गुरूर. – निभा राजीव “निर्वी” : Moral Stories in Hindi

पीहू और कुहू ने सुनंदा जी को प्यार से सहारा देते हुए गाड़ी में बैठाया और दोनों उनके अगल-बगल बैठ गईं। शीघ्र ही गाड़ी ने रफ्तार पकड़ ली। सुनंदा जी के शरीर का बायाँ लकवाग्रस्त भाग निश्चेष्ट पड़ा हुआ था और वह कांपते हुए दाएं हाथ से अपनी भींगी आंखों को पोंछने का प्रयास कर रही थीं।

अचानक पीहू की नज़र उनकी ओर गई तो उसने प्यार से सुनंदा जी को पीछे से बाहों में घेरते हुए उनकी आंखें पोंछ दी और मुस्कुरा पड़ी। उसने सुनंदा जी को थोड़ा पीछे करते हुए सीट के साथ उनकी पीठ टिका दी। सुनंदा जी ने आंखें मूंद ली किंतु उनका मन अतीत की गलियों में विचरने लगा।

             सुनंदा जी की देवरानी आनंदी चौके में कटोरा में थोड़ा सा दूध निकाल रही थी और नन्ही कुहू उसके पैरों से लिपटी हुई थी। तभी पीछे से सुनंदा जी ने आकर कटाक्ष करते हुए कहा,

“-अरे आनंदी! इन निगोड़ियों को दूध दही खिला खिलाकर क्यों खुद को लुटाए जा रही है… पानी में मिश्री घोलकर पिला दे… चार पैसे बचाएगी तो इनके दहेज के काम आएंगे। अब तेरे भाग में बेटे का सुख है नहीं तो यह सब तो करना ही पड़ेगा क्या कर सकती है।”

       उनकी जली कटी बातें सुनकर आनंदी का कलेजा टूक टूक हो गया लेकिन प्रत्यक्ष में उसने संयमित स्वर में कहा

” भाभी, चंदन और कुंदन को दूध पीते देखकर कुहू जिद करने लगी तो इसीलिए थोड़ा सा दूध इसके लिए ले जा रही हूं।” 

“-अरे तो जो चंदन और कुंदन करेंगे वही यह निगोड़ियां भी करेंगी… अरे वे तो लड़के हैं लड़के। अरे लड़के से ही वंश बढ़ता है और लड़का ही बुढ़ापे की लाठी होता है। कुलदीपक हैं मेरे बेटा! उसके हाथों से अग्नि पाकर परलोक सुधर जाएगा मेरा तो… अपनी छोरियों की तुलना उससे करने की तो सोचना भी मत!!!…छोरियां तो बस छाती पर मूंग दलने आती हैं…अरे बाप की चप्पल घिस जाती है उसका दहेज जुटाने में… हाँ नहीं तो…” सुनंदा जी ने गुरुर से हाथ नाचते हुए कहा।

         तभी चौके के बाहर ओसारे पर बैठी पीहू ने मासूमियत से कहा, 

“- ताई जी, आप फिकर मत करो.. मैं बाबा को बिल्कुल परेशान नहीं करूंगी.. खूब पढ़ूंगी लिखूंगी और मां बाबा का सहारा बनूंगी। इस बार भी मैं अपनी कक्षा में अव्वल आई हूं। आप भी चंदन भैया और कुंदन भैया से बोलना कि वह भी खूब पढ़े तो वह भी मेरी तरह अव्वल आएंगे।”

“-बित्ते भर की छोकरी और गज भर की जुबान! अच्छी शिक्षा दे रखी है मां-बाप ने। अरे मेरे चंदन और कुंदन को जरूरत ही नहीं है एड़ियां घिसने की! इतने बड़े घर के छोरे हैं सब कुछ उन्ही का तो है… पूरे गांव भर में कोई ना है मेरे बेटों जैसा… गुड़ की डली टेढ़ी भी भली!…. आनंदी अभी भी समय है संभाल

अपनी छोरियों को वरना हाथ से निकल जाएंगी तो कहीं का नहीं छोड़ेंगी.. पराए घर जाना है.. जाने कितनी जगहंसाई कराएंगी.. हिम्मत तो देखो.. मुझे पलट कर जवाब देती है.. यह सब धौंस मैं नहीं सहूंगी… आज फैसला हो ही जाएगा।”

                 पीहू फिर कुछ बोलने ही वाली थी कि आनंदी ने आगे बढ़कर उसका मुंह दबाया और कटोरे का दूध वापस भगोने में उड़ेल दिया और दोनों बच्चों को लेकर कमरे में आ गई। आंखों से आंसुओं की धारा बहने लगी दोनों बेटियों को कलेजे से लगाए उनको थपकियां देने लगी। दूध के लिए रोती हुई कुहू सो चुकी थी। उसके नन्हे गालों पर सूखी हुई अश्रु धाराओं के चिन्ह देखकर उसका कलेजा फट गया।

              सुनंदा जी और उनके पति रंजीत जी आरंभ से ही कुछ दबंग प्रवृत्ति के थे। वहीं आनंदी और उसके पति सुजीत जी दोनों ही नर्म स्वभाव के थे। उनके ससुर की गांव में बहुत जगह जमीन और खेती बाड़ी थी। 

सुनंदा जी के दो बेटे थे चंदन और कुंदन.. और आनंदी दो बेटियां ही थी पीहू और कुहू। बेटे होने का गुरूर सुनंदा की और रंजीत जी के सर चढ़कर बोलता था। समय के साथ सास ससुर नहीं रहे! किंतु जाने से पूर्व दोनों बेटों में बंटवारा करके गए। सुनंदा जी और रंजीत जी को बड़ा और बेहतर हिस्सा मिला

क्योंकि वह उनके वंश के दीपक के माता-पिता जो ठहरे और सुजीत जी और आनंदी को छोटा हिस्सा मिला। लेकिन नर्म और विनम्र स्वभाव के आनंदी और सुजीत ने कभी कोई उपालंभ नहीं दिया और प्रसन्न भाव से घर में रहते थे। बड़े भाई और भाभी के सम्मान में उन्होंने अभी तक अपना चौका अलग नहीं किया था। लेकिन सुनंदा जी गाहे बगाहे आनंदी पर कटाक्ष करने से नहीं चूकती थी। और आज भी वही हुआ…..

         रंजीत जी और सुजीत जी के खेतों से वापस आते ही सुनंदा जी ने अच्छा खासा बखेड़ा खड़ा कर दिया और आनंदी और सुजीत जी का जी भरकर अपमान करने के बाद उनका चौका भी अलग कर दिया। 

        आनंदी और सुजीत ने इसे भी नियति मानकर स्वीकार कर लिया और इसी प्रकार से दिन बीतने लगे। यथासंभव वो अपनी बेटियों को सुख सुविधा और उत्तम शिक्षा दीक्षा देने का प्रयत्न करते थे। 

             वही चंदन और कुंदन दोनों भाइयों को आवारागर्दी के अतिरिक्त और कुछ भी ना सूझता था। किंतु फिर भी लाड़ दुलार में सुनंदा जी दोनों की बलाएं लेती न थकती थीं। 

समय का पहिया अपनी गति से चलता रहा। पीहू और कुहू उच्च शिक्षा के लिए शहर चली गई और पढ़ लिख कर उच्च पदासीन हो गईं। जबकि चंदन और कुंदन बार-बार असफलता का मुंह देखते हुए अभी भी उसी कक्षा में अटके हुए थे। रंजीत जी की भी अब उम्र हो चली थी पर दोनों बेटे न तो पढ़ाई है में ही कुछ कर सके और ना ही खेती-बाड़ी के कामकाज में ही हाथ बंटाते थे। उस पर से दोनों को नशे की भी लत लग चुकी थी। 

            एक दिन जब दोनों नशे में धुत होकर घर आए तो रंजीत जी ने उन्हें टोक दिया। इस पर चंदन ने आव देखा ना ताव और बढ़कर रंजीत जी पर हाथ उठा दिया। रंजीत जी लड़खड़ाकर गिर पड़े और मेज का कोना उनके सर पर लग गया। खून का फव्वारा छूट पड़ा। यह देखकर दोनों भाइयों का नशा हिरण हो गया।

सुनंदा जी दौड़कर आई और सुजीत जी का दरवाजा पीटने लगी। आनंदी और सुजीत जी दोनों बाहर आए और बाहर का दृश्य देखकर उनके भी होश उड़ गए। आनन फानन में वे रंजीत जी को लेकर शहर पहुंचे लेकिन बहुत देर हो चुकी थी। खून बहुत बह चुका था। रंजीत जी को बचाया नहीं जा सका।

        रंजीत जी के क्रिया कर्म होने के बाद तो दोनों भाइयों को और भी खुली छूट मिल गई। अब वह जी भर कर अपनी मनमानी करने लगे थे। सुनंदा जी को पहले पुतला कर सारी संपत्ति भी अपने नाम करवा ली। धीरे-धीरे पूरी खेती बाड़ी का सत्यानाश हो गया और अपने नशे की लत को पूरा करने के लिए उन्होंने धीरे-धीरे करके जमीन जायदाद बेचनी शुरू कर दी।

और एक दिन चुपके से घर भी बेच कर दोनों सुनंदा जी को घर में अकेली सोती छोड़कर रातों-रात कहीं भाग गए। सुनंदा जी को तब पता चला जब घर के खरीदार उस पर कब्जा करने आए। कमरे में बैठी सुनंदा जी निस्सहाय अपने भाग्य को क्रंदन करते हुए कोस रही थी। खरीदार ने बहुत ही कठोरता से सुनंदा जी को घर से निकल जाने को कहा और उनका सारा सामान भी निकाल कर बाहर कर दिया।

सुनंदा जी जब बाहर नहीं आई तो उसने मजदूरों को आदेश दिया कि वह उन्हें निकाल कर बाहर कर दे। सुजीत जी और आनंदी से अब बर्दाश्त नहीं हो सका कि उनके होते हुए कोई सुनंदा जी से इस तरह का व्यवहार करे। वे लोग कुछ करते इसके पूर्व ही सुजीत जी और आनंदी सुनंदा जी को ससम्मान अपने घर ले आए। आत्मग्लानि से सुनंदा जी दृष्टि उठा नहीं पा रही थी।वह आनंदी का हाथ पकड़ कर रो पड़ी और अपने द्वारा किए गए दुर्व्यवहार के लिए क्षमा मांगने लगी,

“- आनंदी ! मैंने तुम्हें क्या कुछ नहीं कहा और कौन सा दुर्व्यवहार बाकी रह गया जो मैंने तुम्हारे साथ ना किया हो। मैं पुत्रवती होने के अभिमान में ऐसी उन्मत्त हो गई कि तुम सब का प्यार और सम्मान दोनों का अपमान कर दिया…. परंतु कुल के दीपक से ही घर में आग लग गईं… और तुम्हारी लक्ष्मी स्वरूपा बेटियाँ आज पूरे कुल का अभिमान बन गईं… हो सके तो बड़ी बहन समझ कर मुझे क्षमा कर देना। मैं तो बड़ी हूं लेकिन तुमने यह सिद्ध कर दिया कि बड़ा अपने कर्मों से बना जाता है आयु और दंभ से नहीं..”

सुनंदा की फूट-फूट कर रोने लगी। आनंदी ने उनके आंसू पोंछते हुए कहा,

“- कैसी बातें कर रही हैं भाभी! आप मेरी बड़ी बहन हैं और सदैव रहेंगी! और मेरी बेटियां केवल मेरी बेटियां नहीं आपकी भी बेटियां हैं। वह भी सदैव आपका आशीष की आकांक्षी रहेंगी।”… सुनंदा जी ने आनंदी का माथा चूम लिया।  

      आनंदी ने उन्हें खाना खिलाकर कमरे में आराम करने के लिए पहुंचा दिया।

            उसी दिन शाम को जब आनंदी चाय लेकर सुनंदा जी के कमरे में आई तो पाया कि सुनंदा जी जमीन पर गिरी हुई है और उनके शरीर का बायां भाग पक्षाघात से ग्रस्त हो चुका है। उसने आवाज देकर सुजीत जी को बुलाया। दोनों ने मिलकर उन्हें वापस पलंग पर लिटाया। सुजीत जी ने गांव में रहने वाले ही डॉक्टर को तत्काल बुला भेजा मगर उन्होंने भी सुनंदा जी को शहर ले जाने की सलाह दी। तुरंत सुजीत जी ने पीहू और कुहू को वस्तु स्थिति फोन के द्वारा समझाई। दूसरी सुबह ही दोनों बहने शहर से आ गई और आज अपनी ताई जी को लेकर शहर जा रही थी उनका अच्छे से अच्छा इलाज कराने। आज गुरुर खंड खंड होकर धूल धूसरित हो चुका था और सुसंस्कार गुरुर पर भारी पड़ चुके थे।

निभा राजीव “निर्वी”

सिंदरी, धनबाद, झारखंड

स्वरचित और मौलिक रचना

#गरूर

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