“सुमिता बुटीक कलेक्शन”
बड़े बड़े अक्षरों में लिखे इस नाम को देख कर आसपास खड़े सारे लोग सुमिता जी को बधाई दे रहे थे…सब की नज़रें कौतूहल से सुमिता जी को ही देख रही थी आख़िर पचास साल की उम्र में ये सब करने की हिम्मत कहाँ से जुटा सकी ।
इधर बाहर गेट पर अपने नाम का बोर्ड देख कर सुमिता जी की आँखें भर आई थी…. बेटे-बहू ,पोते-पोतियों ,बेटी-दामाद ,नाती -नातिन वाली सुमिता जी कभी ये सोची भी नहीं थी कि ज़िन्दगी के उस मोड़ पर जब सब आराम करने का सोचते…भजन कीर्तन में लगे रहते वो कुछ हासिल करने का प्रयास कर रही है…..उनकी खुद के हाथ में पैसे हो ये सपना कहीं दबा हुआ सा था जिसे वो अंजाम देना को चाहती थी पर कभी दे नहीं पाई … आत्मनिर्भरता का पाठ सबको पढ़ाती पर खुद आत्मनिर्भर नहीं बन पाई थी…
आश्रिता की ज़िन्दगी जीते जीते वो कही ना कही से खुद को कमजोर और लाचार महसूस करने लगी थी…बहुत दुख देखे थे जीवन में इसलिए बेटों ने भी माँ को आराम मिले इसका पूरा ध्यान रखा था…पर वो कुछ करना चाहती थी इस उम्र में आ कर जिसके लिए बच्चों को तैयार करना बहुत मुश्किल था पर वो भी माँ कीं ख़ुशी देख कर मान गए थे और सच है ये दिन भी सबकी क़िस्मत में नहीं आता जो आज उनके जीवन में आया था
“ नमस्ते सुमिता मैडम ….कैसा लग रहा है ये सब देख कर… ये बिल्कुल आप का ही अपना है..….. छोटा सा ही सही पर आपका अपना शोरूम देख कर !” आवाज़ सुन कर वो मुस्कुरा दी थी
“ अच्छा नानी से मसखरी कर रहा है….।” हँसते हुए अपने नाती की पीठ पर धौल जमा दी
“ बताओ ना नानी तुम्हें कैसा महसूस हो रहा है?” दोनों नाती नातिन ने पूछा
“मेरा वर्षों का सपना जैसे पूरा हो गया है…ऐसा महसूस हो रहा है ।”सुमिता जी ने कहा कहते हुए उनकी आँखें भर आई थी
छोटी सी दुकान और उसमें एक छोटा सा मगर सुंदर सा मन्दिर… भगवान की मूर्ति के साथ साथ एक तरफ उन्होंने अपने पति की तस्वीर भी रखी हुई थी… हाथ जोड़कर उनको नमन करते हुए सुमिता जी बोली,“ देखिए जी बच्चों ने मेरा इतना हौसला बढ़ाया कि मैं आज अपना सपना पूरा कर पाई…और अब मैं भी आत्मनिर्भर हो गई हूँ ।”
छोटी सी शॉप पर पूजा करके उसका शुभारंभ कर दिया गया ।
शाम तक लोगों का आना जाना लगा रहा… पर सुमिता जी इन सब से परे बस अपनी दुकान को ही निहारने में लगी हुई थी……
“ माँ अब चले!” बड़ी बहू ने जब कहा तो उनकी तंद्रा भंग की
“ हाँ हाँ चलो … कल से वक़्त पर खोलना होगा…. ।” जाने किन ख़्यालों में खोई खोई सी सुमिता जी ने कहा
घर आकर सब आज पूरे दिन का बहीखाता सुमिता जी को समझा रहे थे… पचास की उम्र में इस काम को अंजाम देने के लिए बहुत कुछ सुनना पड़ा था तब जाकर ये सपना सच हुआ था , वो कोई भी गलती नहीं करना चाहती थी इसलिए सब कुछ भलीभाँति समझ रही थी ।
सब कुछ तय कर वो अपने कमरे में चली गई….बिस्तर पर लेट कर आँखें मूँद कर वो ज़िन्दगी के बीस बसन्त पार कर पीछे अपने पति के पास पहुँच गई थी…
यादों के झरोखे से झांकते हुए उनके पति जैसे कह रहे थे,” सुमि तुम्हें कभी बिज़नेस वाले से शादी नहीं करनी थी ना… पर देखो मैं नौकरी करना तो चाहता था पर उसमें मेरा मन नहीं लगा….बाबूजी तो नौकरी करते थे पर मुझे हमेशा अपना व्यापार करना था … जानता हूँ इसमें उतार चढ़ाव बहुत होते कभी नफ़ा तो कभी नुक़सान भी झेलना पड़ता है.. पर भरोसा रखो तुम्हें कभी कोई तकलीफ़ ना होने दूँगा।”
पति के व्यापार में कभी कभी होते नुक़सान से सुमिता जी डर जाती थी ना जाने आगे क्या हो…सरकारी नौकरी हो तो तय रहता पैसे तो आएँगे ही पर व्यापार में लाभ हानि का झोल बना ही रहता..खैर धीरे-धीरे सुमिता जी पति के साथ साथ व्यापार को भी समझने लगी थी।
पर होनी को कुछ और ही मंज़ूर था… अचानक एक दिन रोड एक्सीडेंट ने सुमिता जी को वैधव्य दे दिया और वो ऐसी लाचार हुई कि अपने तीन बच्चों को देख देख कर भविष्य की चिंता में बीमार रहने लगीं थी…. धीरे-धीरे व्यापार देवरों ने अपने हाथ में ले लिया और सुमिता जी उन सबके रहमोकरम पर जीने लगी… सबसे बड़ा बेटा तब दस साल का ही था…. उन सबकी पढ़ाई लिखाई किसी तरह देवरों ने सँभाला हुआ था ….कारण बस यही था कि समाज में भी अपनी नाक बची रहे..बच्चे पढ़ने में ठीक थे तो किसी तरह पढ़कर नौकरी पर आ गए…
सुमिता जी अब सोचने लगी थी कि देवर से कह कर व्यापार दूसरे बेटे को दिलवा दे पर ऐसा कब हुआ है कि इतने दिनों सँभालने के बाद सत्ता कोई किसी को सौंप दे.. बहुत बहस हुआ… पर देवर ने कहा,“इतने दिन सब कुछ किया …भैया के व्यापार को इतने उपर तक लेकर आ गया अब आपका इसमें कुछ भी नहीं है… ।”
अपने हाथ से पति के व्यापार को जाते देख सुमिता जी रो पड़ी थी….बड़े बेटे ने समझाते हुए कहा,“ माँ अब जो हो गया जाने दो ….अब हम इस काबिल है कि हम भी कुछ कर सकते है… चिन्ता मत कर बहन की शादी करनेके बाद छोटे को भी नौकरी पर लगा देंगे… फिर हम आराम से रहेंगे ।”
बहन की शादी भी कर दी और छोटे की नौकरी भी हो गई…
भगवान की दया से बेटा बेटी सब की शादी के बाद सुमिता जी के मन में फिर से अपने पति के व्यापार को अपना कर आगे लेने के ख़्याल आने लगे… बच्चों से बात की तो सबने कहा,“माँ इस उम्र में ये सब फिर से शुरू करने की हिम्मत कहाँ से आएगी … हम तो अपनी नौकरी पर रहेंगे आपकी मदद करने वाला कोई नहीं होगा… बहुत मुश्किल होगा फिर से अपने पुराने व्यापार को स्थापित करना…!”
“ पर बेटा एक कोशिश कर के देखने तो दें नहीं हुआ तो छोड़ दूँगी ….।” बच्चों के ना से मायूस हो कर सुमिता जी ने कहा
सुमिता जी की दोनों बहुएँ घर पर उनके साथ ही रहती थी… उन दोनों ने सुमिता जी की बात सुन कर आपस में फ़ैसला किया कि अगर मम्मी जी चाहती है तो हम भी उनकी मदद कर सकते हैं… शुरुआत घर से ही करेंगे… धीरे-धीरे लोग जानने पहचानने लगेंगे तो आगे का सोचा जाएगा।
दोनों ने अपने अपने पति से बात की और सुमिता जी ने घर के एक कमरे से अपने छोटे से व्यापार को शुरू कर दिया…. लेडीज़ के लिए विभिन्न प्रकार की चीज़ों से घर सजने लगा था… लोग जानने लगे …तो व्यापार भी बढ़ने लगा… बहुओं को भी अच्छा लग रहा था…
जब आपके थोड़े से प्रयास से पैसे आने लगते तो उत्साह भी बढ़ता और हौसला भी मिलता… साथ ही साथ आत्मनिर्भर होने से खुद में ही गर्व की अनुभूति होने लगती है ….
लगभग साल भर बाद ही सबने घर के पास ही एक छोटा साल दुकान ख़रीद लिया …. उसे बहुत ज़्यादा लागत लगा कर नहीं वरन सुविधाओं को ध्यान में रख कर तैयार किया गया और आज सुमिता जी के सपनों को एक नाम मिल गया “ सुमिता बुटीक लेक्शन ”
“ अरे माँ आप सो रही है…. देखिए हम क्या लेकर आए हैं !” आवाज़ सुन सुमिता जी अपने यथार्थ में लौट आई सबको अपने कमरे में सबको आया देख कर वो उठ बैठी…देखा तो बच्चों ने केक पर “सुमिता बुटीक कलेक्शन “लिखवा रखा था… सबने मिलकर केक काटा और आज के दिन को एक यादगार लम्हा बना दिया ।
सुमिता जी की दबी हुई इच्छा में बहुएँ ने भी रंग मिला दिए और सुमिता बुटीक कलेक्शन को ऊँचाइयों पर ले जाने का वादा किया ।
सुमिता जी आत्मनिर्भर बनना चाहती थी पर परिस्थितियाँ ऐसी बनी की वो उस वक्त कुछ सोचने समझने की स्थिति में नहीं थी और पति का व्यापार कब उनके हाथ से निकल गया वो समझ ही नहीं पाई…जब महसूस हुआ कि अब ज़िन्दगी के बाक़ी बचे दिनों को यूँ ही जाया क्या करना तो उन्होंने अपने हिसाब से सोच समझ कर व्यापार करने का सोचा और जो बहुएँ कभी घर की ज़िम्मेदारियों से मुक्त नहीं हो पाती थी वो भी इसमें भरपूर सहयोग कर आत्मनिर्भर बन गई थी।
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धन्यवाद
रश्मि प्रकाश