स्तुति ने पूरी तत्परता से न सिर्फ अपने जेठ को सही समय पर अस्पताल पहुँचाया बल्कि वहाँ के लापरवाह स्टाफ से लड़-भिड़ कर उन्हें तत्काल एडमिट भी करवाया। वहाँ उपस्थित अस्पताल के छोटे कर्मचारी जब आदत से मजबूर आनाकानी कर रहे थे, स्तुति दनदनाती हुई मुख्य चिकित्सक के ऑफिस में घुस गयी।
उसने जब अपने अधिकार और उनके कर्तव्यों का कानूनी पहलू पुरज़ोर तरीक़े से समझा कर धमकाया, सारा स्टाफ जो ऐसे इमरजेंसी के मौकों पर बीमार के घरवालों की मज़बूरी और डर का फ़ायदा उठा मोटी रकम ऐंठने के फिराक में रहते थे, अपनी नौकरी बिगड़ने के भय से काँप उठे।
पाँच मिनट के अन्दर सुदर्शन को आईसीयू में भर्ती करके उसका इलाज शुरू कर दिया गया। यह भी एक बहुत अच्छी बात हुई थी कि उसके साथ वहाँ पहले से पहुँचे दो अन्य परिवारों को भी लाभ हो गया था जो दुर्घटना में गम्भीर रूप से घायल अपने परिजनों को एडमिट कर लेने की देर से गुहार लगा रहे थे।
सुदर्शन जब पूर्ण स्वास्थ्य-लाभ कर अस्पताल से घर लौटा, सासू माँ और ससुर जी की सोच छोटी बहूरानी के प्रति एकदम बदल चुकी थी। सास अनुराधा जी तो अपनी पुरातनपंथी पूर्व व्यवहार पर इतनी शर्मिन्दा थीं कि स्तुति के सामने निगाहें नहीं उठा पा रही थीं।
एक हफ़्ते बाद ही पड़े सुदर्शन के जन्मदिन पर घर में दोहरी खुशी मनाने के लिए एक छोटा सा आयोजन किया गया।
हर बार की तरह अपने बड़े बेटे सुदर्शन को हँसते-खिलखिलाते हुए अपने पिता और नन्हें बेटे टुकटुक के हाथों अपने जन्मदिन का केक कटवाते देख कर अनुराधा जी की आँखें हर्षातिरेक में छलक उठीं। स्तुति बहू नहीं होती तो आज शायद घर में मातम पसरा होता, हँसने के बजाए सब रो रहे होते।
यह विचार मन में आते ही माँ के ममतामयी हृदय में भावनाओं का ज्वार उमड़ पड़ा। उनकी आँखें छोटी बहू को इधर-उधर ढूँढ़ने लगीं। देखा तो वह बड़ी बहू धरा के पीछे खड़ी ‘हैप्पी बर्थडे टू यू’ गाती हुई रिश्तेदारों और पास-पड़ोस के बच्चों के साथ तालियाँ बजा रही थी।
सिर पर लिया हुआ दुपट्टा सरक कर कन्धों पर पड़ा हुआ था जिसे देख कर आज सासू माँ को तनिक भी गुस्सा नहीं आया। तभी अचानक स्तुति की नज़र उनकी ओर पड़ गयी। उन्हें अपलक अपनी ओर देखते पा कर बेचारी घबराती हुई दुपट्टा माथे पर खींच कर सिर ढँकने का प्रयास करने लगी।
अनुराधा जी अब अपने-आप को रोक नहीं सकीं। अपना सारा अहम, सारा संकोच परे रखते हुए वे बहू स्तुति के पास पहुँच उन्हें माफ़ कर देने की चिरौरी करने लगीं, तो स्तुति ने हड़बड़ाते हुए उनके जुड़े हुए हाथ थाम लिये। सासू माँ की आँखों से बहते आँसुओं को देख वह भी भावुक हो उठी। एकाएक भावनाओं का बाँध टूटते ही वह लपक कर उनके गले लग गयी।
____”ऐसे माफ़ी माँग कर मुझे पाप का भागी मत बनाइए मम्मीजी!…माँगिए मत, बल्कि कुछ दीजिए मुझे ईनाम में, अगर ख़ुश हैं मुझसे तो..!”
____”तुमने तो मेरा बड़ा बेटा मौत के मुँह से वापस छीन कर मुझे लौटाया है बहू, बोलो क्या दूँ तुम्हें इसके बदले में?…वैसे तो कोई भी चीज इसकी बराबरी नहीं कर सकती पर तुम्हें क्या चाहिए, बताओ…मैं भरसक देने की कोशिश करूँगी!”
अपने गले से सोने की लम्बी, भारी-सी चेन उतार कर स्तुति को पहनाती हुई वे बोल रही थीं।
____”यह नहीं चाहिए मम्मीजी! …इतने छोटे ईनाम से मैं नहीं सलटने वाली…यह चेन तो धरा दीदी को बहुत पसन्द है, उन्हें ही मिलनी चाहिए…मुझे तो आपसे कुछ और चाहिए!”
अपने गले से वह चेन उतार कर जेठानी को पहनाती हुई स्तुति कह रही थी।
____”बोलो न मेरी बहूरानी, क्या चाहिए तुम्हें…जो मेरे बस में हुआ, देने में पल भर देर न करूँगी।”
सासू माँ भी लाड़ भरे स्वर में बोल उठीं।
____”बस मम्मीजी! परम्पराओं और रीति-रिवाजों के बन्धन थोड़े ढीले कर दीजिए। आप अगर मेरी माँ हैं इस घर में…तो पापाजी भी तो मेरे पिता की जगह हैं और जेठजी भी बड़े भाई की जगह…फिर इनसे घूँघट करके चेहरा छुपा कर रखना…सामने न पड़ना। घर में आपस में हँस-बोल न सकना तो और भी घुटन भरा लगता है।
ऐसा लगता है जैसे घर की सारी खिड़कियाँ, सारे रौशनदान बन्द हैं, ताज़ी हवा और धूप घर तक नहीं आ रहीं। ज्यादा कुछ नहीं चाहती मैं…बस अपना यह घर-परिवार, इसमें दूध में चीनी की तरह ठीक वैसे ही घुल जाना चाहती हूँ, जैसे मेरे मायके में मेरी तीनों भाभियाँ घुलमिल गयी हैं। चाहे मेरी शादी से पहले हो या अब, जब मैं वहाँ होती हूँ न, घर में हमें देख कर कोई बाहर वाला अनुमान नहीं लगा पाता कि बेटी कौन है और बहू कौन!”
हमेशा चुप रह कर सब कुछ सहने वाली धरा भी अब देवरानी के साथ खड़ी थी। हाथ जोड़ कर वह भी बरसती आँखों से शायद यही माँग रही थी।
वहाँ उपस्थित सारे लोग अनुराधा जी को देख रहे थे कि वे क्या फैसला करने वाली हैं।
नम आँखों के साथ अनुराधा जी एकदम से मुस्कुरा उठीं। आगे बढ़ कर सबके सामने दोनों बहुओं को आलिंगन में भर कर उन्होंने यह घोषणा कर दी,
____”जिस बात में मेरी बहुएँ ख़ुश, मेरा परिवार राज़ी, वही मेरा भी निर्णय। माना कि बहुत देर कर दी मैंने, खिड़की दरवाज़े खोल कर ख़ुशियों को अपने घर आने का न्यौता देने में…लेकिन सुबह का भुला अगर शाम से पहले घर लौट आये, उसे भूला नहीं कहते न!”
सुबह का भूला (भाग 3)
(स्वरचित, मौलिक, अप्रकाशित)
नीलम सौरभ
रायपुर, छत्तीसगढ़