नियति का खेल- शुभ्रा बैनर्जी  : Moral stories in hindi

Moral stories in hindi : कट्टर कन्नड़  ब्राह्मण परिवार के थे मिस्टर सदानंदन।दो बेटे थे उनके-भारद्वाज और वशिष्ठ।बड़ा बेटा भारद्वाज पांचवीं में और छोटा वशिष्ठ तीसरी में पढ़ते थे।मिस्टर सदानंदन जी एम ऑफिस में फाइनैंस डिपार्टमेंट में थे।कोल इंडिया की साउथ ईस्टर्न लिमिटेड कंपनी है इस क्षेत्र में।

कहीं से पता चला उन्हें कि मैं ट्यूशन पढ़ाती हूं घर पर,तो आए अपनी पत्नी और दोनों बच्चों को साथ लेकर। भारद्वाज ने आते ही मेरे एक साल के बेटे को गोद में लेकर प्यार किया।यह बात मुझे बहुत अंदर तक छू गई।मैंने झट से ट्यूशन के लिए हां बोल दी,कल से।

अगले दिन सदानंदन भइया शाम तीन बजे दोनों बच्चों को घर पर छोड़ते,और उनकी छुट्टी सात -साढ़े सात बजे होती।तब वे लेकर जाते अपने बच्चों को।चार घंटे ट्यूशन पढ़ाने वाले से ज्यादा हिम्मत पढ़ने वाले में होगी।बाप रे!हर विषय पढ़ाकर, होमवर्क भी करवा देती थी मैं।घर पर सास जब अपने नाती -नातिन को खाना देती तो भारद्वाज और वशिष्ठ के लिए भी लाती।वे दोनों भाई इसी घर के होकर‌ रह गए थे।

उस जमाने में अनुशासन प्रिय होने की वज़ह से सभी छात्र डरते‌ थे‌ शुभा मैम से।पर उन बच्चों ने मैम के प्यार को भी जिया था।मेरे दोनों बच्चे‌ उन्हें खाते देखकर ही खाना सीखें।पढ़ने के बाद‌ चारों एक साथ खाते‌ और‌ खेलते थे।मैं निश्चिंत रहती थी।कभी मारपीट नहीं हुई उन लोगों के बीच।सदानंदन भैया सत्य साईं के बड़े भक्त थे।बड़ा बेटा भी टैक किया ,फिर एम टैक कनाडा से किया ।छोटा वशिष्ठ भी साइंटिस्ट बन रहा था भारत में ही।काफी सालों से बच्चों से कोई संवाद‌ नहीं हुआ था।भैया भी अब कम ही मिलते।पत्नी की तबीयत खराब रहती है।

पिछले महीने आकर अचानक एक फोटो दिखाए मोबाइल में और बोले”देखो सिस्टर,ये आनंदी है,कोलकाता से है। ब्राह्मण परिवार‌ से‌

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हैं। भारद्वाज चैटिंग करके इसको पसंद किया।आप ही‌ बताओ दीदी,ये जोड़ी कभी जमेगी क्या। भारद्वाज प्योर वेजीटेरियन और इस लड़की को मछली रोज़ मांगता।कल्चर,संस्कार,नियम,रस्म ,सभी अलग हैं।हमारे खानदान में आज तक‌ किसी ने‌ अंतरराज्यीय शादी नहीं की।मैं क्या मुंह दिखाऊंगा।मैं भारद्वाज की शादी इससे नहीं कर सकता।बंगाली कल्चर बिल्कुल अलग है  हमारे‌ कल्चर से।तुम क्या बोलती हो दीदी?”

सदानंदन भैया की बात सुनकर मैंने भी अपना ज्ञान(कम) देना शुरू किया।”वाकई में बहुत दिक्कत हो जाएगा बाद में।भाषा, रीति-रिवाज, संस्कार, वेशभूषा सभी तो अलग है।”

सदानंदन जी ने अपने परिवार‌ वालों के साथ‌ विचार विमर्श करके,इस शादी को‌ टाल‌ दिया। भारद्वाज तो कनाडा में रहता था।उसने भी आनंदी से बात करनी बंद कर दी।आनंदी ने भी परिवार को प्रा‌थमिकता देकर‌,इस संबंध को प्रायः तोड़ ही दिया।कहां आंध्र का सम्मानित खानदान,कहां बंगाल का पारम्परिक खानदान।ये शादी तो हो ही नहीं सकती।

सदानंदन भैया ने आकर बताया”दीदी,वो सब कुछ नष्ट हो‌‌ गया है।मैंने भारद्वाज से बोल दिया‌ है‌,सजातीय वधू ढूढ़ने‌ के लिए।”मैं भी निश्चिंत हो गई।ख़ुद बंगाली हूं ना,इसलिए अपने रिवाजों को छोड़ना पड़े किसी को बर्दाश्त ही नहीं हो पा रहा था। भारद्वाज भी सो कॉल्ड डिप्रेशन में चला जा रहा था।सभी ने समझाया।उसने मुझसे भी बात की। छुट्टियों के ख़त्म होते ही कनाडा जाना पड़ा भारद्वाज को।अपने प्रेम का अंतिम संस्कार करके गया‌ वह।

लगभग पांच महीने बाद एक शाम सदानंदन भैया खुश होते हुए आए।उनके चेहरे से खुशी चाशनी सी टपक रही थी।उनके मुंह खोलने से पहले ही मैं बोली”शादी पक्की हो गई ना, भारद्वाज की?”वो मेरा हांथ अपने सर पर रखते हुए बोले”दीदी,आपने मेरे बेटे को पांच साल‌ तक पढ़ाकर उसे एक लायक इंसान बना दिया।”

मैं सकते में आ गई ,मेरी वजह से शादी हो रही है या‌ शादी टूटी।रहस्य पर से पर्दा उठाया उन्होंने और कहा”आनंदी दीदी ,बस वही बन सकती है भारद्वाज की पत्नी।”मैंने चुटकी लेते हुए पूछा”और खानदान का क्या करेंगें?”

उन्होंने विस्तार से बताया कि कैसे भारद्वाज की कुंडली पंडितों को दिखा -दिखा कर थक गए थे।किसी लड़की से कुंडली नहीं मिल रही थी,तो कहीं लड़की पसंद नहीं आ रही थी। भारद्वाज को जाने में तीन दिन शेष थे।सदानंदन भैया ने बताया” ,रात तीन बजे तक सो नहीं पा रहा था मैं।कितने परिचित हैं हमारे खानदान में,किसी से एक अच्छी लड़की ढूंढ़ी नहीं गई।हारकर आनंदी की कुंडली(पहले ली थी) पंडित को दिखाई तो उन्होंने इस सत्य को माथे पर चंदन की तरह रखने का सुझाव दिया।

आनंदी की मां कोलकाता की एक नामी मैगजीन में एडिटर थीं।सुलझी हुई एवं स्पष्ट वक्ता थीं।विवेकानंद और रामकृष्ण परमहंस को गुरू मानती थीं वह।अपनी जायी बेटी की पसंद पर उन्हें रत्ती भर भी संदेह नहीं था। माता-पिता का सबसे बड़ा डर होता है,बच्चों का शादी के बाद खुश ना रहना।उन्होंने कॉल पर ही भारद्वाज का इंटरव्यू जोरदार तरीके से‌ लेकर , सेलेक्ट कर लिया।नवंबर छब्बीस को कोलकाता में ही हुई शादी।मैं भी विशिष्ट श्रेणी में आमंत्रित थी,पर घर की जिम्मेदारी के कारण नहीं जा पाई।

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बस इतना बोला था कि जब बहू -बेटा आए ,उसे खबर कर दे।पिछले हफ्ते ही सदानंदन भैया बताकर गए कि आनंदी का रायपुर में जॉब लगा है। भारद्वाज तो कनाडा चला जाएगा छह महीनों के लिए।बाद में आनंदी को भी वहीं बुला‌ लेगा।मेरा एडवांस में निमंत्रण था। भारद्वाज की शादी से मैं ज्यादा खुश थी या कि बंगाली”आनंदी”,के साथ शादी से खुश‌ थी। सदानंदन ने आग्रह किया था ,आनंदी को समझाने का।

आज शाम गई मैं अपने छात्र और उसकी बंगाली वधू को देखने।देखते ही आत्मा खुश‌ हो गई। भारद्वाज को इतनी सुंदर लड़की मिलेगी,कल्पना भी नहीं की थी मैंने।दोनों ने पैर छूकर प्रणाम किया तो मैं बोली”तुम दोनों ने परम्परागत रूप से दो खानदानों के अनुसार शादी की है।शादी खानदानों से नहीं टिकती बल्कि रिश्तों में ईमानदारी से टिकती है।किसी को ज्यादा महत्वपूर्ण बना देने से दूसरे का स्वत: ही अपमान हो जाता है।खानदान पर कलंक लगे यह किसी के‌ लिए सुखद नहीं होता।तुम दोनों के माता-पिता ने लीक से हटकर अपने समाज में एक नया उदाहरण प्रस्तुत किया है।अब तुम दोनों को जीवन भर अपनी पसंद और माता-पिता के भरोसे को सच साबित करके रखना होगा।

घर‌वालों की पसंद की शादी का अच्छा और बुरा उन्हीं पर डाला जा सकता है,पर खुद अपना जीवनसाथी चुनकर इस दायित्व को भी निभाना है अब तुम दोनों को।ना कोई कम महत्वपूर्ण ना ही कोई ज्यादा।

दो खानदान के संगम में समरसता और समन्वय स्थापित करके रखना होगा ।नहीं तो ये खानदान सहित एक दूसरे के खानदान पर कीचड़ उछालने लगेंगे।आनंदी ,तुम्हें ही दोनों खानदानों को एक सूत्र में पिरोकर अपना नया खानदान बनाना है।”मैं एक शिक्षक होकर तादाद से ज्यादा ही ज्ञान बांट चुकी थी।अब जाना होगा कहते ही आनंदी आकर गले से लिपट कर‌ रोती हुई बोली”मैम,मैं आपको मां बोलूं?”

“हां,क्यों नहीं,मैं तो जगत माता हूं(ऐसा मेरे बच्चे बोलें हैं)। उसकी आंसू से भरी आंखों में आज मुझे अपने और अपने पति के खानदान का अटूट गौरव दिख रहा था।जिस रिश्ते के लिए दोनों तरफ से लगातार ना हो रही थी,चुटकी में नियति ने दो खानदानों को एक कर दिया।

शुभ्रा बैनर्जी 

 

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