‘ स्वार्थी नहीं बनना है ‘ –  विभा गुप्ता

 ‘ये क्या! जेठानी जी ने फिर से केवल अपने लिए ही चाय बनाई है।अरे,मेरे लिए ना सही,कम से कम बाबूजी के लिए तो बना देती।माँजी थीं,तब की बात और थी, लेकिन अब वे नहीं है तो क्या वे इतना भी नहीं कर सकतीं हैं।’ बुदबुदाते हुए मैं अपने लिए और बाबूजी के लिए बिना चीनी की चाय बनाने लगी।

             वैसे तो इस घर में आये हुए मुझे सिर्फ़ पाँच ही साल हुए थे लेकिन ऐसा लगता था, जैसे कि एक उम्र बीत गई हो।रसोई से लेकर साफ़-सफ़ाई करना, बाबूजी(ससुर जी)को दवा देना,उनके पैरों की मालिश करना,पौधों को पानी देना , सब मेरी ज़िम्मेदारी थी।उस पर से पतिदेव को दफ़्तर जाना है तो उनके लिए समय पर लंच तैयार करके देना।वैसे तो एक नौकर और बाई थी मेरी हेल्प के लिए लेकिन उन दोनों को ही जेठानी जी अपने काम में उलझाए रखती थीं।

           जेठानी जी का प्रवेश मुझसे तीन वर्ष पहले हुआ था लेकिन आज भी नई- नवेली दुल्हन की तरह सजी-संवरी रहती हैं।क्यों न हो, सुना है कि मायके से एक ट्रक दहेज लेकर आईं थीं।सासूजी ने शुरु- शुरु में तो धनवंती बहू को सिर पर चढ़ा दिया। जेठानी जी भी कम नहीं थी, ऐसी चढ़ी कि आज तक नहीं उतरीं।मैं आई तो सासूजी को बहुत सहारा मिला,दो साल पहले बाबूजी सीढ़ियों से गिर गये थें, महीना भर प्लास्टर चढ़ा रहा था,उसके बाद से ही उनका चलना-फिरना काफ़ी कम हो गया।माँजी ही उनकी देखभाल करतीं थीं, पिछले साल उन्होंने हमेशा के लिये हमसे विदा ले लिया तो अब बाबूजी को भी मुझे ही संभालना पड़ता था।

           मैं जानती थी कि जेठानी जी से कुछ भी कहना बेकार है, सो माँजी के देहांत के छह महीने बाद ही मैंने बाबूजी द्वारा जेठानी को कहलवा दिया कि सुबह की चाय-नाश्ता वे बना दिया करे, उसके बाद का मैं संभाल लूँगी।उस वक्त उन्होंने तपाक से ‘हाँ ‘ कह दिया लेकिन सप्ताह भर बाद ही अपना रंग दिखाने लगी।अपनी चाय बनाकर चल देती और नाश्ते के नाम कभी टोस्ट तो कभी दलिया बनाकर खानापूर्ति कर देती।बाबूजी को ये आधुनिक नाश्ता भाता नहीं था।सो मैं ही बना देती थी।




              लेकिन आज फिर से उनका वही रवैया देखकर मैंने भी स्वार्थी बनने का ठान लिया।आखिर घर उनका भी है, बाबूजी की जायदाद में तो सबसे पहले हिस्सेदारी करेंगी तो भई सीधी सी बात है, सेवा करोगी तभी तो मेवा मिलेगा ना और मैं बन गई स्वार्थी।

             अपने लिए चाय बनाती,अपने पति को प्यार से लंच बनाकर देती।हल्की-सी सफ़ाई करके आराम से एकता कपूर के सीरियल देखती।मैंने देखा कि बाबूजी को चाय-दवा समय पर नहीं दी जा रही है, पौधे बिन पानी प्यासे हैं लेकिन मुझे क्या,मैं अब हाथ हिलाने वाली नहीं।

          एक दिन दोपहर को आँख लग गई, सपने में बाबूजी कहने लगे, ” बहू चाय ”  मूली-पालक सहित गुलाब का पौधा बोला,” भाभी, कितनी तेज धूप है, थोड़ा तो पानी दे दो ” गौ माता रोटी के लिये रंभाने लगी…और मेरी नींद खुल गई।देखा,बाबूजी बड़ी आस से मेरी तरफ़ देख रहें थें।बगीचे में सबको उदास देखकर मेरी आँखें नम  हो गई। बस फिर क्या था, मैंने अपनी साड़ी का पल्लू कमर में कसा, गैंस जलाकर बाबूजी के लिए चाय का पानी चढ़ाया और पाईप को नल से लगाकर धीरे से खोल दिया।मैंने निश्चय कर लिया कि मुझे कोई स्वार्थी-वार्थी नहीं बनना है,जेठानी जी को जो करना है, करे।मुझे तो बस निस्वार्थ अपना कर्तव्य निभाना है।

                              —- विभा गुप्ता

 

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