दूसरे दिन अहिल्या ने मुकुल को दो टिफिन बाक्स दिये –
” एक तुम्हारा और एक दक्षिणा का।”
” अपना टिफिन बाक्स तो वह खुद लेकर आई होगी।”
” नहीं, उसे पता है कि आज उसके लिये खाना मैं भेजूॅगी।” अहिल्या मुस्कराई।
” तुम लोगों की भी अजीब साजिशें है, अब तुम लोगों की दोस्ती का रहस्य खुल नहीं जाएगा?”
” हाॅ, केवल तुम तक ही सीमित रहना चाहिये । ऑफिस में किसी को पता नहीं चलना चाहिये ।”
बरसात के दिन थे। घर जाते समय बारिश होने लगी – ” मेरे पास रेनकोट और छतरी दोनों हीं है। आप रेनकोट ले लीजिये।”
” ले तो लूॅ ।” शरारत से मुस्कुरा दिया वह – ” रेनकोट में बसी तुम्हारी महक मेरे अंदर समा गई तो वह कहाॅ से वापस करूॅगा और मेरी महक तुम्हारे घर तक पहुॅच गई तो घर वालों को क्या जवाब दोगी?”
” आप तो हर बात तो कहाॅ से कहाॅ पहुॅचा देते हैं” मुस्कुरा दी वह और मुकुल की तरह भीगते हुये ही घर आई।
अक्सर दक्षिणा का उदास चेहरा और रोई रोई सी ऑखें देखकर तड़प उठता मुकुल लेकिन कुछ कर नहीं सकता था। मन करता कि दक्षिणा को कष्ट देने वाले को ऐसी सजा दे कि वह लोग दोबारा दक्षिणा की ओर देखने का भी साहस न कर सकें। पूॅछने पर वह कुछ बताती भी नहीं थी हमेशा कह देती –
” सब ठीक है, चिन्ता न करिये।”
एक दिन पता नहीं कैसे दक्षिणा के मुॅह से निकल गया –
” पॉच दिन हो गये हैं मैंने खाना नहीं खाया है,केवल चाय और पानी के सहारे जीवित हूॅ। इस पर घर वाले कहते हैं कि बाहर से खाकर आती हो तो घर का खाना कैसे अच्छा लगेगा? खाओ चाहे न खाओ घर का काम तो करना ही पड़ेगा।”
मुकुल दंग रह गया – ” तुम पागल हो क्या? पॉच दिन से तुमने कुछ खाया नहीं और किसी को जरा भी परवाह नहीं है ?क्यों कर रही हो यह जब किसी पर कोई फर्क नहीं पड़ता? अपनी हालत देखी है?क्या हो गई ?मैंने पूॅछा भी कि क्या तुम्हारी तबीयत ठीक नहीं है लेकिन तुमने कुछ नहीं बताया।”
” क्या बताती जो समस्या मेरी जिंदगी से जुड़ी है और मेरी साॅसों के टूटने के बाद ही जिसका समाधान होगा, उसे बताकर क्या होगा?”
” तुम कलेजे में छुपाकर रखने योग्य हो और इतनी पीड़ा में जीती हो, सोंचकर कितनी पीड़ा होती है मुझे ? कभी सोचा है कि तुम्हें इतने कष्ट में देखकर मुझ पर क्या बीतती है?” मुकुल का व्यथित स्वर।
” जानती हूॅ, तभी तो नहीं बताती। मेरी जिंदगी में है ही क्या? मृत्यु भी तो पास नहीं आती। मर जाऊॅ तो शांति मिले एक नरक से छुटकारा मिल जायेगा।” दक्षिणा आज बहुत निराश थी।
” बेकार की बात मत करो। जिन्हें तुम्हारी परवाह नहीं है उनकी परवाह क्यों करती हो? दूसरों से अधिक अपनी जिंदगी तुमने खुद बर्बाद की है? कुछ मूर्खों के लिये अपने आप को क्यों सता रही हो? तुम मर भी जाओ तो क्या फर्क पड़ेगा किसी पर? मत ध्यान दिया करो पागलों के प्रलाप पर।”
” कहाॅ तक बर्दाश्त करूॅ मुकुल? नहीं बर्दाश्त होता, सहन करते-करते हार गई हूॅ मैं। मन करता है कि अपने आप को खत्म कर दूॅ। ” छलक आईं उसकी ऑखें।
“‘ बुद्धिमान और विवेकवान दक्षिणा ऐसी बातें कैसे करने लगी ? छोड़ो, मैं कुछ मॅगाता हूॅ। अभी खा लो, कल तुम्हारा खाना मैं लेकर आऊॅगा।”
” ऐसा मत कीजियेगा। अहिल्या को मेरे कष्ट और समस्याओं के बारे में कुछ ना बताइयेगा। उसके पास जाकर मैं कुछ देर के लिये अपने सारे दुख और परेशानी भुलाकर बहुत खुश रहना चाहती हूॅ। अहिल्या के प्यार में अपने लिये सहानुभूति नहीं चाहिये मुझे।”
” अगर तुम ऑफिस में कोई तमाशा नहीं चाहती हो तो अभी जो मॅगा रहा हूॅ, चुपचाप खा लो और कल अपना टिफिन बॉक्स लेकर आना वरना लंच में अहिल्या टिफिन लेकर आएगी।”
दक्षिणा कॉप गई – ” ऐसा कुछ मत करियेगा मुकुल। यह ऑफिस है यहाॅ बात का बतंगड़ बनते देर नहीं लगती।” उसकी ऑखों में ऑसू तैर गये – ” मेरी गलती है जो आपको सब बता दिया।”
” गलती तुम्हारी नहीं ,मेरी है जो मैंने ध्यान नहीं दिया कि आजकल तुम टिफिन लेकर नहीं आ रही हो। आगे से मैं ध्यान रखूॅगा।”
और मुकुल की जिद के सम्मुख हार गई वह। हालांकि उसके लिये भी ताने सुनने पड़े –
” चार दिन में ही सारी हेकड़ी निकल गई। फालतू की नौटंकी का हम लोगों पर कोई असर पड़ने वाला नहीं है। कोई मरे चाहे जिये।”
मुख्यालय को वार्षिक रिपोर्ट भेजी जानी थी। रिपोर्ट करीब करीब तैयार हो गई थी। अचानक दक्षिणा ने काम बंद कर दिया –
” अब बहुत थक गई हूॅ। अब चाय मॅगवाइये। बाकी रिपोर्ट कल आकर पूरी करेंगे। कल थोड़ा जल्दी आ जाइयेगा । मैं मैनेजर साहब से बात कर ली है ,रिपोर्ट तैयार करके 11:00 बजे तक मैं चली जाऊॅगी। सास के मायके में शादी है तो हम लोगों को कल झांसी जाना है।”
” बेवकूफ हो तुम, जो लोग तुम्हारी जरा भी परवाह नहीं करते उनके लिए मरती रहती हो। क्यों जा रही हो ? मना कर दो।”
दक्षिणा हॅस दी – ” आप नहीं समझेंगे, कुछ काम न चाहते हुए भी करने पड़ते हैं ।”
” तुम तो सारे ही काम मर्यादा और संस्कार के नाम पर मन मारकर ही करती हो। न जाने कब तक ऐसे ही घुट- घुट कर जीती रहोगी।”
” शायद आजीवन।” दक्षिणा फिर मुस्कुरा दी ।
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बीना शुक्ला अवस्थी, कानपुर