देवकी अपने मायके लगभग तीन साल बाद आई थीं। पोते पोती घर से निकलने नहीं देते थे। इस बार उनकी बहू अपने मायके गई, तो बोली “मम्मी जी आप भी अपने मायके हो आइए कब तक इन लोगों के चक्कर में कहीं नहीं जाएंगी”,तो देवकी ने फौरन अपने मायके आने का प्रोग्राम बना लिया।
देवकी अपनी भाभी सुलोचना के पास बैठकर पुराने दिनों की बातें करती और यादें ताजा करतीं। सुलोचना की बहू ईशानी इस बार देवकी को कुछ बदली हुई महसूस हो रही थी। ईशानी की शादी को भी दस साल हो गए थे।
इसके पहले जब भी देवकी अपने मायके आई ,तो देखती थी कि इशानी एक दम शांत,मुस्कुराती हुई अपने काम में लगी रहती थी। अगर सुलोचना जी गुस्से में कुछ भी कह देती तो वो कभी पलट के जवाब न देती और चुपचाप अकेले में आंसू पोंछ लेती।
पर इस बार जब से देवकी आई थी तबसे देख रही थी कि ईशानी अपने सारे काम तो कर रही है पर उसमें वो पहले वाली बात नहीं है। अब भी वो शांत तो थी पर पहले की तरह खुशनुमा शांति नहीं थी उसके चेहरे पर। एक अजीब सी खामोशी और मायूसी छाई थी उसके व्यवहार में..।
देवकी ने कई बार पूछना भी चाहा पर ईशानी ने बात टाल दी और बात आई गई हो गई।
सुलोचना जी ने बातों बातों में देवकी से कई बार अपनी बहू की दबी जुबान बुराई भी करी पर देवकी जी ने बात काट दी। क्योंकि वो अपनी भाभी के भी स्वभाव से भली भांति परिचित थीं।
एक दिन की बात है,सुलोचना जी कहीं कीर्तन में जा रही थीं ,उन्होंने देवकी को भी अपने साथ चलने के लिए बोला पर देवकीजी ने सर दर्द की वजह से जाने को मना कर दिया। थोड़ी देर बाद ईशानी देवकी बुआजी के लिए चाय बना कर लाई तो देवकीजी ने फिर से ईशानी से पूछा,
“क्या बात है बेटा ईशानी,तुम इतना उदास क्यों रहती हो? पहले वाला हंसमुख चेहरा कहां खो गया है? आखिर क्या परेशानी है जिसने मेरी प्यारी सी चहकती हुई बहूरानी को इतना चुप चुप कर दिया है? मुझसे कहो हो सकता है कि मैं तुम्हारी कुछ मदद कर सकूं।”
बुआजी के मुंह से स्नेहयुक्त वाणी सुनकर ईशानी अपनी दबी हुई भावनाओं पर नियंत्रण न कर सकी और उसकी आंखों से अश्रुधारा बह निकली। देवकी जी ने बड़ी मुश्किल से उसको ढांढस बंधाया और शांत कराया।
ईशानी सिसकते हुए और हिचकियां लेते हुई बोली, “बुआजी इस घर में मैंने सबको अपना मानते हुए और अपनी जुबान पर ताला लगाकर अपने सारे फर्ज निभाए, पर आज इतने सालों बाद भी मुझे किसी ने अपना नहीं माना। मम्मीजी गुस्से में मुझे क्या कुछ नहीं बोल जाती थीं पर कभी भी मैंने उनको पलट कर जवाब नहीं दिया। मेरे हक की सारी चीजें उन्होंने अपनी बेटी को दे दीं तब भी मैं शांत रही क्योंकि वो मेरी छोटी ननद थी ,तब भी मैंने अपना फर्ज याद रखा।
घर में कोई आ जाए तो मेरी कमियां ,मेरी असफलताएं,मेरे अवगुण गिनाने में मम्मी जी कभी पीछे नहीं रहीं। और बुआजी अब मेरा इन सब बातों से दम घुटता है। नहीं चाहिए मुझे किसी की संपत्ति,नहीं चाहिए अपने लिए तारीफों के पुल, नहीं चाहिये कोई भी ट्रॉफी या मेडल,मुझे चाहिए तो मेरे हिस्से का दो पल का सुकून जो अब चुप रहने में ही मिलता है। अब बस सारा काम कर देती हूं और किसी से कोई फालतू बात नहीं करती, न ही किसीसे ज्यादा मतलब रखती हूं ।”
देवकी जी सब समझ गईं और बोलीं,”तुम परेशान न हो बेटा,मैं भाभी से बात करूंगी और कोशिश करूंगी कि घर के हालात और न बिगडें, जाओ तुम थोड़ी देर आराम कर लो।”
रात के खाने के बाद देवजीजी सुलोचना जी से बोलीं,”चलो भाभी थोड़ा टहलने चलते हैं। बाहर निकलकर देवकी जी ने अपनी भाभी को समझाने की कोशिश करते हुए कहा,”देखो भाभी,दुनिया को देखते हुए तुम्हे हीरे जैसी बहू मिली है पर तुम कदर नहीं कर पाईं। अगर वो तुम्हारे सामने झुक रही थी तो तुम उसको झुकाती चली गईं तो फिर ये भी याद रखो कि झुकने की भी एक सीमा होती है। अगर उसने तुमको जवाब नहीं दिया तो तुम कभी भी कुछ भी कह दोगी,
ये तो अनुचित बात है। अब जब उसने अपने को समेट कर सीमित कर लिया है तो तुमको लगता है कि वो किसी से मतलब नहीं रखना चाहती। भाभी घर की बहू तुम्हारे आंगन का वो आइना है जिसकी हंसी में परिवार के प्यार और सहयोग की झलक दिखाई देती है और जिसकी मायूसी और खामोशी में परिवार की असफलता।
मैंने अपनी बहू के साथ भी ऐसा ही स्नेहयुक्त रिश्ता बना कर रखा है कि हम दोनों एक दूसरे के बिना अधूरा महसूस करती हैं। सास बहू तो एक दूसरे की पूरक होनी चाहिए न कि प्रतिद्वंदी । आखिर घर का आंगन बहू से सजता है तो ससुराल भी तो सास के बिना फीका होता है।
बुरा मत मानना भाभी तुम्हारी बहू बहुत अच्छी थी अब अगर वो तुम्हारे हिसाब से खराब हो गई है तो उसको खराब करने वाली तुम्हीं हो और कोई नहीं। जब घर की अंदरूनी बातें बाहरी लोगों तक पंहुचने लगे तो समझ जाना चाहिए कि आपसी प्रेम और तालमेल का अंत निकट है।
अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा है अभी संभाल लो वरना बुढ़ापा चौपट हो जायेगा तुम्हारा, क्योंकि ये थोड़ा सच है कि बेटा और बेटी अपने होते हैं जबकि ये कड़वा परंतु पूर्ण सच है कि बुढ़ापे में आप सुख से तभी रह सकते हो जब आपकी बहू आपके सुख दुख में शामिल हो।”
अपनी ननद की बातें सुनकर सुलोचना जी निरुत्तर हो गईं, और बीते कई सालों की बातें सोचने पर विवश हो गईं।
अगली सुबह जब ईशानी रसोई में चाय बनाने पंहुची तो देखा कि सुलोचना जी तीन कपों में चाय छानकर बालकनी में ले जा रही हैं और ईशानी से बोलीं,”आजा बेटा, चाय पी ले मैंने अपने और बुआजी के साथ ही तेरी भी चाय छान ली है बाकी सब लोग जब उठेंगे तब पी लेंगे।”
आज अपनी सासू मां के मुंह से बेटा सुनकर मानो ईशानी को लगा जैसे आज की सुबह में अलग ही अनुभूति है उसने आंखों आंखों में ही बुआजी को हृदय से आभार प्रकट किया।
सिन्नी पाण्डेय