जैसे दिन समाप्त होने पर ढलती सांझ आ जाती है और फिर रात्रि।इसी तरह जवानी बीत जाने पर बुढ़ापा आता है और वह ढलती सांझ की तरह होता है इसी ढलती सांझ के दो साथी थे एस के यानी सुंदर कुमार और जुगल कपूर। दोनों पक्के दोस्त थे।
दोनों रिटायर हो चुके थे और सुबह पार्क में सैर करने जरूर आते थे। पार्क में लगी हुई बेंच उनके सुख-दुख की साथी थी। दोनों उस पर बैठकर सुख दुख की बातें करते और गप्पे लड़ाते थे।
एसके की पत्नी का नाम मधु था और उसके दो विवाहित बेटे थे। जुगल की पत्नी का नाम सरला था और उसकी एक विवाहित बेटी और एक विवाहित बेटा था। एसके रिटायरमेंट से पहले एक शिक्षक थे और जुगल सरकारी क्लर्क था।
दोनों दोस्त जब तक मिल नहीं लेते थे तब तक दोनों को अधूरापन लगता था। इन दोनों सर्दी ज्यादा होने के कारण कम लोग सुबह की सैर पर आ रहे थे। एस के पूरे 5 दिन तक नहीं आया तो जुगल को चिंता सताने लगी। उन्होंने कई बार फोन किया तो फोन का जवाब भी नहीं मिला। आखिर में एक मैसेज आया। मेरी पत्नी बहुत बीमार है। मैसेज मिलने पर जुगल को थोड़ी तसल्ली हुई। मैसेज वाले दिन से भी दो दिन तक एस के पार्क में नहीं आया।
तीसरे दिन जब वह आया तो बड़ा थका हुआ सा और उदास दिख रहा था। जुगल के पास बेंच पर बैठ गया तो जुगल ने उसकी आंखों में आंसू देखे।
जुगल ने पूछा -” भाभी ठीक है अब, क्या हुआ था उनको? ”
एस के -” यार पहले तो कुछ पता नहीं लगा, ऐसे अचानक कैसे इतना बीमार हो गई, डॉक्टर कह रहे हैं कि उनके पेट में कैंसर है, वह भी लास्ट स्टेज। हां उसे कभी-कभी खाना हजम नहीं होता था, पेट में दर्द होता था, लेकिन घरेलू उपाय से आराम आ जाता था, पर अब, इतनी बड़ी बीमारी, अब क्या होगा? ”
जुगल-” यार तू परेशान मत हो, जल्द से जल्द इलाज शुरू करवा दे और किसी तरह की मदद चाहिए हो तो मुझे कहना। सब कुछ ठीक हो जाएगा, तू चिंता मत कर। ”
एस के कभी पार्क आता तो कभी नहीं आता। कभी-कभी सप्ताह भर नहीं आ पाता था। जुगल उसकी पीड़ा समझ रहा था। ढलती सांझ के इस पड़ाव पर जीवनसाथी का साथ होना कितना आवश्यक है यह सब समझते हैं पर नियति के आगे किसकी चली है।
15 दिन हो गए थे, एसके नहीं आ रहा था। जुगल ने फोन किया तो उसने बताया कि मधु हमें छोड़कर चली गई है। केवल डेढ़ महीने में कितना कुछ हो गया। जुगल उससे मिलने गया तो वह बहुत थका हारा और निढाल लग रहा था। उसके दोनों बेटे और बहुएं भी वहीं पर थे। पत्नी की 13वीं बीत जाने के बाद वह पार्क में आने लगा था।
एक दिन जुगल ने एसके से कहा -” यार मैं एक हफ्ते तक पार्क में नहीं आ सकूंगा, तुम अपना ध्यान रखना। ”
एसके-” क्या कुछ जरूरी काम है? ”
जुगल -” हां हम सब मिलकर अयोध्या चित्रकूट दर्शन करने जा रहे हैं। मैंने तो मना किया था पर बेटा बहू कह रहे हैं कि पापा आपके बिना नहीं जाएंगे। यार तू भी चल, अपनी गाड़ी से ही जा रहे हैं। ”
एसके-” नहीं मेरा मन नहीं है, वैसे तू बहु बेटे के मामले में खुशनसीब है, मुझे तो वे लोग ——_ वह कुछ कहते-कहते रुक गया। जुगल -” जो मन में है बोल दे यार मन हल्का हो जाएगा। ”
एस के-” मैंने मधु के इलाज पर काफी पैसा लगाया तो अब मेरे पास इतनी जमा पूंजी नहीं है मेरे दोनों बेटे और बहुएं मुझे फालतू सामान की तरह ट्रीट करने लगे हैं ना समय पर खाना देते हैं और ना कोई दूसरी चीज मधु मेरी हर चीज का ध्यान रखती थी और उसके सामने बहुएं भी पापा जी पापा जी कहती थकती नहीं थी उसके जाने के बाद सब कुछ बदल गया है क्या मैं इस घर में रखा हुआ कबाड़ हूं जिसकी कोई वैल्यू नहीं ऐसा कहकर एसके बहुत भावुक हो गया। ”
जुगल को भी समझ नहीं आ रहा था कि क्या कहकर तसल्ली दूं।
अगले दिन जुगल अपने परिवार के साथ अयोध्या चला गया और फिर वापस आकर दो दिन आराम करने के बाद पार्क में आया। वह यह देखकर हैरान रह गया कि पिछले 10 दिनों में एस के बहुत ज्यादा कमजोर और शिथिल हो गया था।
तब जुगल ने उसे प्रसाद देते हुए कहा-” मैं कुछ कहूं तो मानेगा? ”
एस के ने उसे सवालिया नजरों से देखा।
जुगल ने कहा-” देख यार, मैं तो यह समझता हूं कि अगर तू चुप रहेगा तो घर के लोग हो या बाहर के, तुझे दबाते रहेंगे। पहले तो तू अपने खाने पीने का खुद से ध्यान रख और वह घर तेरा है तू हक से अपने बहू बेटों से कुछ भी कह सकता है और अगर वह तेरा सम्मान नहीं करते हैं तो तू उनसे कह सकता है
कि कहीं और किराए पर जाकर रहो और दूसरी बात कि तू स्वयं को व्यस्त रख ताकि घर के लोग भी तुझे बोझ ना समझे और तेरा मन भी लगा रहे। दोपहर बाद गरीब बच्चों को अपने घर के आंगन में मुफ्त में ट्यूशन पढ़ा दिया कर। इससे तेरा मन भी लगा रहेगा और बच्चों का भला भी हो जाएगा। भाभी के दुख को कोई कम नहीं कर सकता,
लेकिन तू उसे गम को अपने दिल से लगाकर खुद को बीमार मत कर। अभी तू अच्छा भला चलता फिरता है तो तुझे कोई नहीं पूछता यह सोच कि अगर तू बीमार पड़ गया और बिस्तर पर आ गया तो तुझे कौन पूछेगा। देख मेरी बात का बुरा मत मानना। मैं जीवन की सच्चाई का रहा हूं एक बार सोच कर देख। ”
एस के सोच में पड़ गया और उसने अगले दिन कहा-” जुगल तू ठीक कह रहा है। बच्चे तो बच्चे हैं। अपने ना सही दूसरों के ही सही। उनको मैं अपना बच्चा समझेगा और उनके साथ दूंगा। मैं पढाऊंगा उनको। जरूर पढ़ाऊंगा। ”
जुगल को लग रहा था कि मानो ढलती साँझ का सूरज ढलते ढलते अचानक फिर से चमकने लगा हो और पतझड़ के बाद पेड़ों में नई कोंपल और नई पत्तियां निकलने लगी हो।
स्वरचित अप्रकाशित गीता वाधवानी दिल्ली