सुहासिनी जी अपनी बेटी और नातिन के साथ आज अपनी सहेली,शांति के घर आई थी घूमने।रविवार होने की वजह से शांति जी की बहू पूरे घर की साफ-सफाई में व्यस्त थी।अखबार पढ़ती हुई शांति जी जब को बहू ने बताया कि उनकी सहेली सुहासिनी आंटी आईं हैं,तो तुरंत उन्होंने कहा”हो गया कल्याण।
अब आज फिर बहू पुराण लेकर बैठ जाएगी।तुम दुकान से कुछ मंगवा लो,बनाने मत बैठ जाना।”सरोज(शांति जी की बहू)को अपनी सास की यही समझदारी भाती थी बहुत।इस घर में जबसे आई थी,उन्हें बिन कहे ही सब समझते देखा था।पहली बार उसे देखकर उसका हांथ पकड़कर जो वादा किया था उन्होंने कि वह मां ही हैं,
अक्षरशः पालन किया था।पढ़ी लिखी शिक्षिका बहू को सदा उचित सम्मान दिया था उन्होंने।सरोज और शांति जी ने मिलकर सास-बहू के विषैले रिश्ते की अवधारणा को तोड़ा था।अक्सर रिश्तेदार, मोहल्ले और समाज के लोग तारीफ करते हुए कहते थे सरोज से”भाई मानना पड़ेगा तुम्हें।तुमने जैसे अपनी सास के संग निभाया,हर किसी के बस में नहीं। बहुत किस्मत वाली हैं शांति जी,जो ऐसी बहू मिली है।”
सरोज भी पहले पहल यही समझती रही कि उसने सास के साथ निभाया है।अब वह समझी कि उसने नहीं,सास ने उसके साथ निभाया है।जिस रुतबे के साथ घर में बड़ी बेटी बनकर रही,वह रुतबा कहीं से कभी भी ससुराल में कम नहीं हो पाया सरोज का।हर अच्छे-बुरे समय में शांति जी ढाल बनकर खड़ी रहीं,
बहू के साथ।सरोज के पति भी अक्सर ताना दे देते थे अपनी मां को”तुम मेरी मां हो या इसकी?”वे इकलौते बेटे की अंधभक्त होकर भी यही कहती”तूने तो मेरी कोख से जनम लेकर मुझे मां बनाया है,यह तो अपनी मां को छोड़कर आकर मुझे मां बनाया है। सत्ताईस साल मैं तेरी मां थी,अब इसकी भी हूं।”
सरोज ने जब उन्हें सास से मां बनते देखा,तो वह खुद भी बेटी ही बन गई।शांति जी वास्तव में सरोज की प्रेरणा ही थीं।ऐसा नहीं था कि दोनों बेटियों से उनका मोह कम था,पर सरोज की उपस्थिति को सदैव अहमियत दी थी उन्होंने। जैसे-जैसे साल बीतते रहे,दोनों का रिश्ता और प्रगाढ़ होता गया।
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उम्र बढ़ने के साथ-साथ बहू पर निर्भरता भी बढ़ती रही उनकी।सरोज को भी उनकी आदत सी पड़ गई थी।उनकी सेहत को लेकर साधिकार डांट भी दिया करती थी अब,सरोज।
सुहासिनी आंटी ,उनकी बेटी और नातिन के लिए नाश्ता लेकर पहुंची कमरे में,तो वे शांति जी से कह रहीं थीं”देख ना शांति,ऐसी भिखारिन घर की लड़की बहू बनकर आई है मेरे घर,कि मायके से कुछ आता ही नहीं।अरे पहली नातिन हुई है उनकी,मुंह जूठन की कोई चिंता ही नहीं।सब हमारे माथे छोड़कर रखा है।
अगले हफ्ते ही मुहूर्त है।तुम सबको सुबह से आना है।रजनी (सुहासिनी जी की बेटी)को कितनी परवाह है अपनी भतीजी की,देख पंद्रह दिन पहले से आई है।परसों दामाद जी भी आ रहें हैं।”
शांति जी ने खुश होकर कहा”अरे,इतनी जल्दी इतनी बड़ी हो गई,लक्ष्मी(सुहासिनी जी की पोती)कि अन्नप्राशन का समय भी आ गया।क्या बनवाया तूने अपनी पोती के लिए?”
“तू भी गजब करती है शांति।पति की पेंशन ही कितनी मिलती है?उस पर मेरा ख़ुद का खर्च। नाते-रिश्तेदारों को भी मैं ही देखूं। क्या-क्या करें एक अकेली जान।रजनी के पापा होते तो,कोई और बात होती।रजनी के पति की भी अभी तंगी चल रही है।कह दिया है मैंने कि तू आई है यही बहुत है।एक फराक खरीद देना घिसोटी के लिए,बस।”
शांति जी ने टोका”घिसोटी क्यों बोल रही है इतनी सुंदर सी पोती को।”
“अरे दिन भर घिसटती रहती है,एक जगह लेटती ही नहीं।नाक में दम कर के रखा है। नानी -मामा का तो अता पता ही नहीं।जानते हैं सब खर्च मेरा बेटा कर लेगा,तब आएंगे झूठे बहाने करके।”
सरोज को अच्छा नहीं लग रहा था,आंटी की बात सुनकर। ट्रे रखकर जाने को हुई तभी रजनी की बेटी के हांथ की चूड़ी पर चाय गिर पड़ी धोखे से।चूड़ियां सुंदर देखकर सरोज ने पूछा”रजनी बेटी की चूड़ियां तो बहुत सुंदर हैं।कहां से ली?”उसने तपाक से कहा
“कल ही मम्मी ने दिलवाई हैं जुनेजा ज्वेलर्स से।ये कान की बाली भी वहीं से पिछली बार दिलवाया था मम्मी ने।अब देखो ना भाभी,ज़िद करके बैठी हैं करधनी देंगी इसे।पहन पाएगी ये क्या?सुनती ही नहीं मम्मी किसी की।”
बेटी की बात काट कर कहा सुहासिनी जी ने”अरे कम अक्ल, घर में अपने भाई -भाभी के सामने ये गज भर जबान ना खोलना।छिपाकर रखती हूं अपनी पेंशन से पैसे।जमा करके उसी से देती हूं।उन्हें पता चल गया तो लालच आ जाएगा।कल को क्या जाने कह भी दें कि उनकी बेटी को भी कुछ सोने का देने।
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मैंने ठेका नहीं लिया है।बेटा होता तो कम से कम चांद लाकेट दे भी देती,बेटी को कुछ नहीं देने वाली मैं।”सुहासिनी जी की बात सुनकर शांति जी तो कुछ कह नहीं पाईं,पर सुजाता चुप नहीं रही।उसने कहा”आंटी ,आप खुद मां बनकर देखिए कभी,आपकी बहू बेटी बन जाएगी।आप अपनी बेटी के लिए अलग मां और बहू के लिए अलग मां कैसे बन लेती हो?
“क्या कहा ,मां।रहने दें बहू ।मेरी बहू आजतक कभी मेरी बेटी नहीं बन पाई।तो मैं उसकी मां कैसे हो सकती हूं।”सुहासिनी जी के सामने सरोज को कमजोर पड़ते देख ,शांति जी ने मोर्चा संभाला”सुन सुहासिनी,पहले तो बेटी और बहू में भेद करना बंद कर।बेटियां तो अपने घर चली जाएंगी,सेवा तो बहू ही करेगी ना?
हम बहुओं से तो बेटी बनने की उम्मीद बड़ी जल्दी कर लेतें हैं,पर हम पहले मां तो बनें बहू की।तेरी कम पेंशन में नातिन के लिए गहने बन सकते हैं,तो पोती के लिए क्यों नहीं।अरे तेरी गोद में चढ़ेगी पायल छनका कर।तेरे प्यार में ही तो पलेगी।बहू तेरा ख्याल रखती है और रखेगी भी।तू डरती क्यों हैं?
अपने कर्म पर भरोसा कर।जो बोएगी,वही काटेगी।आने वाले समय में तेरा भेदभाव भाई-भाभी के साथ बेटी के कलह का कारण बनेगा।अरे कोई अपनी औलाद की औलाद से चिढ़ता है भला।वो तो सूद से प्यारे होतें हैं।जा, आज ही कुछ छोटा-मोटा खरीद लें, जरूरत हो तो मुझसे भी ले ले कुछ पैसे।जिस बहू ने तेरे परिवार को बच्चे का सुख दिया,उसे भी तो एक उपहार मिलना चाहिए।ये ले ये साड़ी मेरी तरफ से बहू के लिए।”
शांति जी की समझाइश काम कर गई थी,ऐसा अन्नप्राशन के दिन जाकर जब बच्ची को देखा तो समझ आ गया।अब सास मां बनने की प्रक्रिया से गुजर रही थी।सरोज निश्चिंत हुई,कि बहू बेटी अपने आप ही बन जाएगी।
शुभ्रा बैनर्जी
#सिर्फ बहू से बेटी बनने की उम्मीद क्यों