पिया का घर प्यारा लगे!! – पूर्णिमा सोनी: Moral stories in hindi

Moral stories in hindi  :

डरी (सहमी) सी ससुराल की देहरी पर खड़ी थी…

अपने घर से काफी दूर…. घर था पिया का

बस के लंबे सफर के बाद .. यहां पहुंची थी!

सबसे सुन रही थीं.. तुम्हारी अम्मा ( सासू मां) जरा स्वभाव की तेज़ हैं

एक तो वो ( नादान,कम अनुभवी) लड़की जिसका वैसे भी बहुत छोटे से परिवार में (कम लोगों के बीच) खाना बनाने और काम संभालने की आदत थी ( वो भी बहुत इमरजेंसी में,जब मम्मी की तबियत नासाज हो)  तब..

अव्वल तो वो वैसे भी अपने स्कूल कालेज में पढ़ाई के साथ साथ ढेरों दूसरी गतिविधियों ( मसलन, निबंध ,वाद विवाद, आशुभाषण,साइंस (एक्जिबिशन) प्रदर्शनी नाटक (ड्रामा)… में भाग लेने के कारण फुर्सत ही नहीं पाती थी..

फिर दूसरे घर आने पर प्रैक्टिकल फाइल ( जिसमें, बायोलॉजी विषय में ढेरों चित्र ( डायग्राम) बनाने प्रयोग ( एक्सपेरिमेंट) फाइल में सिलसिलेवार लिखने… जैसे ढेरों काम रहते थे।.. तिस पर मां जैसा ( सर्वगुण संपन्न महिला )… और मुझ जैसा जो मां से बहुत कम खाना बनाना सीख सकी...

पारंगत होना तो बहुत दूर की बात है।

ना ना.. बात अब मम्मी की छत्रछाया की नहीं है

मायके की देहरी छोड़ कर ससुराल आ चुकी हूं.. बड़े से परिवार में!

इस कहानी को भी पढ़ें: 

रिश्तों के रूप – रचना कंडवाल

मतलब बहुत भरे पूरे परिवार में

क्या डर सिर्फ मुझे ही लग रहा था?

नहीं

सासू मां  से भी ( मेरे विवाह की बात चलते ही) लोग कह ( तथाकथित, समझा) रहे थे कि… देखो बहुत पढ़ी लिखी लड़की है…. इलाहाबाद यूनिवर्सिटी से एम एस सी की है… अब देखो क्या होता है ( मतलब… सबको खाना बना कर खिलाएगी भी या नहीं?)

( ऐसा मुझे मेरी सासू मां ने बाद में स्वयं बताया था कि, फलाने ,फलाने ने ऐसी बात बोली थी)

विवाह के कार्यक्रम में

किसी ने  ससुराल पहुंचते ही पूछा था..

आपको कुछ खाना बनाने आता तो है ना?

( सिर्फ) कुछ?? …. ऐसा सुनकर

मैंने डर कर  उसकी तरफ देखा

यानि कि मेरी तरह सबको डर लग रहा है

यानि  कि… दोनों तरफ़ है आग बराबर लगी हुई।  ( )

मैं विवाह हो कर ससुराल पहुंची तो बड़ी जिठानियां,अलग घरों में रहते थे, मगर त्यौहार एक साथ पूरा परिवार नहीं, बल्कि  पूरा कुटुंब मिलकर मनाता था।

इस कहानी को भी पढ़ें: 

आधी हक़ीक़त आधा फ़साना- सब तुम्हारे लिए ही है  – कंचन शुक्ला

मैंने  चौका ( किचन) संभाला…. फिर ढेरों व्यंजन ( इतने बड़े परिवार में, वो भी डरते डरते, बनाने लगी)…. बहुत सारी चीज़ें तो पहली बार ही बनाई जिन्हें अपनी मम्मी को सिर्फ बनाते हुए देखा था।

दद्दा जी ( मेरे ससुर जी) ने बोला भी ना…. पढ़ाई के साथ साथ खाना भी बनाना सीखा है.. मन लगाकर…  और मां ने भी बहुत कुछ सिखा कर भेजा है!

मन लगाकर

ये कांप्लीमेंट मेरे लिए किसी बड़े पुरस्कार  से भी बढ़कर था।

आखिर मैंने ( सिर्फ अपना ही नहीं, अपनी मां का नाम भी (कभी )खराब नहीं किया )

मगर बात ये नहीं है… ना ही मैं इस ब्लॉग में यह बताना चाहती हूं!

अब मां के खाने के विषय में लिखना  है तो मैं,इस ब्लॉग में अपनी सासू मां के हाथ के खाने की बात करूंगी।

यूं तो अम्मा ( सासू मां)  बहुओं और पोतियों के परिवार में  चौके में कम ही जाती थीं।

खाना बनाने का मोर्चा बाकी सबने संभाला था।

मगर कभी कभी,घर में बच्चे  ( बहुत) मनुहार करके उनके हाथ की बने  व्यंजन,..खाना चाहते थे।

जिसमें सबसे ऊपर होता था, उनके हाथ की कढ़ी!

अम्मा चौके में कढ़ी बनाने बैठती थी ( मतलब जमीन पर गैस का बड़ा वाला बर्नर रखा जाता जो किसी बड़े आयोजन के समय ही इस्तेमाल होता था) .. फिर सब दौड़ दौड़ कर ( हेल्पर की तरह) उन्हें सामान पकड़ाते थे।

( बड़ों की खाना बनाने में ऐसी वाली हेल्प करते करते ही, उनसे खाना बनाने के बहुत सारे गुण( तथाकथित सूत्र) सीखें जा सकते हैं.. यह बात आज जीवन में इतने अनुभव जुड़ जाने के बाद कह रही हूं)

तब तो सब  कहते थे.. अम्मा अपने साथ बहुत दौड़ाती हैं

इस कहानी को भी पढ़ें: 

दिखावे का दुःख – विनोद सांखला “कलमदार”

दरअसल माता पिता   अपने साथ  ( ऐसे)  काम के लिए इसलिए दौड़ाते हैं… जिससे कि आप आगे.. जिंदगी की रेस में कहीं पीछे ना रह जाएं

तो फिर शुरू होता था कढ़ी बनाने का सिलसिला।

अम्मा किसी को कहती गैस जला कर बड़ी कढ़ैया रख कर तेल चढ़ा दो

तो किसी   को बड़ी परात में  ( ढेर सारा) बेसन फेंटने को बैठा देती।

उनके बगल में ( बड़े बर्नर वाली गैस को) उनके निर्देशानुसार धीमा और तेज़ करने के लिए भी किसी की ड्यूटी लगी रहती।

अम्मा बताती रहती अब गैस धीमा करो…. अब तेज़ करो

सब ये सब सहर्ष करते… क्योंकि उन्हें अम्मा के हाथों का स्वाद जो चखना होता।

जिसे वो बहुत कम ही बनाती थी।

फिर अम्मा बड़ी सी मचिया पर बैठ कर मोर्चा संभालती( किसी बड़े कलाकार की तरह)

फिर ढेर सारी भजिया ( पकौड़ियां) तली जाती,….  कढ़ी छौंकी जाती., कढ़ी का घोल बनाकर, बड़े बड़े भगोनों में नीचे रखें बड़े बर्नर पर, ऊपर प्लेटफार्म पर रखी गैस पर  पकने को रखा जाता….

अम्मा बताती… कढ़ी का मतलब,उसे कढ़ाना ( धीमी आंच पर देर तक पकाना होता है)

कढ़ी इतनी मात्रा में तैयार होती कि घर के आस पास रहने वाले परिवार के दूसरे सदस्यों के घर भी..  भगोने,दूध के डब्बों में भर कर भेजी जाती!!

इस कहानी को भी पढ़ें: 

श्रवण कुमार – दीप्ति सिंह

इसी प्रकार अम्मा भरवां बैंगन भी बनातीं…  दीपावली के अवसर पर सूरन ( जिमिकंद) की  मसाले दार बहुत ही स्वादिष्ट सब्जी!

मगर मुझसे कोई पूछे, मुझे  सर्वाधिक  क्या पसंद था ,… तो मुझे अम्मा के हाथ का चने का साग( जो जाड़ों के मौसम में मिलता और बनता था) बहुत प्रिय था!

जिसे बड़ी सी कढ़ाई में ढेर सारे लहसुन, मिर्च के साथ अम्मा छौंक देती थी… जो बड़ी देर तक धीमी धीमी आंच पर पकता था।

उसका अप्रितम स्वाद, मेरी जबान से आज भी हटता नहीं है.. और पूरे घर में उसकी सोंधी खुशबू फैली होती वो अलग।

मैं अपने पति देव के साथ, उनकी सर्विस के चलते उनके तैनाती स्थल ( पोस्टिंग) पर , ज्यादा तर घर से दूर रही, मगर  त्यौहार और अनेक अवसरों पर घर आती रहती थी।

सबके साथ…. बड़े से परिवार में ( मिलजुल कर)  त्यौहार मनाने का

एक साथ मिलकर पूजा करने, ढेर सारा प्रसाद और खाना बनाने,जिसकी तैयारी बहुत सुबह से ही करना शुरू हो जाते थे

दीपावली और होली पर कई दिन पहले से ढेर सारे पकवान, गुझिया,खुरमा,मठरी,बेसन की बर्फी, नमकीन….. परात भर भर कर… किसी हलवाई की तरह बनाई है।

घर में आने जाने वाले मेहमानों को भाग भाग कर नाश्ते की प्लेटें पहुंचाने…. और सब कह दें कि बहुत अच्छा बना है.. सुनकर मिलने वाले सुकून की बात ही और थी।

त्यौहारों पर ढेर सारा खाना बनाने…

फिर पूरे परिवार को पंगत लगा कर परोसने ( और  सबका बड़ों से डांट खा कर ढेर सारा काम करने का) अलग ही मजा होता  था.. जो अब सिर्फ स्मृतियों में शेष है।

अपने ( इसी छोटे से) जीवन में कितना कुछ हम देखते हैं… कितने अनुभव इकट्ठे होते हैं…जो कभी ( पूरे वजूद के साथ था… वर्तमान था) वो .  आज  कैसे ( सिर्फ)अतीत  में बदल जाता है…

ना ( लोग) बचते हैं… ना उनकी बातें… ना उनका प्यार (  बस रह जाती हैं उनकी प्यार और डांट कर भी सिखाई गई शिक्षाप्रद बातें.)…

रह जाते हैं तो सिर्फ हम.. अपने वर्तमान के साथ… ढेर सारी यादों और अनुभवों का खजाना बन कर… बहुत सी बातें ,सीख, संस्कार.. अगली पीढ़ी को हस्तांतरित करते हुए।

सबको बताते हुए…. ढेर सारी बातें,.. यादें!!

इस कहानी को भी पढ़ें: 

ओढ़नी  – कमलेश राणा

बड़ों से सुनते थे उनके समय के ढेरों अनुभवों से जुड़े किस्से

हमारे जमाने में ऐसा ऐसा होता था……

उफ़

ये बड़े ( बूढ़े) लोग भी ना

कितना अपने उस जमाने के किस्से सुनाते हैं

तब ऐसा लगता था

क्या पता था .. कभी हम भी अपने गुज़रे हुए जमाने के किस्से सुनाएंगे ( लिखेंगे)

सच ही है

गुज़रा हुआ जमाना, आता नहीं दोबारा…….

 विवाह तय होते समय भी किसी ने  मेरे विवाह को तय कराने वाले से कहा   भी था

 तुम  पर विश्वास करना मेरी बहुत बड़ी ग़लती थी… इतनी उच्च शिक्षित लड़की का विवाह कहां करवा दिया?… ऐसी छोटी सी जगह में.. ना जाने कैसा परिवार/ माहौल मिले??

 मैं यहां अपने अनुभवों की गठरी से निकाल कर सभी माता पिता से कहना चाहूंगी…  अपने बच्चों का विवाह करते समय बहुत ठोक बजाकर,एक एक परिस्थितियों का संदेही निगाहों से विवेचन करना….  उचित नहीं।  सबके हृदय में स्नेह सम्मान का ,भौतिक वस्तुओं से कोई तुलना नहीं की जा सकती … जिस परिवार में आपकी बेटी का  हर क्षेत्र में सहयोग, समर्थन दिया जाए… परस्पर सहयोग, सम्मान हो विवाह उस घर परिवार, में करें!!

इस कहानी को भी पढ़ें: 

 आखिर मेरी क्या गलती थी – सुषमा तिवारी

आपको पसंद आई तो हम अपने बहुत सारी खट्टी-मीठी यादें आपके साथ बांटेंगे!!

तो भैया!

वो क्या  कहते हैं ना… ऐसे ही बाल धूप में सफेद नहीं किए हैं

क्या कहा?

हम लोग ( जो अनुभवों का पिटारा बन  गए हैं) अब …. हो रहे हैं

अरे बुड्ढी होगी.. तेरी…

अपनी अम्मा ( सासू मां) की पवित्र यादों को कोटिश: नमन के साथ अपनी लेखनी को विराम देती हूं।

स्वरचित, सर्वाधिकार सुरक्षित

पूर्णिमा सोनी

#तुम पर विश्वास करना मेरी बहुत बड़ी ग़लती थी, कहानी प्रतियोगिता, 

Leave a Comment

error: Content is Copyright protected !!