अवसाद से वरदान तक – ज्योति अप्रतिम

सुनीता की जिंदगी दुखों से भर गई थी, दिशाहीन हो गई थी।आखिर वह क्या करे ?कहाँ जाए अपनी छोटी बच्ची को लेकर?

आखिर क्या सोच कर पति ने खुदकुशी की ?

मैं तो कारण थी ही नहीं ! किसी भी हालत  में।फिर ऐसा ग़लत कदम क्यों उठाया होगा।

यही सोचते हुए उसका जीवन अब अवसाद पूर्ण होने लगा था।

लेकिन ईश्वर ने साथ में पेट लगा दिया है तो इसे भरना तो पड़ेगा न !

 

मुम्बई लोकल ट्रेन में रोज ही सफर करना पड़ता ।एक दिन सुनीता ने एक अनोखा दृश्य भी देखा।थोड़ी देर में ही एक किन्नर ट्रैन में चढ़ी।

सामान्यतः किन्नर को देख कर लोग भयभीत हो जाते हैं ,उनसे बचने की कोशिश करते हैं लेकिन यहाँ माजरा कुछ अलग था।लोग उससे बहुत प्यार से मिल रहे थे।लड़कियां तो उससे गले मिल रहीं थीं।सभी बिना मांगे उसे रुपये भी दे रहे थे।

हाँ ,एक और विशेष बात थी।उसका मेक अप और जूलरी बिल्कुल फिल्मों वाली रेखा जैसी थी और सभी यात्री उसे रेखा जी ही कह रहे थे।

 

सुनीता ने  इतनी उम्र में किसी किन्नर के लिए लोगों का इतना प्यार पहली बार देखा।निश्चित ही सुनीता के दिलोदिमाग पर कुछ अलग ही प्रभाव पड़ा।

 

सचमुच बहुत  सुंदर लग रही थी,बिल्कुल रेखा जैसी ,साड़ी का पैटर्न ,पहनने का तरीका ,गजरा ,जूलरी सब कुछ वैसा ही!


बहुत आत्मीय ढंग से सुनीता से मिलीऔर दोनों की दोस्ती प्रारम्भ हो गई।

सुनीता ने  प्रश्न किया ,आपके बारे में कुछ बताइए।

शायद अन्तस् में कुछ तड़क गया।आँखें डबडबा गई।

भरे गले से बोलना शुरू किया।

मैं न! एक लड़का थी पर मुझे लड़कियों वाले खेल अच्छे लगते थे।मैं वे सब खेलती और हर खेल में जीत जाती थी।

मेरा बड़ा भाई मुझे क्रिकेट सिखाना चाहता था पर मुझे तो बॉल पकड़ना ही नहीं अच्छा लगता।

स्कूल में भी मुझे लड़कियों के साथ ही बैठना अच्छा लगता था।मेरे टीचर  मुझे डाँट कर लड़कों के पास बैठने को कहते लेकिन मैं उठती ही नही थी।कह कर वह उन दिनों को याद कर के हँसने लगी।

उसने आगे जो बताया वह सचमुच दिल हिलाने  वाला था।

एक शादी समारोह में मैं अपनी बहन की साड़ी पहन कर  पहुँच गई। मुझे देखते ही सब लोग हँसने लगे।हँसे और खूब हँसे।

मुझे अभी तक भी पता नहीं था कि मेरे अंदर कुछ अलग है।


जब मैंने साड़ी पहन कर डांस किया तो हमारे गुरुजी ने कहा ,ये बच्चा कुछ अलग है।इसे काम पर लगा दिया जाए।

रेखाजी की आवाज बताते हुए बार बार भर्रा जा  रही थी।

उन्होंने आगे बताया ,इसके बाद मैंने घर छोड़ दिया।लेकिन लोगों का इतना बुरा व्यवहार सहन करना पड़ता है जिसे बताया नहीं जा सकता है।लोग हमें छक्का ,हिजड़ा ,किन्नर और पता नहीं क्या क्या कहते हैं।माँ ,बाप से मिलना हो तो रात में छुप कर जाना पड़ता है। आँसू बहने लगे जिन्हें वह बार बार अपने साड़ी के पल्लू से पोंछ रही थीं।

फिर अपने आप को संयत करते हुए बोली ,इस सबके बाद हम बहुत खुश  हैं।ईश्वर ने हमें सब कुछ दिया है।लेकिन ईश्वर ने हमें जो बनाया है इसमें हमारा क्या दोष है ?

किन्नर की दोस्ती ने सुनीता का नजरिया बदल दिया।उसे लगा जब एक किन्नर अपने दुःखी और संतप्त जीवन में सुख ढूँढ़ सकता है तो मैं क्यों नहीं?

 

ज्योति अप्रतिम

मौलिक व स्वरचित 

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