मां बहुत ही ग्रेसफुल तरीके से साड़ी पहना करती थी। उनके गरिमामई व्यक्तित्व की चर्चा सभी ओर थी
मुझे याद नहीं कभी जल्दबाजी में भी वो अच्छे से तैयार ना हुई हों।
बालों का जूड़ा बना कर, साड़ी को सलीके से पिनअप करके , हाथ में घड़ी लगा कर, जिससे वो अपने काम करें, विशेष रूप से पापा को समय से खाना बना कर खिलाना, जिससे वो अपने सभी काम को नियत समय पर और सुचारू रूप से कर सकें।
समय का पाबंद होना और समय का प्रबंधन का मूल पाठ भी उन्हीं से मिला…. शायद आप अपने बच्चों को जो सिखा रहे होते हैं, उससे ज्यादा वो , वो सब सीखते हैं, जो अपने माता-पिता को करते हुए देखते हैं।
शायद साड़ी से विशेष लगाव मुझे उन्हीं से मिला,आज भी मुझे सबसे अधिक साड़ी पहनना ही पसंद है।
मगर बात मां की साड़ियों की नहीं वरन उस अनमोल विश्वास की है…..
बात उस समय की है जब मेरे पतिदेव की पोस्टिंग उसी शहर में हो गई जहां मेरे पिता का घर था।
उस समय पापा की तबियत ठीक नहीं चल रही थी,हम सभी का पूरा ध्यान पापा के इलाज की ओर था…. पापा के स्वास्थ्य लाभ के अलावा कोई दूसरी बात दिमाग में आती ही नहीं थी।
हास्पिटल की नितांत व्यस्तता के बीच एक दिन मम्मी मेरे घर आईं ,..
मम्मी के हाथ में साड़ियों के दो डिब्बे थे….. कुछ दिनों बाद मेरी मैरिज एनिवर्सरी थी …. मगर मुझे हास्पिटल की दौड़ धूप के बीच…. ये तो नहीं कहूंगी याद नहीं था मगर मेरी प्राइयारिटी में शायद नहीं थी।
मैंने आश्चर्य से मम्मी से पूछा.. मम्मी ये क्या हैं?
तुम्हारी अट्ठारहवीं मैरिज एनिवर्सरी आ रही है ना!
और दूसरे डिब्बे में..?
मैंने और ज्यादा आश्चर्य से पूछा
वो… एक और साड़ी है,…. अपनी पच्चीसवीं एनिवर्सरी पर पहनना…. अपनी सिल्वर जुबली पर..
हद है मम्मी… पापा की तबियत ठीक नहीं है… आप ये सब…. क्या जरूरत थी,?….. कब मौका मिला आपको बाजार जाने का.?.. पापा को छोड़कर?
मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि इस समय ये निहायत, गैर जिम्मेदाराना और अनावश्यक काम मम्मी ने क्यों किया??
कब समय मिला?
मुझे गुस्से में यह पूछने का मन था ये काम किया ही क्यों ?
बस एक दिन पापा को खाना खिलाने के बाद बाजार निकल गई थी…. तुम्हें पसंद तो आई ना…
समझ में नहीं आ रहा था… मम्मी को क्या कहूं?…. गुस्सा करूं या…?
सच… मुझे बहुत गुस्सा आ रहा था…. गुस्से में दिमाग गर्म हो रहा था…. आखिर इस समय मुझसे पापा के आगे कुछ सोचा नहीं जा रहा था…. और मम्मी भी ना
मैंने साड़ियों के दोनों डिब्बे उठाकर रख दिए… खोलकर देखने का ना तो मन था ना ही समय..
घर- अस्पताल की ढेर सारी व्यस्तता और भाग-भाग के बीच… ईश्वर ने पापा को अपने पास बुला लिया।
हतप्रभ और निष्प्राण सी रह गई थी मैं..
पापा के जाने के दो वर्षों के बाद मेरी तबियत कतिपय कारणों से बिगड़ने लगी….
पता नहीं… ईश्वर को क्या मंजूर था
कुछ समय पश्चात मेरी तबियत ठीक हुई….. मगर कुछ दिनों बाद मम्मी नहीं रहीं।
पापा और मम्मी को गुजरे तीन वर्ष हो चुके थे… मतलब मेरी इक्कीसवीं एनिवर्सरी तक मम्मी भी इस दुनिया में नहीं रहीं।
वक्त बीतता गया…. और मेरी पच्चीसवीं एनिवर्सरी भी आई….. मां की दी हुई साड़ी पूरे विश्वास के साथ ( शायद बहुत सारी परिस्थितियों से मेरी रक्षा करते हुए) अब भी मेरे पास थी।
मां की कहीं वो बात, साधारण सी बात”अपनी सिल्वर जुबली पर पहनना”… आज मुझे नितांत असाधारण प्रतीत हो रही थी
क्या मम्मी को पहले से पता था,?…कि इस समय तक वो नहीं रहेंगी, अतः पहले से ही ऐसा कर गई।
या मम्मी को यह पता था कि कुछ भी हो….. उनकी बेटी फिर से स्वस्थ होकर..खुशी खुशी ….. अपनी एनिवर्सरी पर इसे अश्रुपूरित, डबडबाई आंखों में खोल कर देखेंगी…. पहन कर ईश्वर के समक्ष शीश झुकाएगी …. और कहेगी.. देख रही हो ना मां!…. जहां कहीं भी हो वहां से
तुम्हारी नादान बेटी तुम्हारे स्नेह, पर नाराज़ हो रही थी
कैसा सुरक्षा कवच दे कर गई थी मां!!
पता नहीं मां….
आप तो जादूगर थीं… आपको सब पता होता था
मैं अपने ज्योतिष शास्त्र के प्रति रूझान के कारण गहन अध्यन कर,( कुछ) जानने का प्रयास करती हूं
मगर आप इतनी सहजता से,…सब कह जाती थी,जान जाती थी
सच!
क्या कह रहे हैं… मेरी मां चली गई?
मां कहीं नहीं जाती… वो हमारे जीवन में…. हमारे व्यवहार में… पूरे व्यक्तित्व में कहीं समा जाती है।
मेरी प्यारी मां…. अपनी अनमोल शिक्षाओं और यादों के साथ.. आप आज और सर्वदा मेरे साथ हो!!
हर जन्म में आपकी ही बेटी बनकर जन्मने का गौरव ईश्वर मुझे प्रदान करें
स्वरचित सर्वाधिकार सुरक्षित
पूर्णिमा सोनी
# मुहावरा प्रतियोगिता,गरम होना ( क्रोधित होना)शीर्षक — मां की साड़ी