ही है आपको…. आपका कर्तव्य है यें…. आपकी ज़िम्मेदारी भी।”
तो…..,,
जन्म दिया है तुम लोगों को… तो….मेरे बाद…, मेरा सब कुछ तुम्हारा….
मैं अपने कर्तव्य निभाने से पीछे कभी नहीं रही…. इसलिए……….
यह घर, बैंक बलेंस, ज़ेवर-ज़ेवरात सब तुम दोनों के नाम कर दिया है…. मेरे लिए मेरे दोनों हाथ और मेरी पेन्शन बहुत है… तुम्हारे पापा की दी हुई नसीहत भूल सी गयी थी मै, लेकिन तुम्हारे कल के व्यवहार ने … मेरी आँखे खोल दी और याद दिला दिया कि… जब आत्मसम्मान को ठेस पहुँचे… वहाँ कभी रहना नहीं।
तुम्हारी माँ!
संध्या सिन्हा