“आइए भैया जी! अभी-अभी ताजा फूल लाया हूंँ, कहिए क्या-क्या दे दूं?”
संतोष को अपनी दुकान की ओर आते देख फूल विक्रेता हरिहर मुस्कुराया।
“एक बढ़िया सा ताजा फूलों का तोरण और गेंदे की एक माला के साथ रजनीगंधा के कुछ फूल भी दे देना।”
मंदिर के बगल वाले फूलों की दुकान पर संतोष ने अपनी मोटरसाइकिल रोक दी।
“जी भैया जी!”
मंदिर के बगल में अपनी फूलों की दुकान लगाने वाला हरिहर संतोष के जान-पहचान का था इसलिए पूजा के लिए खरीदे गए फूलों के दाम हमेशा वह ठीक-ठीक लगा देता था। इसलिए संतोष को उससे कभी मोलभाव करने की जरूरत नहीं पड़ती थी।
“यह मिट्टी के दीए कैसे लगाएं?”
हरिहर के फूलों की दुकान पर आज बिना पॉलिश वाले मिट्टी के छोटे दीए देख उनमें से एक दीया हाथ में उठा संतोष पूछ बैठा।
आखिर दीपावली के लिए दीयों की खरीदारी भी तो उसे करनी थी और हरिहर की दुकान पर रखे मिट्टी के खूबसूरत छोटे दीए उसे भा रहे थे।
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“ले लीजिए भैया जी!.पच्चीस के दर्जन लगा दूंँगा।”
दीपावली के अवसर पर अपने घर को सजाने के लिए फूलों की खरीदारी करने आए संतोष की दिलचस्पी उन मिट्टी के दीयों में देख हरिहर मुस्कुराया लेकिन संतोष ने हाथ में उठाया मिट्टी का वह दीया वापस रख दिया..
“महंगे बता रहे हो!”
“नहीं भैया जी! बिल्कुल सही दाम लगा रहा हूंँ, आप चाहे तो पूरे मार्केट में घूमकर पता कर सकते हैं।”
संतोष को कभी फूलों के दाम अधिक ना लगाने वाले हरिहर ने उन दीयों के दाम के प्रति भी उसे आश्वस्त किया लेकिन संतोष हरिहर को बताने लगा।
“तुम्हारे बगल में दुकान लगाने वाली अम्मा तो यही दीए बीस रुपए दर्जन के हिसाब से देती हैं।”
संतोष ने हरिहर के फूलों की दुकान के बगल में बंद पड़ी अम्मा की दुकान की ओर इशारा किया लेकिन संतोष की बात सुन हरिहर मुस्कुराया।
“भैया जी! भले ही दीए बेच मैं रहा हूंँ लेकिन यह दीए भी उस अम्मा के ही हैं।”
हरिहर की बात सुन कर संतोष हैरान हुआ।
“लेकिन अम्मा के दीए तुम क्यों बेच रहे हो?”
“अब क्या बताएं भैया जी! ग्राहकों से मुनाफा ना लेकर उनकी मुस्कान से ही तृप्त हो जाने वाली अम्मा पिछले तीन महीनों से इस दुकान का किराया नहीं चुका पाई थी इसलिए दुकान के मालिक ने उनका सारा सामान बाहर कर दुकान पर ताला जड़ दिया है।”
“अरे! अरे! यह तो बहुत बुरा हुआ।”
फूल विक्रेता हरिहर की बात सुनकर हमेशा अपनी मुस्कान से ग्राहकों को तृप्त करने वाली अम्मा की दुर्दशा सुन संतोष का मन अचानक बहुत दुखी हो गया। संतोष के चेहरे के भाव समझ हरिहर उसे बताने लगा।
“भैया! अम्मा की तकलीफ देख हमें भी बहुत दुख हुआ था इसलिए हम सब यहां दुकान लगाने वालों ने मिलकर यह फैसला किया है कि, भले ही अम्मा से उनकी दुकान छिन गई है लेकिन हम उनसे उनका रोजगार नहीं छिनने देंगे।”
उस गरीब फूल बेचने वाले हरिहर की बात सुनकर संतोष को थोड़ी जिज्ञासा हुई।
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“लेकिन उस अकेली बुढ़ी अम्मा के लिए आप लोग कर भी क्या सकते हैं?”
संतोष की जिज्ञासा देख हरिहर मुस्कुराया।
“भैया हम सब यहां अपनी-अपनी दुकान के साथ-साथ अम्मा की दुकान भी चला रहे हैं।”
हरिहर की बात सुन कर संतोष को हैरानी हुई।
“अच्छा! वह कैसे?”
“पहले खुद को नि:संतान अकेली समझने वाली अम्मा की एक दुकान हुआ करती थी लेकिन उनके मुसीबत की घड़ी में हम सब ने उन्हें दिल से अपनी अम्मा मान लिया!. और अब उनकी कई संताने हैं और उतनी ही दुकानें।”
फूलों की दुकान लगाने वाले हरिहर ने एक लाइन से हर फूल की दुकान के आगे लगी खाट पर सजी अम्मा की दुकान के मिट्टी के दीए और खिलौनों की ओर इशारा किया।
“लेकिन वह अम्मा गई कहां?”
हरिहर की दुकान पर फूल खरीदने आए संतोष के आंखों के सामने बिना दांतो के पोपले मुंह वाली प्यारी सी मुस्कान लिए अम्मा का चेहरा उभर आया।
“वह आपके सामने रही अम्मा!”
हरिहर ने सड़क की दूसरी ओर इकलौते फूलों की दुकान के आगे लगी खाट पर बैठी अपने बंधे हुए ग्राहकों संग हंसती-मुस्कुराती, लोगों के घरों को दीपावली में अपने मिट्टी के सस्ते दीयों से रोशन करने वाली अम्मा की ओर इशारा किया।
पुष्पा कुमारी “पुष्प”
पुणे (महाराष्ट्र)