आज मेरे पास अपना खूबसूरत सा आशियाना है ,सब सुख सुविधाऐं हैं!बेहद प्यार करने वाला ससुराल है,नाज नखरे उठाने वाला हमसफ़र है!नौकर-चाकर घोड़ा गाड़ी सबकुछ है!
फिर भी
मेरे मन का मयूर गाहे-बगाहे ससुराल की जिम्मेदारियों को छोड़,रीति-रिवाजों के बंधन तोड़ मायके की चौखट लांघ बाबुल के आंगन में उन खट्टी मीठी यादों का चुग्गा लेने जा ही पहुँचता है जो वक्तके साथ धुंधला तो गई हैं पर लाख जतन करने पर भी भुलाए नहीं भूलती!
“मेरा घर “
यादों के झरोखों से निकल जा पहुंची हूँ अपने घर,
जहाँ पहले जैसा कुछ भी नहीं है मगर,
कहाँ हैं मेरे रौबीले से बाबा, और सहमी सी मेरी वो माँ,
ढूँढती हूँ मै उनको इधर से उधर,
मिलता नहीं है कोई निशां,
कहाँ हैं वो बाबा की आराम कुर्सी,
जिस पर बैठने की ना थी हिम्मत किसी की,
कहाँ हैं अम्मा की वो भारी सी कड़ाही ,
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जिसमें बनाती वो ढेरों मिठाई,
कहाँ गई बाबा की छड़ी वो पुरानी,
जिसे देख लड़कों को याद आती थी नानी,
कहाँ हैं अम्मा की कातर वो आंखें
जिनमें पले थे बेजान से सपने।
कहाँ हैं अम्मा के अचार वो सारे,
जिन्हें सब खाते थे ले ले चटकारे।
मशीन का दराज़ में अम्मा का पिटारा,
जिसमें बसा था उनका संसार सारा।
बाबा की फोटो, भगवान,
अम्मा की किताब,
जिसमें लिखा करती वो सारा हिसाब।
कहाँ हैं अम्मा का छोटा सा कमरा,
जिसमें पड़ा था पलंग बड़ा सा।
छोटी सी अम्मा और कई बहन-भाई
सोते थे सब लेकर एक बड़ी सी रजाई।
हर एक को लगता था वो ही है दुलारा,
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पर अम्मा को तो अपना हर बच्चा था प्यारा।
कहाँ हैं मेरे वो सारे बहन-भाई
ढूँढती हूँ मगर नहीं देते दिखाई।
कौन था अपना कौन पराया,
कौन नहीं था मेरी माँ का जाया।
ना कोई शिकायत न ही कोई गिला था,
प्यार करना हमे तो विरासत में मिला था।
बिछड़ गए मेरे वो सारे बहन-भाई,
ये सोच कर आज आती रूलाई।
देखती हूँ मैं अपना सूना सा आंगन,
जिसे देख कर भर आता है अब मन।
कहाँ हैं मेरी वो छत वो मुंडेरी,
जहाँ कभी कटती थी अपनी दुपहरी।
देखती हूँ घर का एक-एक कोना,
जो हो गया है एक दम ही सूना।
अम्मा ने जिस डोर से था बांधा,
जाते ही उनके चटका वो धागा,
जिस घर में रह कर गये अपने पराये,
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क्यूँ ना रह पाए वहीं एक ही माँ के दो जाये।
खिंच गयी दीवार,हो गया बंटवारा,
छूट गया हमसे हमारा मायका वो प्यारा।
जाने को वहां बड़ा करता है मन
नहीं हैं माँ-बाबा, कैसे रखूं क़दम।
कुमुद मोहन
स्वरचित-मौलिक