परख – भगवती सक्सेना गौड़

हरीतिमा से अचानक मेट्रो में उंसकी पुरानी सखी मिल गयी। पहले तो दोनो ध्यान से देखकर पहचानने की कोशिश करती रही फिर, रवीना ने हाथ बढ़ाते हुए कहा, “हरीतिमा हो ना, मेरी आँखें धोखा नही खा सकती।”

“सही पहचाना, कैसी हो।”

“बढ़िया।”

रवीना ने कहा, “मैं तो कॉलेज जा रही, प्रोफ़ेसर हूँ तुम कहाँ जा रही।”

हरीतिमा ने इशारे से एक युवक की ओर इशारा किया, मेरे हस्बैंड है, बाजार जाना है।

दोनो सखियों ने मोबाइल नंबर का आदान प्रदान किया।

दूसरे दिन से फ़ोन में घंटो नई पुरानी बातों का सिलसिला चलने लगा।

एक दिन दोनो ने रेस्टॉरेंट में लंच का प्रोग्राम बनाया और पहुँच गयी।

हरीतिमा ने पूछा, “घर मे कौन कौन है?”

रवीना बोली, “कोई नही, पिछले साल ही मम्मी नही रही, पापा पांच वर्ष पहले हमें अकेला छोड़ गए थे।”


“शादी नही करी क्या?

“नही यार, उम्मीदवार तो बहुत आये, कभी मैंने मना कर दिया, कभी उधर से संतोषजनक उत्तर नही मिला। मुझमें क्या कमी थी जो मैं समझौता करती। पूरे अर्धशतक की उम्र हो गयी, अभी तक दिल की बाते खुलकर किसी से नही की। आज कोशिश करती हूं। अब सुनो”

चाय नाश्ता ट्रे में सजाकर, कई बार मुझे भेजा गया। खाना बनाना आता है, सिलाई आती है, घर गृहस्थी की कई बाते पूछी गयी, बस यही नही पूछा गया, स्नातक में कौन सा डिवीज़न आया, नौकरी करना चाहती हो या नही।

मैंने जाना कि प्रत्येक लोगो को अपने मन लायक दुल्हन चाहिए, किसी ने नही सोचा, लड़की को कैसा दूल्हा चाहिए।

सारा शौक , सारी प्रतिभा रसोई के चूल्हे में जला दो, आपके क्या शौक है उससे लोगो को कोई मतलब नही, मैंने हमेशा मम्मी को भी यही सब झेलते देखा वहाँ किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता था। मुझे हमेशा लगा जैसे मम्मी उम्र कैद झेल रही हैं, बहुत कम खिलखिलाती थी, कोई जोक सुनकर भी हल्का सा मुस्करा देती।

कुछ वर्षों के बाद जानती हो हरीतिमा, मैने डॉक्टरेट की उपाधि पायी, कॉलेज में प्रोफेसर बन गयी। उसके बाद मैंने ही हर लड़के में नुक्स निकालना शुरू कर दिया। मेरा मन शादी से उचट गया, मैने विद्याथियों मे अपना सर्वस्व डुबो दिया, अपने आप को इतना थका डाला, कि बिस्तर पर गिरते ही नींद घेर लेती है। तुम बताओ कैसा चल रहा है, घर परिवार।


हरीतिमा ने कहा, “ज्यादा नही कहूंगी, परिवार के मन से चलो तो रानी, अपने मन को टटोलती हूँ तो उम्र कैद। हां, तीस वर्ष बाद अब बदलाव जरूर आ रहा है, मेरी बेटी ने पहले ही बोल दिया, मैं कोई वस्तु नही हूँ, जिसे सामने बैठा कर परखा जाए। कहीं आते जाते जिसको देखना है, देख ले, और जिसके साथ जिंदगी बिताना है, उससे पहले मैं भी दो चार बार मिलना चाहूंगी।

स्वरचित

भगवती सक्सेना गौड़

बैंगलोर

Leave a Comment

error: Content is Copyright protected !!