कोयल की कूक – मुकेश कुमार (अनजान लेखक)

कभी ऐसा हुआ आपके साथ? जब आप हर जगह से थक कर एकांत की तलाश में भटक रहे हों, किसी वीरान जगह में पहुँच गए हों?

चारों तरफ़ सन्नाटा पसरा हो और अचानक से महुआ के पेड़ पर बैठी कोयल कूकने लगे।

आपका सारा ध्यान कोयल अपने तरफ़ आकर्षित कर लेगी और आपको पता भी नहीं चलेगा।

वो कोयल खुद महुआ के कमजोर डाल पर बैठ आपको सुकून दे रही हो। कोयल खुद तन्हाई में बैठकर आपको निहारने की कोशिश करे। अपने दर्द को दरकिनार कर आपके सामने चहके कूके।

मैं पूरे विश्वास से कह सकता हूँ की आप सब बीती बातों को भूल कर कोयल की कूक को दोहराने की कोशिश करने लगेंगे।

इसी तरह का कुछ योगेश के साथ चल रहा था।

योगेश एक सफ़र पर था, बिल्कुल ख़ामोश, चिड़चिड़ाया सा। सफ़र के अगले पड़ाव में सुमन भी उसी सफ़र रूपी  बस में सवार हो गई।

बातों का सिलसिला आहिस्ता-आहिस्ता रफ़्तार पकड़ने लगा। उस वीराने सफ़र में सुमन रूपी कोयल की कूक महसूस होने लगी। उस सफ़र में कुछ दूर तक सुमन भी ख़ामोश ही थी। शायद वो भी किसी वीराने सफ़र पर थी।

बातों ही बातों में कुछ दर्द सुमन के छलक पड़े तो कुछ दर्द योगेश के। दोनों ने एक-दूसरे के दर्द को भरपूर सम्मान देने की कोशिश की। अन्ततः दोनों को महसूस होने लगा की सफ़र में अपने दर्द को दरकिनार कर सफ़र के अच्छे पल को तवज्जो देना चाहिए। बाक़ी दर्द का क्या है? वो तो ज़िंदगी का हिस्सा है, पिछे मूड कर उसे ठीक तो कर नहीं सकते तो क्यों न उसे वहीं रोक दिया जाए।

सफ़र में सुमन जैसी कोयल का साथ मिल सकता है ऐसा तो योगेश ने सपने में भी नहीं सोचा था। वैसे तो सफ़र आधा पार  हो चुका था, लेकिन दोनों ने एक-दूसरे का चेहरा भी सही से नहीं देखा था। बस दोनों के बातों ने योगेश को मुस्कुराने पर मजबूर कर दिया था। योगेश मुस्कुराने का सोच भी नहीं पा रहा था अपनी उदासी में लेकिन कोयल की कूक से मंत्रमुग्ध हुए बिना कोई रह पाया है कभी?



हाँ कोयल ही तो है सुमन, पता नहीं कहाँ से आई, किस ओर उड़ान भरेगी। लेकिन योगेश जैसे महुए के पेड़ पर बैठ कर कूक रही है।

शाम का अंधेरा इतना बढ़ चुका था की बस के अंदर अपने हाथ नहीं दिख रहे थे तो चहकती-कूकती कोयल को कैसे देख पाता? बस उसके होने का एहसास और उसके छोड़े गर्म साँस को महसूस कर पा रहा था। वैसे तो सुमन ने बस की सीट को पीछे कर लिया था लेकिन जब वो कोयल कूकने जैसी बात करती तो उसकी गर्म साँसें योगेश के गाल छु जाती।

उस कोयल में कुछ तो ख़ास बात ज़रूर थी वरना मायूस योगेश के चेहरे पर मुस्कान मानो तपती धूप में बारिश होने जैसी बात।

योगेश की ख्वाहिश थी बस इस शाम को यही रोक ले। या फिर रोक ले कोयल को अपने महुए के पेड़ पर हमेशा के लिए।

बस के आगे न जाने क्या आ गया, ड्राइवर ने झटके से ब्रेक लगा दिया।

फिर पीछे लदक कर बैठी कोयल झटके से आगे आ गई। सुमन पुरी तरह से योगेश के कंधे पर सिमट गई। सुमन की हथेली को पकड़ते हुए योगेश ने सँभाला। सुमन थोड़ा शांत हुइ तो योगेश के हथेली को कस कर पकड़ते हुए पीछे किए हुए सीट पर बैठ गई।

थी तो महज़ ये खुद को सँभालने की कोशिश परन्तु इस कोशिश ने मानो काले अँधेरे बादलों के नीचे कोई रौशनी बिखेर दी हो।

योगेश की धड़कनें तेज हो गई थी, कान के पीछे पसीने की लकीर बन रही थी।

सुमन का क्या हाल था यह बता पाना मुश्किल है, लेकिन कुछ देर के लिए उसका कूकना भी बंद हो गया था और बड़ी बड़ी आँखों में अचानक से हया की लाली उतर गई थी।

कुछ देर दोनों ही उसी पल में खोए रहे। आख़िरकार कोयल की कूक ने ही माहौल को सँभाला।

योगेश, तुम भी सीट पीछे कर लो न।

हाँ, कर लेते हैं।

सच पूछिए तो सुमन की नरम हथेली योगेश के पूरे रोम छिद्र को सिहरा गई। कोयल तो अभी कूक ही रही थी लेकिन सिहरन से योगेश अपनी आँखें खोल न पाया। बंद आँखों में ही कोयल को निहारता था और बस सफ़र को जारी रख चलते रही।

मुकेश कुमार (अनजान लेखक)

 

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