मेरा मन उदास था। घर में सन्नाटा पसरा हुआ था। पतिदेव को आफिस विदा करते ही एक विचार आया , क्यों नहीं सहेलियों से मिलकर मन को हल्का किया जाय ।झट वार्डरोब खोलकर ड्रेस निहारने लगी | लाल कोर वाली हरी सिल्क साड़ी दिखी। अरे वाह ! यह साड़ी दादाजी ने शादी की पहली साल-गिरह पर मुझे भेंट किया था | साड़ी निकाली और फटाफट शीशे के सामने खड़ी होकर तैयार होने लगी । साथ में मैचिंग की बिंदी , नेलपॉलिश और चूड़ियाँ पहनी। आज पहली बार शीशे के सामने मैं अपने को बहुत सुंदर दिख रही थी |
“हाँ, इतना सजने का अवसर पहले कभी नहीं मिला था। एक साल हुए, जब से शादी करके आयी दादाजी को बिमार ही देखा ! घर का काम और दादाजी की सेवा । वो भी मुझे बहू कम बेटी अधिक समझते… ” बुदबुदाते हुए मैं बाहर निकलकर दरवाजा बंद करने लगी कि एक आवाज सुनाई पड़ी, ” बहू….सुराही में पानी भर कर जाना ।”
मैं दौड़ी-दौड़ी दादाजी के कमरे में गई। वहाँ सन्नाटा पसरा था। सुराही यथास्थान रखी थी | धक्क से सारी बातें चलचित्र की तरह आँखों के सामने नाचने लगी। कितना बखेड़ा हुआ था, इस सुराही के लिए !
……..दादाजी के श्राद्धकर्म के बाद उनके व्यवहार के सामान को उनके कमरे से हटाकर फेंकने या कबाड़ी को देने का विचार सभी ने किया । ताकि इस कमरे को अब गेस्ट रुम की तरह उपयोग में लाया जा सके। मैंने देखा, बड़ी ननद की नजरें, पलंग के नीचे कोने में रखी सुनहरी सुराही को घूरने लगी थीं। इसे मैंने ही तो छुपा कर रखा था। तुरंत उसे बाहर निकाला गया। सुराही को पकड़कर मैं जोर से रोने लगी ” नहीं दूँगी.. |”
“हद हो गई… दादाजी का इतना सारा सामान है और तू सुराही को पकड़कर बैठ गई ?! अरे…मिटटी का व्यवहार किया हुआ सामान घर में रखना अशुभ होता है, इसे तो हटाना ही पड़ेगा |ला.. दे मुझे ।“ बड़ी ननद बड़े होने का रोब जताते हुए गरजकर बोली ।
“और दूसरा कोई सामान अशुभ नहीं होता? ! केवल मिट्टी का सामान ?! फिर तो सामने मेज पर रखी गणेश जी की महंगी मूर्ति, जिसे दादाजी रोज पूजते थे, उसे क्यों नहीं बाहर निकालते आप ? वो भी मिट्टी की बनी है ना?! मैं सुराही को अशुभ नहीं मानती । इसमें मुझे दादाजी दिखते हैं। “ सुराही पकड़ कर मैं जिद्द पर अड़ी रही।
“रख अपने पास। मुझे क्या, आज हूँ कल चली जाऊँगी। तुझे ही इस घर में रहना है न । अपशकुन होगा तो पछताना | ” बड़ी ननद तमतमाए हुए कमरे से बाहर निकलने को आतुर थी |
“ दीदी, आपको नहीं मालूम है, जब कभी घर से मैं बाहर जाती तो दादाजी मुझे बुलाकर कहते , ”बहू….सुराही में पानी भर कर जाना | ” और मैं वैसा ही करती। सुराही में पानी रहता था , फिर भी तसल्ली के लिए एक लोटा पानी ला कर सुराही को भर देती और उनसे कहती, ” दादाजी,यह काम तो आने के बाद भी हो सकता था ! जाने वक्त आप मुझे हमेशा….. ”
मेरे सर पर हाथ रखते हुए भावुक होकर वह कहते ,
“ तू मेरी लक्ष्मी बेटी है। बाहर निकलने से पहले तुझे आशीर्वाद देकर विदा करना चाहता हूँ ।
अब जा…जहाँ जाना है |”
—- मिन्नी मिश्रा , पटना
स्वरचित