आज बिना किसी भूमिका के,अपना एक नया अनुभव अपने पाठकों के साथ साझा करने जा रही हूँ, जिसने जीवन की वास्तविकता से मेरा प्रत्यक्ष साक्षात्कार करवा दिया।
हुआ यूं कि शीत ऋतु की प्रचंड सर्दी के कारण एक लंबे अंतराल के पश्चात,कल हम घर की आवश्यक वस्तुएँ लेने के लिए घर से कुछ ही दूरी पर स्थित ‘इजी डे’ में जाने के लिए निकले । दरअसल अभी तक यहाँ के कर्मचारी सामान घर पहुंचाने की सुविधा प्रदान कर रहे थे लेकिन बीच-बीच में उनकी तत्परता में ढील महसूस होने लगी थी ।
मेरे हाथों में एक लंबी लिस्ट थी और काफ़ी समय पश्चात् मॉल में से स्वयं देख-परख कर वस्तुएं उठाने का मेरा उत्साह बल्लियों उछल रहा था कि तभी ‘माताजी,जरा एक तरफ हो जाएंगी ?’ के स्वर सटाक से मेरे कानों में पड़े । मैं असमंजस में पीछे घूमी तो मुझे ही संबोधित करता हुआ स्टोर का सफाईकर्मी दिखाई दिया ।
अपने पाठकों के प्रति वफादार रहते हुए पूरा सच कहूँगी कि स्वयं देख-परख कर सामान खरीदने का मेरा सारा उत्साह पल में ही हवा हो गया। यद्यपि ‘माताजी’ शब्द मेरी माँ का पर्याय है और मेरी आत्मा से जुड़ा हुआ है। हम अपनी माँ को ‘माताजी’ कहकर ही बुलाया करते थे।अतः यह शब्द हम सब भाई-बहनों की रग-रग में समाया है तथापि इस शब्द को अपने से जुड़ते सुनकर मैं असहज हुए बिना न रह पाई।
अपनी असहजता को छिपाने तथा अपने मन को भरमाने के लिए मैंने दाएं-बाएं और पीछे मुड़कर देखा कि शायद किसी अन्य को आवाज दी जा रही है, किंतु मेरी लेन बिल्कुल खाली थी अर्थात् मुझे ही माताजी कहा गया है ? नहीं-नहीं ! कुछ लोगों को संबोधनों का ज्ञान ही नहीं होता
कि किसे क्या कहकर पुकारना है, मैंने फिर अपने मन को भरमाना चाहा। वैसे भी कड़ाके की इस निगौड़ी ठंड ने हम महिलाओं के हमारी अपने केशों पर काला रंगीन आवरण चढ़ाने की नियमितता में भी तो लापरवाही ला दी हैयह सोचकर बालों को रंगने का आलस्य ही रहता है कि कौनसा कहीं बाहर जााना है।
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सहसा मैं अपने अतीत में पहुँच गई । मैं अपने नगर की एक अत्यधिक भीड़ वाली सड़क से तीन मिनट का रास्ता पैदल चलकर अपने कार्य-स्थल पर पहुंचा करती थी । एक दिन अचानक सामने से ‘चल साइड हो जा, रानी मुखर्जी ‘ की आवाज लगाता हुआ एक मनचला रिक्शेवाला मुझे बिल्कुल बाल-बाल बचाते हुए मेरी दाहिनी तरफ से ‘सर्र’ करके निकल गया। मैं हड़बड़ाई सी कुछ समझ ही नहीं पाई थी, लेकिन ‘रानी मुखर्जी’ संबोधन ने मेरे कानों में ‘मिसरी’ अवश्य घोल दी थी। यह शब्द मुझे गुदगुदा गया था।
मैं नहीं जानती कि उसने यह विशेषण मुझे मेरे तनिक छोटे कद को देखकर दिया, मेरे मुख को निहार कर दिया अथवा मेरी चाल से प्रभावित होकर दिया किंतु, इस विशेषण ने मेरे मन में रिक्शा वाले के दुस्साहस से उपजे क्रोध पर ठंडे पानी सा प्रभाव छोड़ा था और मेरी चाल को पंख लग गए थे।
उस दिन मैं दो मिनट में ही अपने कार्य स्थल पर पहुँच गई थी तथा अपनी सभी हम उम्र महिला सहकर्मियों को यह घटना मैंने बड़ी शान से खूब चटखारे ले-लेकर सुनाई थी। सब का हँस-हँस कर बुरा हाल हो गया था और एक लंबे समय तक, मुझे छेड़ने का उन्हें एक जबरदस्त साधन मिल गया था। मैं भी इस चुहल का खूब आनंद उठाती थी। उस दिन घर लौटने पर मैंने अपनी बिटिया को भी यह प्रसंग खूब मिर्च-मसाले सहित सुनाया था और वह भी हँस-हँस कर दोहरी हुई थी।
किंतु कल ‘इजी डे’ के इस व्यक्ति ने मुझे जीवन-चक्र की सच्चाई का सामना अत्यंत ‘इजी वे’ से करवा दिया था। सत्य मेरे सामने था कि मेरी जीवन यात्रा ‘रानी मुखर्जी’ से ‘माताजी’ तक पहुँच गई है, बावजूद इसके कि मैं सदैव इसका आभास नहीं होने देने के प्रयास में जुटी रही।( पाठक इसे माने अथवा न माने किंतु, यह कटु सत्य है कि प्रत्येक महिला अपनी आयु को कम दिखाने के प्रयास में अपनी वेशभूषा तथा सौंदर्य प्रसाधनों के रूप में कृत्रिम सौंदर्य का सहारा लेती है, लेकिन अपनी आयु बढ़ने के सच को स्वीकार नहीं करना चाहती। मैं भी इसका अपवाद नहीं हूँ) जबकि हम सब जानते हैं कि शिशु अवस्था के पश्चात् युवावस्था और युवावस्था के पश्चात प्रौढ़ावस्था से गुजरते हुए वृद्धावस्था तक पहुँचना जीवन चक्र का अटल सत्य है ।
ऐसा नहीं है कि यह तथ्य केवल स्त्रियों तक सीमित है। पुरुषजाति भी इसका अपवाद नहीं है। इस संबंध में मुझे अपने बड़े तायाजी से संबंधित एक प्रसंग याद आ रहा है। चुस्त-दुरुस्त तथा इकहरी काया वाले अत्यंत फुर्तीले तायाजी को उनकी अधेड़ावस्था में एक दिन किसी युवक ने ‘बाबा जी’ कहकर संबोधित कर दिया था तो हमारे परिवार में सर्वाधिक रौबीले तथा मुनि ‘विश्वामित्र’ के समान क्रोधी माने जाने वाले ताया जी के क्रोध से उस बेचारे युवक की सिट्टी-पिट्टी ही गुम हो गई थी। इस घटना के समय मेरे छोटे भैया ताया जी के साथ थे। ताया जी के सामने तो वे कुछ कर नहीं पाए थे लेकिन घर आकर, हम सबको, हँस-हँस कर यह घटना सुनाते हुए भैया ने खूब आनंद उठाया था।।
दरअसल वास्तविकता यही है कि हम अपने को कितना भी बचते-बचाते फिरें, किंतु आयु अपना परिचय स्वयं दे देती है।इसलिए जीवन चक्र के परिवर्तन को सहजता से स्वीकार कर लेने में ही हमारी बुद्धिमता है।
मुझे जीवन के इस सत्य का सामना करवाने के लिए मैंने भी धीमे से मुस्कुरा कर उस सफाई कर्मचारी का आभार प्रकट किया और एक तरफ होकर उसे निकलने का मार्ग दे दिया।
उमा महाजन
कपूरथला
पंजाब।