“वक्त का मिजाज” – डॉ अनुपमा श्रीवास्तवा

 प्लेन को जमीन पर उतरने में अभी दस मिनट बाकी था लेकिन माही अपना खिलौने वाला बैग सम्भाल पहले ही उतरने के लिए तैयार थी। जब से उनलोगों ने सफर शुरू किया था तब से वह माता -पिता से सैकड़ों बार पूछ चुकी थी कि वह अपने दादी के गाँव कब पहुंचेगी। उसे अपनी दादी को सरप्राइज देना है। और यह सही भी है क्योंकि उसकी दादी ने उसे देखा ही नहीं है। कैसे देखती उसका जन्म परदेश में हुआ था वह भी उस समय जब पूरा देश कोरोना जैसे काल के चंगुल में फंसा हुआ था। दादी ने ही मना कर दिया था कि बच्ची को वहीं हिफाजत से रखे। इसलिए छोटी सी माही पहली बार अपने गाँव जा रही थी। 

लगभग आधे घंटे बाद वे लोग एयरपोर्ट से बाहर निकल आए थे। अजय ने सोचा कि सीधे गाँव जाने के लिए एक टॅक्सी रिज़र्व कर ले तो ठीक रहेगा। यह सोच वह एक सीध में खड़ी टैक्सियों को देखने लगा। दो तीन टैक्सियों के ड्राइवर ने गाँव जाने से इन्कार कर दिया। मायूस होकर उसने अपनी पत्नी से बोला कि लगता है आज हमें यहीं शहर के होटल में रात गुजारना होगा। कल सुबह हमलोग गांव के लिये निकल जाएंगे ।शायद शाम होने के कारण कोई ड्राइवर तैयार नहीं हो रहा है।

माही ने सुना तो नाराज हो कर ठूंनकने लगी। उसे हर हाल में आज ही दादी से मिलना था। उनलोगों को परेशान होते देख एक ड्राइवर आगे आकर बोला-” बाबु साहब आप लोगों को कहां जाना है? “

-” हमें जमालपुर गाँव जाना है भैय्या चलोगे क्या? “

ड्राइवर कुछ देर चुप रहा फिर “नहीं” में सिर हिलाकर जाने लगा । तब अजय ने उसे टोका-” क्या सोच रहे थे , फिर मना कर दिया भाई?”

नहीं -नहीं बाबु साहब मैं नहीं जाऊंगा उस गाँव की तरफ आप किसी और से पूछ लीजिये।

“क्यों भाई?”

“चलो जितने पैसे लोगे मैं तैयार हूं देने के लिए!”

ड्राइवर  कुछ सोचता हुआ बोला-” पैसे की बात नहीं है मैं गाँव के अंदर नहीं जाना चाहता।”




“ऐसा क्यों कह रहे हो कुछ बताओ भी!”

   ड्राइवर ने एक शर्त रखते हुए कहा-” साहब अगर मैं आप लोगों को ले चलूंगा तो आप को गाँव से पहले ही छोड़ दूँगा। मंजूर हो तो कहिये साहब। “

अजय ने बेटी की जिद को देखते हुए पत्नी के तरफ मुड़ कर बोला ठीक है कोई बात नहीं हमें ड्राइवर पहले ही छोड़ देगा भी तो कोई प्रॉब्लम नहीं है। मैं घर से नौकर को बुला लूँगा। वह सामान पहुंचा देगा और हम लोग पैदल गाँव की मिट्टी का सुगंध लेते अपने घर तक चले जाएंगे माँ के पास।

माही ने सुना तो खुश होकर ताली बजाते हुए बोली-” पापा आप कितने प्यारे हो। अब मैं आज ही दादी से मिलूंगी।”

सबलोग टॅक्सी में बैठ गये। माही खिड़की के बाहर बड़ी व्यग्रता से अपने गांव का रास्ता देखने लगी ।

अजय ने गाड़ी चलाते हुए ड्राइवर से कहा-”  भाई तुम्हारा चेहरा कुछ जाना पहचाना लग रहा है,लगता है कि तुम्हें कहीं देखा है मैंने। “

कुछ पल के लिए तो ड्राइवर झेप गया फिर सहज होकर बोला-” हाँ देखा होगा आपने,कभी-कभी तो मैं आता ही था इस गाँव में अपनी माँ के साथ-साथ। “

“माँ के साथ….लेकिन किसके घर आते थे भाई, मुझे बताओ ना मैं सबको जानता हूं। “

“नहीं -नहीं रहने दीजिये ,क्या कीजियेगा  जानकर। बड़ी तकलीफ होती है याद करके।”

अजय की उत्सुकता बढ़ती जा रही थी।वह जानने के लिए बैचैनी में अनायास ही पूछ बैठा-” कौन है तुम्हारा गाँव में?

“मेरा ननिहाल है साहेब!”

“क्या?”

“नानी  का घर!”

“लेकिन किसके घर !”

“रहने दीजिये साहब इससे ज्यादा मत पूछिये बड़ी तकलीफ होती है याद करके।”

“मैंने कहा न मैं किसी को नहीं कहूंगा,मुझे अपना ही समझो। “

“साहब, इस गांव के दिलीप सिंह मेरे नाना थे ।”

“क्या?”

क्या कहा दिलीप सिंह….?




“तुम दिलीप सिंह के नाती हो!”

“हाँ- हाँ साहब वो मेरे नाना थे।  वक्त कब किसका साथ छोड़ देगा कोई नहीं जानता। एक वक्त था जब हम गाड़ी में घूमते थे और आज वक्त ही है जो हमें गाड़ी चलाना पड़ रहा है।”

दिलीप सिंह का नाम सुनते ही अजय के मस्तिष्क में बचपन की यादें हरी हो गईं।

अनायास ही उसका दाहिना हाथ उसके गाल पर फिरने लगा। उसके कान में एक दहशत भरी आवाज गूंज उठी।”

” तेरी हिम्मत कैसे हुई रे ….मेरी गाड़ी की सीट पर बैठने की….।”

“चिरकुट का औलाद,भीखमंगा कहीं का….तुम्हें गाड़ी पोछने के लिए कहा था …. कि मालिक बनने के लिए….चल दुबारा से समूचे गाड़ी को पोंछ….।”

पिताजी को पता चला तो वे दौड़े आये और दिलीप सिंह का पैर पकड़ लिया। बेटे की ओर से माफ़ी मांगते हुए कहा मालिक बच्चा है छोड़ दीजिये। उसके बाद गंगाजल मंगवाया गया ओर फिर सीट को उससे शुद्ध किया गया।

पूरा गांव दिलीप सिंह के दबंगई के आगे घुटने टेकता था। मजाल था कि उनके इजाजत के बगैर एक पत्ता भी हिल जाये। उनके ड्योढी के आसपास चार मुस्टनडे लाठियां लेकर पहरेदारी में खरे रहते थे। दस की संख्या में नौकर- चाकर थे। पिताजी मुंशी का काम करते थे उनके घर पर और अजय भी छोटा मोटा टहल -टिकोरे का काम कर दिया करता था।

          माँ को बिल्कुल पसंद नहीं था कि अजय दिलीप सिंह का टहलऊआ बने। लेकिन पिताजी कहते थे कि कोई भी काम कर देने से आदमी छोटा नहीं हो जाता है । इसलिये माँ अजय को उनके घर पर जाने से मना नहीं करती थी। परंतु उस घटना के बाद माँ अजय को लेकर नानी के घर चली गई। छह महीने वहीं रही। खुद लौटी पर अजय को वहीं छोड़ दिया ।

उसके बाद की पढ़ाई लिखाई से लेकर नौकरी तक सबकुछ अजय ने बाहर रहते हुए किया लेकिन घर नहीं गया। उससे जब भी मिलने का मन करता तो माँ ही चली जाती थी। उसे गांव नहीं आने दिया। पिछले साल पिताजी के गुजरने पर कुछ दिनों के लिए आया था लेकिन उसके पास समय नहीं था जो गांव का हाल चाल पूछ पाता।




अचानक धक से टॅक्सी रूकी तो अजय की तन्द्रा भंग हो गई । लीजिये साहब अब आपलोगों को यहीं से जाना होगा गांव में!

सब लोग गाड़ी से उतरकर बगल में खड़े हो गए।

अजय से पैसे लेते हुए ड्राइवर ने हाथ जोड़कर कहा-” साहब आपसे विनती है कि आप मेरे बारे में किसी को न बताए मेरी इज्जत की बात है। “

अजय ने उसे आश्वस्त किया ड्राइवर अपनी गाड़ी लेकर लौट गया।

घर आकर अजय ने माँ को सारी कहानी बताई। माँ  गहरी सांस लेते हुए बोलीं-” हाँ बेटा,  दिलीप सिंह का सब रौब रियासत के साथ ही खत्म हो गया। उनके व्यवहार ने दोस्त से ज्यादा दुश्मन बना लिया। लोगों की बददुआ ऐसी लगी की अंत में कैंसर हो गया और वही मौत का कारण बना । सारे अपने हाथ छुड़ाकर चले गए। उनके करतूत  से मरते ही सारा विरासत ढह गया।

“बेटा, वक्त से बड़ा कोई नहीं वह सबको एक न एक दिन औकात बता देता है। वक्त से कोई नहीं जीत पाया है इसलिए हर आदमी को वक्त से डर होना चाहिए।”

 

#वक्त 

स्वरचित एंव मौलिक

डॉ अनुपमा श्रीवास्तवा

मुजफ्फरपुर ,बिहार

 

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