अंतर्मन की लक्ष्मी ( भाग – 18) – आरती झा आद्या : Moral Stories in Hindi

“नमस्ते मामाजी”…. संपदा ट्रे रखती हुई अखबार वाले अंकल से कहती है।

संपदा के नमस्ते कहने पर अंजना और अखबार वाले अंकल हड़बड़ा जाते हैं और अखबार वाले अंकल खड़े हो गए क्योंकि इन दो तीन सालों में इस घर में अंजना के अलावा किसी ने भी बात करने की आवश्यकता नहीं समझी थी और अक्सर सीढ़ियाॅं उतरते समय घर के मालिक के शब्द “अंजना ये सब मुझे पसंद नहीं” कान में जरूर पड़ते थे। कई बार मन में आया जहाॅं इज्जत नहीं वहाॅं न जाया जाए लेकिन अंजना का दिया हुआ मान उन्हें खींच ले जाता था और अभी यूॅं संपदा का मामा जी कहना…

“बैठे बैठे भी आशीर्वाद दे सकते हैं मामा जी”, उत्तपम का प्लेट अखबार वाले के सामने रखती हुई संपदा मुस्कुरा कर कहती है। एक झिझक संपदा पर हावी था, लेकिन जब ओखल में सिर दे दिया तो अब मूसल से क्या डरना, अब जो भी हो, भाभी अकेली कितना करेंगी, साथ तो देना ही होगा की सोच से संपदा मुस्कुराती अपनी झिझक को काबू में करने की कोशिश कर रही थी।

“आं…हाॅं, हाॅं…जीती रहो।” संपदा की बात पर अखबार वाले बोल कर फिर से कुर्सी पर बैठ गए।

“ये सब, ये सब क्या है संपदा।” अंजना असमंजस में पूछती है। जबकि उसका अंतर्मन बेटी को अपने साथ  देख आह्लादित हो रहा था, वो आगे बढ़ कर संपदा को आलिंगनबद्ध कर लेना चाहती थी लेकिन फिर एक बार संकोच आड़े आ रहा था।

“लीजिए ना मामा जी, चाय भी ठंडी हो जाएगी।” संपदा मनुहार करती हुई कहती है।

शनै: शनै: मंजिल मिल ही जाएगी। आज संपदा परिवार के निकट आई है, कल पापा जी और मनीष भी इस बात को समझेंगे। विनया रसोई में खड़ी तीनों को देख भविष्य के प्रति आश्वस्ति से मुस्कुराती है।

“ये संपदा को क्या हो गया है दीदी, देखो तो जरा कैसे दीदे दिखा कर हॅंस रही है और वही बैठ भी गई।” बुआ के कमरे से बैठक का दृश्य स्पष्ट दिख रहा था और मंझली बुआ की टिप्पणी भी बदस्तूर जारी थी।

“अरे अंजना बहू को सोचना चाहिए, जवान जहान लड़की को एक अनजान आदमी के सामने बैठने दे रही है।” तिरछी नजर से मनीष को देखती हुई बड़ी बुआ कहती हैं।

“इतना लोग के सामने नाटक करने का इजाजत दोगी दीदी तो यही सब होगा ना।” मंझली बुआ दही में सही मिलाती हुई कहती हैं।

अरे वो तो मंच पर करेगी न, ऐसे कुर्सी लेकर सबके सामने बैठेगी नहीं ना।” बड़ी बुआ अपनी बात को उचित ठहराती हुई कहती है।

“हूं, इस घर के भगवान ही मालिक हैं। पता नहीं अंजना बहू घर का रीति, रिवाज, व्यवहार कब समझेगी। माॅं तो समझाते समझाते परलोग गमन कर गई। हमलोग को भी अपना घर बार छोड़कर हमेशा आना पड़ता है। यहाॅं–वहाॅं करती थक जाती हैं हम भी।” मंझली बुआ अपने पैरों को सहलाती मनीष की ओर देखती हुई कहती है।

“हाहाहा, ये सही है मामा जी, भाई बहन एक दूसरे का नाम ही नहीं जानते हैं। सालों से बहन और दादा पर टिके हैं।” संपदा द्वारा नाम पूछे जाने पर दोनों एक दूसरे के नाम के प्रति अनभिज्ञता दर्शाते हैं, जिस पर संपदा जोर से हॅंस पड़ी।

संपदा की हॅंसी घर के कोने–कोने में गूॅंज गई और जो जहाॅं थे, वही से चकित से बैठक की ओर देखने लगे, संपदा को हॅंसते देख सिर्फ विनया रसोई में खड़ी मुस्कुरा उठी और अंजना हॅंसती हुई संपदा को मुग्ध भाव से देख रही थी। जैसे तपती धरती के हृदय को निशा की सहेली ओस की बूॅंदें ठंडक प्रदान करती है, कुछ ऐसी ही ठंडक अभी अंजना के हृदय को महसूस हुआ था। वो हमेशा सोचा करती है कि संपदा जब अपने इसी घर में इतनी चुप चुप रहती है तो जाने ससुराल कैसा मिलेगा। वहाॅं हॅंसने–बोलने की आजादी होगी या नहीं। यहाॅं तो आजादी होते हुए भी समय के फेर से सारी स्वतंत्रता समाप्त हो गई और अभी संपदा की ऑंखों में आ गई चमक अंजना के मानस पटल पर एक साथ कई स्मृतियों को गूंथ कर एक माला बना गई। एक नए सफलता के रास्ते पर बढ़ती इन तीनों महिलाओं की एक समर्पित और खुशहाल यात्रा की शुरुआत हो रही थी, जिसमें भावनाएं, मुस्कानें और साझेदारी की मिठास से भरा हर क्षण नयी कहानी की तरह महसूस हो रहा था।

“हमारा भाई कुछ कहता नहीं है, इसीलिए ऐसे पर पुरुष के सामने हॅंसी ठठ्ठा हो रहा है। परिवार का पुरुष कमजोर हो तो यही सब होता है।” बड़ी बुआ मनीष की उकसाती हुई कहती हैं।

“बात तो करनी ही होगी।” बुआ की बात पर मनीष तमतमा कर उठता हुआ कहता है।

“अच्छा बिटिया, जीती रहो।” जब तक मनीष कमरे से बाहर आता संपदा के सिर पर हाथ फेर कर जाते हुए अखबार वाले अंकल कहते हैं।

“अंजना मुझे ये सब…संपदा क्या चल रहा है, शर्म नहीं आती तुम्हें ऐसे किसी के भी सामने ही ही कर रही थी।” अखबार वाले के दरवाजे से निकलते ही संपदा के पापा अंजना को फिर से ताकीद करने के लिए कमरे से निकल रहे थे कि दूसरी ओर से मनीष आकर संपदा पर चीखता है।

मनीष को चीखते सुनकर रसोई का काम छोड़ विनया दौड़ कर बाहर आ गई। मनीष को मुॅंह से और ऑंखों से अंगारा बरसाता देख विनया एक पल के लिए सहम कर खड़ी हो गई। अभी तक तो वो आराम से बुआ के कमरे में बैठा चाय के साथ बातें भी पी रहा था और अचानक ऐसा क्या हो गया, विनया को मनीष का बर्ताव समझ में नहीं आया। मनीष के इस रूप को देखकर विनया के चेहरे पर दर्द की रेखाएं उभर आईं।

“क्या हुआ भैया” प्लेट ट्रे में रखती संपदा के हाथ मनीष के चिल्लाने से रुक गए और वो पलट कर पूछती है।

“बुआ नाटक करने क्या कह दी, तुम्हारा तो मन ही बढ़ गया। कल से कुछ ज्यादा ही चहक रही हो संपदा। इस घर का जो सीमा रेखा है, उसके अंदर रहो तो ज्यादा अच्छा रहेगा और माॅं आप भी सुबह सुबह वो जो पहुॅंच जाते हैं, उनको मना कीजिए।” मनीष संपदा के साथ साथ अंजना को भी चेतावनी देता हुआ कहता है।

“ये सब तुम्हारा ही किया धरा है ना। सॅंभल जाओ तुम।” जाते जाते मनीष विनया को देख कहता हुआ जाता है।

विनया के लिए तिरस्कार का यह विष पीना बिल्कुल ही नया अनुभव था। उसके मन के अंदर भावनाओं का ज्वार भाटा उठने लगा और फन उठाए नाग की तरह डसने के लिए तैयार हो गया था। इस समय उसे अपनी माॅं संध्या की याद आने लगी और वह याद रुदन बनकर बाहर आने के लिए तत्पर हो उठी, जो अंजना की नजरों से छुप नहीं सका था। संपदा का खुल कर हॅंसना अंजना के मन में विनया के लिए सहानुभूति उत्पन्न करने लगा था। उसे फिर से एक बार अतीत की परछाइयाॅं इर्द गिर्द नजर आने लगी थी। वो समझ रही थी ये कुछ दोनों बुआ के भड़काने का असर है। कभी यही सब तो उसकी हॅंसती खेलती गृहस्थी में भी घटा था। किसी अपनों के नजर में सब हॅंसी खुशी खटकने लगती है तो रिश्तों के ऊपर एक परत सी जम जाती है और कटुता आते देर नहीं लगती है। अंजना सहमी विनया का कंधा थपथपा कर आगे बढ़ गई।

लेकिन संपदा विनया के ऑंखों की नमी महसूस कर उसके गले लग गई। संपदा के स्नेहिल स्पर्श से विनया खुद को रोक नहीं सकी और फूट फूट कर रो पड़ी। जिसके नाम से बॅंध कर वह इस घर में आई थी, उसने आज तक उससे सीधी बात नहीं की थी। हमेशा अपने अहम् के साथ रहना ही मनीष के स्वभाव में था। उसने यही जाना था कि घर की सीमा रेखा सिर्फ माॅं और बहन के लिए ही होती है और यदि इन्हें शह दिया गया तो घर बर्बादी की ओर ही जाता है, बुआ द्वारा संचालित उसके दिमाग ने इसे गांठ बांध कर रख लिया और गाहे बगाहे इसका प्रयोग वो अपने घर स्त्रियों का दिल दुखाने में किया करता है।

“भाभी, सब ठीक हो जाएगा। मैं हूॅं ना आपके साथ।” संपदा विनया की पीठ सहलाती हुई कहती है।

विनया की रोने की आवाज सुनकर मनीष को छोड़कर सभी बैठक में आ गए थे। विनया संपदा के गले से लगी हिचकी लेकर रोती जा रही थी। विनया की ऑंखों से आँसुओं की धारा बह रही थी, उसका चेहरा दुखी और विचलित था। उसकी काॅंप रहे अधर पर दर्द और दुख की छाया छा गई थी, जो उसके व्यक्तिगत और आत्मिक संघर्ष को दर्शा रही थी। उसके रोने से उठी हुई ध्वनि ने आसपास के वातावरण को भी व्यापित किया, जैसे कि एक दुखी मन का आलाप सारे समान्य महौल को गहराई से छू रहा हो, जो उसके दर्द की अधीरता को और भी ज्यादा महसूस करवा रही थी। उसकी ध्वनि में इस वक्त दर्द, उदासी और अपनी तक़़दीर से हुए निराशा का संघर्ष था, जो कुछ लोगों को उसके भावनात्मक प्रतिबिम्ब में ले जा रहा था और वो लोग थे अंजना और उसके पति। 

अंजना के पति मुकुंद विनया के रोने की आवाज से अपने कमरे के दरवाजे पर आकर ठिठक गए। एकाएक उन्हें ऐसा लगा जैसे ये विनया और संपदा नहीं बल्कि अंजना और सुलोचना हो, जब उनके कटु वचनों को सुनकर ऐसे ही अंजना सुलोचना के कंधे पर सिर रखे रो पड़ती थी और वो अपनी मर्दानगी के साथ अकड़ते हुए अपनी माॅं और बहनों के पास जाकर बैठ जाया करते थे। यहाॅं इतना सा अंतर था कि मनीष की माॅं की चेतना उसे सही नहीं ठहरा रही थी और वो चेहरे पर अंगीठी सुलगाए अपनी बुआ के पास जाकर बैठ गया था।

लेकिन इन सबसे इतर अभी विनया के रुदन में अंजना के अश्रु घुल मिल कर मुकुंद को विचलित कर रहे थे और पहली बार उनकी ऑंखों में किसी के ऑंसू ने पानी ला दिया था। उनके मन में विनया के कल रात के कहे शब्द पापा जी वाली जिम्मेदारी भी तो आप दोनों ने ही हमेशा उठाई। क्या सच में मेरी दोनों बहनें इस घर की जिम्मेदारी उठाती हैं, या….मुकुंद आगे नहीं सोच सके और अपने चश्मे पर पड़ गए अदृश्य धुंध को पोछने की कोशिश करने लगे जबकि एक युग से धुंध ने उनके मन मस्तिष्क को ढक लिया था, जिससे सही गलत देखने की क्षमता पर भी परदा ऐसा पड़ा कि उन्होंने अपने बेशकीमती समय केवल बरबाद ही किए। भूल गए की जिंदगी काटने का नाम नहीं, जीने का नाम है।

आरती झा आद्या

दिल्ली

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10 thoughts on “अंतर्मन की लक्ष्मी ( भाग – 18) – आरती झा आद्या : Moral Stories in Hindi”

  1. बहुत ही सुंदर कथानक, सुलझी हुई बहु विनया। कहानी के शेष भागों को भी पढ़ने की उत्कट इच्छा उत्पन्न हो गई है।

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    • जी हा लेखक के शब्द अति सुंदर व भावपूर्ण है पढ़ते हुए लगता है कि चित्रण हो रहा है, और यह सब अपने ही किसी परिवार का लगता है, कहानी का अन्त समझते हुए भी उत्कंठा बढ़ रही है

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  2. कहानीकार को बहुत बहुत नमन करते है कहानी बहुत ही मजेदार है पढ़ने मे मजा आ रहा है आगे के भाग पढ़ने की उत्सुकता है…..

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