आत्मग्लानि – संगीता श्रीवास्तव: Moral Stories in Hindi

Moral Stories in Hindi : – जैसे ही  गायत्री देवी ने कहा, वह गिड़गिड़ाने लगी।”नहीं मालकिन! मैं नहीं चुराए। देख लो, तलाशी ले लो मेरी। मैं बिल्कुल भी झूठ नहीं बोल रही। मैं अपनी बच्ची की कसम खा कर कहती हूं, मुझ पर विश्वास करो मालकिन!”कजरी ने रोते हुए कहा।

“अब झूठ बोलने से कोई फायदा नहीं। मैं कैसे विश्वास करूं तुम पर?? तुम तो बहुत गिरी हुई इंसान निकली कजरी! रुपए बेटी को पकड़ा तुमने घर भेज दिया होगा। तुमलोग बहुत चालाकी से काम करते हो न! किसी को इसकी भनक भी नहीं लगने देते तुम लोग। शायद कमी मुझी में है जो तुम जैसे लोगों पर विश्वास करती आई हूं।”

गायत्री जी कजरी को भला -बुरा कह रही थी तभी, उनका बेटा हर्ष आ पहुंचा।”क्या हुआ मम्मी? तुम आंटी को क्यों डांट रही हो?” ‌  “क्या करूं डांटूं नहीं तो! आंटी ने डांट खाने लायक काम जो किया है। मैं नहीं जानती थी की कजरी मेरे साथ ऐसा विश्वास घात करेगी। कई दिनों से मैं देख रही थी , बिस्तर के नीचे रुपए -पैसे रखती हूं वह गायब हो जा रही है। आज जब मैंने  पूछ दिया तो रोने- धोने लगी। यही गायब करते रही है मेरे पैसे। दूसरा कोई तो मेरे घर आता- जाता नहीं इसके अलावा! तुमने मेरे विश्वास को छला है। समझ में यह नहीं आ रहा कि तुम्हें ऐसा क्या हो गया जो पैसे चुराने की नौबत आ पड़ी!”जैसे ही गायत्री देवी चुप हुई,

हर्ष ने तपाक से कहा,”तुम सही कह रही हो मां, आंटी ने हीं चुराए हैं पैसे। क्यों किया आंटी तुमने यह सब? मम्मी कितना मानती है तुम्हें। कितना विश्वास करती हैं तुम पर और तुम हो कि…..छी- छी.. बहुत गंदी हो तुम!”

हर्ष की बातें सुन कजरी का कलेजा और आहत हो गया। सारी बातें सुन कजरी अपने को रोक न पाई और आंसुओं को पोंछते हुए वहां से जल्दी से निकल गई। उसे जाते देख हर्ष ने कहा,”तुम मत आना मेरे घर कभी। तुम्हारी छाया भी देखना नहीं पसंद करेंगे हम।”कजरी बिना कुछ जवाब दिए चुपचाप चली जा रही थी।

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   कजरी घर जा खूब मन भर रोई । वह सोच रही थी,”कैसे मैं मालकिन को यकीन दिलाऊं कि मैंने चोरी नहीं की। भगवान तुम तो जानते हो ना, मैंने चोरी नहीं की। चोरी करूंगी भी क्यों? जबकि मालकिन मेरी हर एक जरूरत को पूरा कर देती हैं।” इसी उधेड़बुन में उसे कब नींद आ गई पता ही नहीं चला। जब नींद खुली तो दोपहर के 2:30 बज रहे थे। “ओह! मुझे हंसा को लेने जाना होगा, वह स्कूल में मेरा इंतजार कर रही होगी।”दरवाजे की कुंडी लगा वह बेटी हंसा को लेने स्कूल जा पहुंची। जब हंसा को ले वह अपने घर की ओर जाने लगी तो हंसा ने पूछा,”मां, तुम हर्ष भैया के यहां ना जाकर घर की ओर क्यों जा रही हो? आंटी- भैया कहीं बाहर गए हैं क्या?”

“हां हंसा! वे लोग कहीं बाहर गए हैं।” हमेशा से कजरी स्कूल की छुट्टी के बाद हंसा को लेकर गायत्री जी के यहां चली जाती थी फिर बर्तन- चौका कर अपने घर आ जाती थी।

गायत्री जी कजरी को बहुत मानती थी। हंसा की पढ़ाई-लिखाई  में भी मदद किया करती थी। कजरी को भी गायत्री जी से बहुत लगाव था। लगभग पांच साल हो गए थे उनके यहां काम करते हुए।  अभी तक काम -धाम की कभी शिकायत नहीं मिली और अब इतना बड़ा आरोप!

उनके यहां कोई पूजा -पाठ हो या कोई प्रयोजन हो, दिलोजान से काम करती थी कजरी।आज, अचानक से सबकुछ खत्म हो गया। कजरी का गायत्री जी के यहां आना -जाना एकदम से बंद हो गया। अभी तक गायत्री जी दूसरी  किसी काम वाली को नहीं रखी थी।

देखते- देखते 15 दिन बीत गए। यदि जब कभी रास्ते में कजरी और गायत्री जी का मिलना हो जाता तो कजरी नज़रें झुका लेती और गायत्री जी नजरें फेर लेती।

  एक दिन तो गायत्री जी सन्न…. हो गईं जब अपने ही लाडले हर्ष को रात में बिस्तर को उलटते देखा। वहां जब कुछ नहीं मिला तो आलमारी पर रखे पर्स से रूपए निकाल अपने स्कूल बैग में रख लिया। गायत्री जी उधर से गुजर रही थी तो अपने बेटे की करतूत देखी।

   वह बहुत दुखी हुईं।”ओह! हर्ष इतना गिर गया है, अपने ही घर में चोरी कर रहा है और मैंने कजरी पर संदेह किया।” उस दिन तो वह चुप रही। अगले दिन पापा की कमीज के जेब से जब रुपए निकालते देखा तो बिना कुछ कहे उसके गाल में जोरदार चांटा जड़ दिया। वह सहम गया। गायत्री जी रोते हुए कहने लगी,”नालायक, मैंने उस निर्दोष कजरी पर संदेह किया! जबकि चोरी तुम करते रहे हो।कजरी के जाने के बाद जब कभी रुपए गड़बड़ होते थे तो मैं समझती थी, मैंने ही ठीक से गिनती नहीं की होगी।”आज गायत्री जी को आत्मग्लानि हो रही है और उनकी आंखों से अश्रु धारा फूट पड़े जिसे बड़ी मुश्किल से रोक पाई।

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हर्ष सिर नीचे किए हुए जड़वत खड़ा रहा। उसकी स्थिति वैसी थी,काटो तो खून नहीं।

गायत्री जी सोने तो चलीं गईं पर आंखों में नींद कहां? उसकी जगह आंसुओं ने ले रखी थी।सुबह उठते ही उन्होंने हर्ष को स्कूल जाने से रोक दिया। “कहा, तुम स्कूल नहीं, पहले कजरी आंटी के पास माफी मांगने चलोगे।”

हर्ष को ले कजरी के घर पहुंची।

कजरी ने प्रणाम किया और पूछा,”मालकिन आप यहां? हर्ष बाबू स्कूल नहीं गए?”

“नहीं कजरी!यह स्कूल जाकर तो कुछ नहीं सीख पाया।यह तुमसे सीखेगा कि ईमानदारी क्या होती है। चोरी तुमने नहीं,यह करता है।चलो, आंटी के पैर छू और माफी मांग।”

जैसे ही हर्ष आगे की ओर झुका, कजरी ने झट उसे गले लगा लिया।

“कोई बात नहीं मालकिन! बच्चा ही तो है।”गायत्री जी ने कजरी के हाथ अपने हाथ में लेते हुए कहा,”मुझे भी माफ कर दो कजरी! मैंने ही तो तुम पर संदेह किया।”

“ऐसा ना कहो मालकिन….!”

“तो ठीक है,कल मैं तुम्हारा इंतजार करूंगी।”गायत्री जी ने कहा।

कजरी के चेहरे गुलाब की तरह खिल उठे …..!

संगीता श्रीवास्तव

लखनऊ

स्वरचित, अप्रकाशित।

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