“ये क्या बहुरिया, अब तुम सास बन गई तो लापरवाह हो गई हो ” – संगीता त्रिपाठी : Moral Stories in Hindi

“अरे बहुरिया, कहाँ हो अभी तक खाना नहीं बना क्या “बरामदे में पटले पर बैठी सावित्री जी जोर से चिल्लाईं। ऊषा सर पर पल्लू ठीक करती थाली में खाना ले, सासु माँ के पास पहुंची।खाना सासु माँ के सामने रख किनारे खड़ी हो गई। सब ,डाइनिंग टेबल खाना खाते हैं, पर इतनी उम्र हो जाने के बावजूद सावित्री जी पुरानी परम्परा के तहत पटले में ही बैठ कर खाती हैं।

नई बहू माही दादी सास का ये रुतबा देख थोड़ा डर गई, रसोई के कोने में दुबक गई, कहीं दादी सास उसकी क्लास न ले लें। प्रतीक ने उसे बताया था “दादी से सब लोग डरते हैं, आज भी दादी का ही शासन चलता है घर में, दादी थोड़ा तेज जरूर हैं पर मन की बुरी नहीं हैं “…।

तभी सावित्री जी ने थाली में हरी चटनी नहीं है “ये क्या बहुरिया, अब तुम सास बन गई तो लापरवाह हो गई हो “

 “क्या हुआ माँ जी “ऊषा जी ने थाली में झांका, तुरंत रसोई में गई, माही को कोने में दुबका देख हँस पड़ी और चटनी की कटोरी ले बाहर चली गई। सावित्री जी जब तक खाना खाती रही, ऊषा चौकस निगाहें उनकी थाली पर रखी थी, कुछ खत्म होते ही तुरंत ले आती। सावित्री जी खा कर आराम करने अपने कमरे में चली गईं।

रसोई में ऊषा जी ने बड़े प्रेम से माही का हाथ पकड़ कर खाने की मेज पर ले आई, सारा खाना टेबल पर ला, माही को परोसने लगी। दो हफ्ते पहले शादी कर आई माही अभी घर -परिवार में सबको समझने और जानने की कोशिश कर रही, दादी सास के स्वाभाव के बारे में जानकार वो उनसे डर कर कन्नी काटती है।

“मम्मा , एक बात पूछूँ…”माही बोली तो ऊषा जी ने सर हिला दिया, उनका आश्वासन पा, माही बोली

“आप दादी की डांट इतना क्यों बर्दाश्त करती है, वे अक्सर आप के ऊपर गुस्सा निकालती है, क्या आप भी मुझे ऐसे ही डांटा करेंगी “माही के बोलते ही ऊषा जी हँस पड़ी।

“हट पगली, कोई इतनी प्यारी बहू को डांटेगा,और माँ जी की ये डांट असल में उनका प्यार है, वे हर समय हमें अपने पास देखना चाहती है इसलिये गुस्सा करती रहती है “ऊषा ने माही को प्यार से समझाया। जानती थी बहू अभी नई है, उसको सकरात्मक बातें ही बतानी है, नकरात्मक बातें सुन वो एक नकरात्मकता से भर जायेगी और रिश्तों का मर्म नहीं समझ पायेगी।

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दोनों को प्रेम से साथ खाते देख सावित्री जी ने अपना चश्मा ठीक किया और अपनी गोल -गोल आँखों से सास -बहू के रिश्ते की नई शुरआत देखी, उनको कुछ अच्छा भी लगा कुछ बुरा भी। कुछ सोचती धीरे से अपने कमरे में वापस चली गई।

 ऊषा जी को अपना समय याद आया, जब ब्याह कर वे इस घर में आई थी,माँ -बाप की लाड़ली थी, और कम उम्र का बचपना, घर के कामों में अक्सर गलतियां कर जाती, माँ जी तब खूब डांटती पर क्या मजाल उन्हें कोई और डांट लें।धीरे -धीरे सास के सहयोग से वे भी घर गृहस्थी में पारंगत हो गई। सावित्री जी पुराने ख्यालात की थीं अतः बहू के लिये ढेरों वर्जनायें थीं। इतने वर्जनाओं के बावजूद एक चीज उन्होंने सही की, वो ऊषा जी की पढ़ाई थी।सावित्री जी ने सबके विरुद्ध जा कर उनकी अधूरी पढ़ाई पूरी करवाई।

कभी उठने में देर हो जाये तो सावित्री जी उसके माँ -बाप से लेकर सात पीढ़ियों को न बक्शती। रामेश्वर जी इकलौते पुत्र थे अतः सावित्री जी बहू का लाड़ -चाव तो करती पर घर के कामों में कोई देरी या कमी बर्दाश्त न करती। उस जमाने में बेटा माँ -बाप के सामने पत्नी से बात न करता,पत्नी के लिये बोलना तो दूर की बात थी।ऊषा जी ने सावित्री जी कड़क स्वाभाव को देख कर मन में सोच लिया था वे अपनी बहू की सास नहीं माँ बन कर रहेगी।

पर अभी कितना बदलाव आ गया, शादी के दूसरे दिन माही देर से उठी, ऊषा जी उठाने गई, क्योंकि रिश्तेदार जा रहे थे, बहू की पैर छुआई करानी थी। प्रतीक बोला “माँ, माही देर से सोई है, नई जगह उसे नींद नहीं आ रही थी, उसे थोड़ा और सो लेने दो “। प्रतीक की बात सुन ऊषा जी ने उसके सर पर प्यार से चपत लगाते बोलीं “एक ही दिन में तू बहू का भक्त हो गया “वे तो बाहर आ गई, रिश्तेदारों को बहाना बना दिया, बहू की तबियत ठीक नहीं है, अभी दवा देकर आ रही हूँ, तब तक आप लोग नाश्ता कर लीजिये।

 जब माही उठ कर आई तभी पैर छुआने की रस्म कराई। एक दिन सावित्री जी बोली -बहुरियाँ तुम ठीक नहीं कर रही हो, माही बहू को इतना सर पर मत चढ़ाओ, बाद में पछताओगी, अभी जो सीखना है सीख जायेगी, बाद में तुम्हारी कुछ न सुनेगी “

“सीख जायेगी माँ, अभी बच्ची है, आगे तो हम लोगों जैसे ही घर गृहस्थी में पिसेगी “ऊषा जी ने माही का बचाव किया।

माही सुन रही थी, सावित्री जी के जाते ही दौड़ कर ऊषा जी के गले लग गईं “माँ आप कितनी अच्छी हो, बिल्कुल असली वाली मम्मी जैसी “

“अच्छा तो अभी तक मैं तेरी नकली मम्मी थी “ऊषा नकली गुस्सा दिखाते बोली।

“न मम्मा, आप असली वाली मम्मा हो “माही ऊषा जी से चिपकते बोली।सास भी माँ ही होती है, ऊषा जी ममता से माही को गले लगा ली।

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तभी सावित्री जी आई “ये भरत मिलाप खत्म हो गया हो तो चाय बना दो, तुम दोनों सास -बहू के चोंचले ही खत्म नहीं होते,….। चाय बना कर माही खाने की टेबल पर ले आई, ऊषा जी बोली “माँ को कमरे में दें आओ “…,माही को जाने क्या सूझा, सावित्री जी के पास जा बोली दादी आप भी आइये न साथ चाय पीते हैं “और सावित्री जी का हाथ पकड़ डाइनिंग टेबल पर ले आई।

अंदर से खुश और बाहर से नकली गुस्सा प्रकट करते सावित्री जी बड़बड़ा रही थी “बहुरियाँ ये अपनी नालायक बहू की हरकते देखो,दादी सास का हाथ इतना जोर से पकड़े हैं, कहीं तोड़ न दें, इन बहुओं से भगवान बचाये…”

 तीन पीढ़ी एक साथ बैठ चाय का आनंद ले रही थी…। घर के बाकी सदस्य हैरान… सालों से जो बदलाव वे नहीं ला पाये वो माही ने कर दिखाया..।जी हाँ माही के निश्छल स्वभाव ने दादी सास की रूढ़ियाँ भी बदल दी, अब वे अकेले पटले पर बैठ कर खाना नहीं खाती बल्कि अपनी बहू और पोत बहू के संग जीवन को नये अंदाज में जीने लगी। एक कड़क सास, एक स्नेहमयी सास और एक निश्छल स्वाभाव की प्यारी बहू…., ये पीढ़ियों का अंतराल, जीने के अंदाज को भी बदल देता है।

—=संगीता त्रिपाठी

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