Moral stories in hindi : “अरे भाग्यवान! माँ हो की कसाई हो!”
कितनी जोर से चांटा मारा है कि बेचारी बच्ची के गाल पर पांच उंगलियों के निशान पड़ गये हैं। हो सगी माँ .. लेकिन व्यवहार तुम्हारा सौतेली माँ की तरह ही रहता है !
माँ भी गुस्से में शुरू हो गईं और बोलीं-” हाँ हूँ मैं कसाई!” लक्षण देखा आपने इसका ! एक भी लड़की वाला गुण है आपकी बेटी में!
बेटी को अच्छा -बूरा, तौर-तरीका सिखाने के लिए बनना पड़ा तो मैं चुड़ैल कसाई सब बन जाऊँगी। आधा दिन चढ़ गया और यह महारानी पैर पसारे सो रहीं हैं। सहूर कब सीखेगी दुनिया- जहान के लोग अपनी दिनचर्या में लग गए और ये आपकी राजकुमारी लाडली…..कल को ससुराल जाएगी तो यही लक्षण साथ लेकर जाएगी क्या…..?
पिताजी गुस्से में बोले-” हो गया ,हो गया अब रहने भी दो ससुराल ,ससुराल, ससुराल …. यह हर बात में ससुराल नाम का तकिया कलाम पढ़ कर थकती नहीं हो तुम ! इतनी छोटी-सी उम्र में बेचारी को ससुराल का पहाड़ा याद करवाती रहती हो । जैसे ससुराल न हुआ जहन्नुम हो गया।
माँ भी तेवर में थी बोलीं आप बेकार की तरफदारी मत किया कीजिए। इसका दिमाग और सातवें आसमान पर चढ़ जाता है। वह भुनभुनाते हुए रसोईघर में चली गईं।
पिताजी सुबह की सैर करके लौटे थे और रोज की तरह मुझे प्यार से पानी और चाय लेकर बाहर बुला रहे थे। जब कुछ देर तक मैं बाहर नहीं निकली तो वह खुद ही अंदर चले आए। मुझे मूंह लटकाये देख पूछ बैठे कि क्या हुआ बेटा! प्यार से अपने दोनों हाथों से चेहरे को उपर उठाया जैसे ही उनकी नजर बेटी की आंसुओं पर गया सीधे माँ पर बिफर पड़े थे।
पिताजी माँ को डांट रहे थे और मैं उनकी सहानुभूति देख कर और जोर से सुबकती हुई…..चादर से मूंह ढककर आराम से पसर कर सो गई।
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यह लगभग हर रोज की कहानी थी। माँ की टोका- टाकी हमेशा जारी रहती थी। मेरे हँसने बोलने उठने बैठने सब पर उनकी पैनी नजर रहती है। मजाल है जो कभी ठहाका लगाकर हँसने दिया हो। गलती से अगर उनके कान तक हमारी हँसी पहुंच भी गईं तो फिर वही दैत्य नुमा ससुराल… ।
भैया भी माँ से उलझ जाते थे -” क्या माँ तुम भी इसे हर वक़्त जेलर की तरह ससुराल का भय दिखलाती रहती हो! जैसे ससुराल कोई जेल हो!”
माँ तुनक कर बोलती-” बड़ा आया बहन का पक्ष लेने वाला । चले जाना दहेज में उसके ससुराल। सास का नसीहत सुनने!”
“ओह माँ बस भी करो!”
“नहीं जायेगी मेरी बहन जेलखाना यानी ससुराल में ! समझ गई ना!”
“चल- चल छोटी चल यहां से बरामदे में चलकर हंसते हैं। मैं भैया की बात सुनकर और जोर से हंस देती थी और इस तरह भैया मुझे माँ के प्रकोप से बचा लेते थे।
मैं अपने हम उम्र की ल़डकियों को कहकहे लगाते देखती तो माँ पर बड़ा गुस्सा आता था। वे मुझे क्यूँ हर बात पर टोकते रहतीं हैं वो भी ससुराल के नाम पर! मेरे अन्दर ससुराल का एक खौफ सा बैठ चुका था।
जो भी हो,माँ ने मुझे डांट- डांट कर जिन्दगी के ढेर सारे “गुर” गुरु की तरह सिखाया। समय के साथ अपने आप मेरे सारे क्रिया -कलाप चुस्त-दुरुस्त हो गये थे। सीखते- सिखाते मैं कब बड़ी हो गई पता नहीं चला। बीए पास करते ही मुझे ससुराल भेजने का इंतजाम होने लगा और साथ में अपने घर और पराये घर में फर्क़ समझाया जाने लगा।
पिता जी को ज्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ी जल्दी ही उनके पसंद का दामाद मिल गया। देखते-देखते ससुराल जाने की घड़ी भी आ गई। जोर शोर से शादी की तैयारियां शुरू हो गईं। घर के बाहर लाउडस्पीकर में गाना बज रहा था- “काहे को ब्याहे बिदेश रे लखिया बाबुल मेरे…..। मेरे दिल की धड़कन किसी अनजाने भय से जोर जोर से धड़कने लगा ।”
बिदा लेते समय पिताजी से गले लगकर मैं खूब रोई… वो भी रोए जा रहे थे और मुझे ढाढस बंधा रहे थे। और माँ जो मेरी रिंग मास्टर थीं …उतनी ही देर में तीन बार मूर्छित हो चुकी थीं।
भैया भी छुप छुप कर रो रहे थे मेरे आंसू पोंछ कहा-” तुझे कोई परेशानी हो या ससुराल में कोई कुछ बोले तो तुरंत फोन करना मैं हाजिर हो जाऊँगा।”
अंत में माँ मेरे आंसू पोछते हुए सख्त हिदायत देते हुए बोलीं-” बेटा एक बात गांठ बाँध ले आज से तेरा घर यहां नहीं है ,वहां है जहां तू जा रही है। कोशिश करना तेरी कोई शिकायत यहां तक नहीं पहुंच पाये। पूरे परिवार की इज्जत तुम्हारे हाथ में है और फुट -फुटकर रोने लगी। “
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मुझे ऐसा लग रहा था कि मैं किसी तीसरे लोक में जा रही हूं ।पता नहीं वापस लौट कर आऊंगी भी या नहीं तीसपर ससुराल नाम का खौफ अलग से था।
मैं घबराई हिरनी जैसी अपना घर -द्वार माँ-पिताजी और भैया से बिछड़ कर अनजाने ससुराल के डगर पर चल पड़ी। रास्ते भर सबको याद करके रोती रही। साथ में जो भी थे वो समझाते रहे कि चुप हो जाओ पराये घर थोड़ी न जा रही हो!
ससुराल की देहरी पर पहुँची तो डर के मारे और सिकुड़ गई। वहां सब बार -बार पूछ रहे थे क्या बात है बहू इतनी सहमी सहमी है!
एक यंत्र की तरह सारे के सारे रस्म -रिवाज निभा लिए गये। घर भर में जितने बड़े थे सबके पाँव छुने के बाद सासू जी को मूंह दिखाई के लिए बुलाया गया। नाम सुनते ही पूरे शरीर में ठिठुरन सी होने लगी जैसे कसाई को देख गाय की होती है लगभग वैसी ही हालत मेरी थी । पहली बार में ही वह मुझे उठाने लगीं लेकिन मुझे याद था कि सास का पैर पांच बार छुना है। सांस रोके पांच बार मैंने उनके पैर छुए। उम्मीद के विपरित उन्होंने मुझे पैर पर से उठाकर मेरे माथे को सहला दिया और बोलीं-” हो गया,हो गया ! मैं स्तब्ध थी!! ये मेरी सास ही थी मुझे लगा पता नहीं क्या कह देंगी…!
दूसरे दिन माँ के सिखाये अनुसार चार बजे उठकर नित्य क्रिया से निवृत्त होकर किचन में पहुँची। बर्तनों के खटर -पटर सुनकर घर के लोग उठ बैठे। कुछ लोग आश्चर्य से मुझे देख रहे थे। सबकी नींद हराम हुई थी।
तभी सासू माँ आ गईं बोलीं-” क्या हो रहा है सुबह -सुबह!”
मैंने डरते-डरते बताया कि माँजी मैं आप सभी के लिए चाय बनाने आई थी ।सुनते ही उन्होंने मेरे दोनों हाथों को थाम लिया और बोलीं-“” इन मेंहदी लगे हाथों को कुछ दिन तो आराम करने दो।”
फिर तो इन हाथों को ताउम्र काम ही करने हैं। मुझे जबरदस्ती उन्होंने अपने कमरे में भेजदिया। । मैं कुछ समझ नहीं पाई और कमरे में लौट कर आ गई।
कुछ दिन बाद धीरे-धीरे सभी मेहमान चले गए। घर खाली खाली लगने लगा है। मेरा मन बिल्कुल भी नहीं लग रहा था। सासू माँ ने मुझे कमरे से बाहर बुलाया और बोलीं-” बहू तुमने अपनी माँ से बात की ।”
मेरे नहीं में गर्दन हिलाते देख बोलीं-” लगाओ फोन समधन जी को आज मैं बात करूंगी ।”
सुनते ही मेरा दिल जोर से धक -धक करने लगा। पता नहीं माँ से मेरा क्या शिकायत करेंगी। मेरे हाथ पांव फूलने लगे थे। मैंने टेबल पर रखे टेलीफोन का नंबर डायल कर सासू माँ को दिया और खड़े- खड़े उंगलियों को दांत से काटने लगीं गई ।
उधर से माँ की आवाज थी वह घबड़ाते हुए बोलीं-” कोई गलती तो नहीं हुई बेटी से समधन जी!”
सासू माँ गंभीर लहजे में बोलीं-“” हाँ एक गलती तो की है आपकी बेटी ने!”
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“जी!” क्या गलती हुई हमारी बेटी से!हम माफी मांग लेंगे बताइये मुझे!बिल्कुल ही नासमझ है वह!”
सासू माँ ने मुझे अपने पास बुलाया ।मैं थर -थर कांप रही थी।
वह हंसते हुए बोलीं-” इसकी यही गलती है कि इसने सप्ताह दिन में एक बार भी आपसे बात नहीं की और और न अपने अजनबी ससुराल के बारे में आपको बताया ।”
“वैसे हमें आप से भी शिकायत है!”
माँ बोलीं-” जी बताइये आपकी शिकायत हम सिर माथे पर लेंगे। “
सासू माँ बोलीं-” शिकायत यह है कि इतनी प्यारी और सुघड़ बेटी को बहुत देर से मेरे घर भेजा और जोर से हंसपड़ी ! “
मुझे पास बुलाया और अपने स्नेहिल आँचल से मेरी आंसुओ को पोछते हुए बोलीं-” बेटा रोते नहीं सास भी माँ ही होती है। है ना!!
स्वरचित एंव मौलिक
डॉ अनुपमा श्रीवास्तवा
मुजफ्फरपुर,बिहार
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