किस्मत का अनोखा खेल – डॉ. पारुल अग्रवाल

नन्ही सी फ्रॉक पहनकर घूमने वाली कृति,आज दुल्हन के लिबास में सजी धजी ऐसे लग रही थी कि जैसे कोई अप्सरा उतर आई हो। संध्या की तो जैसे जान बसती थी उसमें, विदाई के समय मां-बेटी का एक दूसरे से अलग होते हुए बुरा हाल था। पर कहते हैं ना कि ये विदाई ऐसी विदाई है जिसमे अपने जिगर के टुकड़े को खुद अपने ही हाथों किसी दूसरे के आंगन की शोभा बनाने के लिए देना होता है। कृति की विदाई हो गई,संध्या को ऐसा लगा जैसे उसके शरीर का कोई हिस्सा उससे दूर चला गया हो।

 पर कहीं ना कहीं उसके दिल में संतोष था कि उसने अपनी ज़िम्मेदारी को अच्छे से पूरा किया था और किस्मत ने उसके साथ जो अनोखा खेल दिखाया था उसका डटकर सामना किया था।असल में कृति संध्या की खुद की बेटी नहीं थी, वो उसके पति की बेटी थी। आज संध्या को अपनी ज़िंदगी के 25 साल पहले के समय याद आ गया जब वो पूरी तरह से टूट चुकी थी। वो ऐसे इंसान जिसको वो अपनी दुनिया समझती थी मतलब अपने पति नितेश के धोखे का शिकार हुई थी। 

हुआ यूं था कि आज से लगभग 28-29 साल पहले संध्या नितेश की दुल्हन बनकर अपनी ससुराल आई थी। ससुराल में ननद, सास ससुर और उसके पति को मिलाकर कुल चार लोग थे, सब बहुत अच्छे और भले थे। पति नितेश का भी बहुत अच्छा कारोबार था जिसके सिलसिले में उसे देश-विदेश के कई शहरों में आना जाना लगा रहता था। नितेश थोड़ा राशिक मिजाज़ का था पर उसकी लच्छेदार बातों से कभी भी संध्या को उस पर कोई शक नहीं हुआ । 

इसी तरह शादी के तीन साल बीत गए। खुद संध्या दो साल के बेटे की मां बन गई। संध्या घर गृहस्थी में पूरी तरह उलझी थी। एक तरफ दो साल का छोटा बच्चा, बूढ़े सास ससुर और ननद की भी ज़िम्मेदारी। इस बीच में नितेश के भी बाहर के टूर बहुत बढ़ गए थे। एक-दो बार संध्या ने पूछा भी पर नितेश ने कारोबार को आगे बढ़ाने की बात कर संध्या को चुप करा दिया। ऐसे ही एक बार नितेश का पूरे एक हफ्ते का बैंगलोर का व्यापारिक टूर का कार्यक्रम बना। अभी दो-तीन दिन ही बीते थे कि घर पर गोवा के किसी हॉस्पिटल से नितेश के बहुत भयंकर दुर्घटना की खबर आई। पहले तो सब चौंके कि नितेश तो बैंगलोर गया था फिर गोवा कैसे? पर उस समय इन बातों के सोचने समझने का समय नहीं था। 



पूरा परिवार बताए गए गोवा के हॉस्पिटल पहुंचा। वहां जाकर जो पता चला उसके बाद पूरे परिवार के पैरों तले जमीन ही खिसक गई। दरअसल वहां पता चला कि नितेश खतरे से तो बाहर है पर उसके शरीर पर कई सारे फ्रैक्चर हैं इसको ठीक होने में अभी 4-5 महीने लग जायेंगे और साथ-साथ उसकी पत्नी जो कि आठ महीने की गर्भवती थी वो चल बसी। किसी तरह डॉक्टर्स से गर्भस्थ शिशु कन्या को बचा लिया था। जिसको समय से पहले पैदा होने की वजह से नर्सरी में रखा था। 

परिवार वालों के लिए नितेश के दूसरे पत्नी होने की खबर किसी सदमे से कम नहीं थी। नितेश ने सबसे छुपाकर अपनी पसंद से दूसरी शादी भी की हुई थी, बैंगलोर से वो अपनी दूसरी पत्नी के साथ 2 दिन के लिए गोवा आया था, जब ये हादसा हुआ। इन सब बातों से संध्या तो पत्थर हो गई थी उसे नहीं समझ आ रहा थी कि वो अपने पति की जान बचने की खुशी मनाए या फिर किस्मत ने जो उसके साथ एक अनोखा खेल खेला था उसका शोक मनाए।किसके सामने जाकर वो अपना दुख सुनाए क्योंकि मां-बाप उसके काफी पहले ही चल बसे थे, मायके के नाम पर एक भाई-भाभी थे वो भी उसकी शादी के बाद नाम मात्र के लिए ही संबंध रखते थे। सास-ससुर अच्छे थे, वो उसकी मनोदशा समझ रहे थे। उसकी हालत उन लोगों से देखी नहीं जा रही थी।

 ससुर के कहने पर सास संध्या को भगवान के मंदिर में लेकर गई। उसके सिर पर हाथ फेरते हुए कहने लगी कि इस घड़ी में संध्या जो भी निर्णय लेगी वो उनको मान्य होगा क्योंकि उनके बेटे की इस तरह करतूतों से तो वो भी अनजान थे। वे हर हालत में बेटे का साथ न देकर संध्या का साथ देंगे। उसकी बेटी को भी अनाथ आश्रम या किसी सामाजिक संस्था में देने की कोशिश करेंगे। संध्या को उनकी बातों से थोड़ी हिम्मत बंधी। सब कुछ ठीक से विचारने के बाद संध्या ने दिल पर पत्थर रखकर जिंदगी की इस अचानक घटित हुई घटना से समझौता करने की सोची। संध्या ने जब नर्सरी में लगे शीशे से उस बच्ची को देखा तो उसे लगा कि इन सबमें उस मासूम का क्या दोष? एक अनाथ का जीवन कैसा होता है वो भली भांति जानती थी। साथ-साथ उसे ये भी लगा कि अगर वो अपने पति से अलग होने का निर्णय ले भी लेती है तो उसके 2 साल के बेटे के सर से भी पिता का साया हट जायेगा।



 उसकी ननद जिसकी आगे आने वाले समय में शादी होनी है उसके लिए भी अच्छा परिवार मिलने में दिक्कत आएगी। इसलिए उसने ये भी फैसला किया कि वो अपने पति के साथ कानूनी तौर पर अलग नहीं होगी। एक ही घर में रहेगी पर उनके बीच पति-पत्नी का कोई संबंध नहीं रहेगा क्योंकि जिस इंसान को उसने अपना सर्वस्व सौंपा,उस इंसान ने उसका विश्वास तोड़कर आज उसकी आत्मा को छलनी कर दिया था। पर अब संध्या अपने परिवार की सुख-शांति बनाए रखने के लिए आज उसे ये समझौता करना ही पड़ेगा। अब उसने एक फैसला और लिया क्योंकि अभी पति को ठीक होने में थोड़ा वक्त लगना था इसलिए उसके बाद वो अपने शहर जाकर वो बाकी लोगों को अपने बेटी होने की खबर देंगे। 

संध्या की योजना सफल रही किसी बाहर वाले को उसके बेटी पैदा होने की खबर पर कोई शक नहीं हुआ।संध्या ने बच्ची का नाम कृति रखा क्योंकि उसके लिए तो वही उसकी कृति थी। यहां तक कि उसने दोनों बच्चों को बिल्कुल एक जैसा प्यार दिया। उसके कभी अपने बेटे तक को ये भनक नहीं लगने दी कि कृति उसकी सगी बहन नहीं है। कृति को अपने संस्कार दिए।

 उसके पति ने भी संध्या से माफी मांगनी चाही तब संध्या ने कहा कि उसको तो वो माफ नहीं कर पाएगी। उसने तो सिर्फ अपने बच्चों की खातिर ये समझौता किया है।एक बच्चे के लिए मां और बाप दोनों का ही साया जरुरी है,अपने स्वार्थ के लिए वो अपने बच्चों के भविष्य से खिलवाड़ नहीं कर सकती थी।पर उसका स्वाभिमान भी उसे बहुत प्यारा है,इसलिए अब उन दोनों के बीच केवल समाज को दिखाने के लिए ही पति-पत्नी का रिश्ता रहेगा। 

वो अभी ये सब पुरानी बातें सोच ही रही थी तभी फोन की घंटी बजी और उधर से कृति का फोन था, जो अपनी मां से आज अलग होकर अपनी नई दुनिया बसाने चली गई थी। 

आज संध्या के चेहरे पर संतोष था कि उसने अपनी ज़िंदगी में समझौता जरूर किया पर अपना कर्तव्य भी पूरी ईमानदारी और निष्ठा से निभाया।

दोस्तों,जिंदगी में हम सभी को ही कुछ न कुछ समझौते तो करने ही पड़ते हैं।ऐसा कोई भी नहीं होगा जिसने कभी कोई समझौता ना किया हो।संध्या का समझौता तो हम सभी के लिए एक मिसाल है पर अगर देखा जाए तो हमारी परिवारवादी संरचना ही समझौतों पर टिकी है। मेरी सभी पाठक से विनती है कि मेरी कहानी पढ़ने के बाद अपनी प्रतिक्रिया जरूर दें।

#समझौता

डॉ. पारुल अग्रवाल

 

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