भरण पोषण – कंचन श्रीवास्तव

संजय ने जिस लड़की को पसंद किया उसी के साथ जीवन बिताने का फैसला भी कर लिया।

कहते हैं छुटपन से ही साथ रहे संजय और रेखा बचपन में दोस्त हुआ करते थे।पर ये दोस्त बढ़ती उम्र के साथ कब मोहब्बत में बदल गई ,पता न चला।

जबकि वो पढ़ने विलायत चला गया और ये यही पर रहकर घर के काम काज में हाथ बंटाने लगी।

बंटाती न तो करती भी क्या, बचपन में पढ़ाई छूटने का कारण भी यही था।जब राधिका असाध्य रोग से पीड़ित होकर देह त्याग दी।और जब देह त्याग दी तो राम ने अकेले रहने का संकल्प लिया।

और किसी तरह जिंदगी गुजार दी।

वो बात अलग है कि आर्थिक तंगी के कारण पेट और तन ढकने के अलावा कुछ और न सोच सकता।

इसी लिए बीच में ही उसे पढ़ाई छोड़नी पड़ी।

पर कहते हैं ना की प्रीत जाता पात, ऊंच नीच,अमीर गरीब,सकल सूरत कुछ नहीं देखती।

वह वहीं यहां भी हुआ ।दोनों की प्रीत परवान चढ़ी और जब ये पढ़ने चला गया तो ये इसका इंतजार करने लगी।

बस खत का ही सहारा रहा।धीरे धीरे इसका स्थान मोबाइल ने ले लिया।

फिर तो हर रोज दिन में चार बार बात भी होती और वीडियो कालिंग भी।

समय बीतता गया जुड़े तो बहुत लोग पर किसी के साथ आत्मियता न बन पाई।और वो लौटकर  वापस आया तो  ब्याह इसी के साथ किया।

पर कहते हैं ना कि प्रेम और विवाह में बड़ा अंतर होता है।

जब रोज़ साथ रहने लगो तो वो चीज नहीं रह जाती जो कभी कभी मिलने में होती है।

और सबसे बड़ी बात जिम्मेदारियां बहुत बढ़ जाती है।



ऐसे में कुछ लोग संभाल जाते हैं और कुछ लोग बिखर ,वही यहां भी हुआ,शादी तो हो गई पर बेटी होने के साथ साथ बढ़ती जिम्मेदारियों की वजह से ये चिड़चिड़ी हो गई।

जिसे इसकी बेटी सुनैना ने जब से होश संभाला शुरू से  ही देखा ।

कि मम्मी कितना भी खींझती पर पापा कुछ भी न बोलते।

जो कि उसे चुभती। क्योंकि थे तो वो उच्च पद पर आसीन पर एक्सीडेंट की वजह से उनकी एक टांग काट दी गई।

जिसका सीधा असर अर्थव्यवस्था पर पड़ा।

पर वो हिम्मत न सारे और एक छोटी सी कंपनी में कम तनख्वाह पर काम करके किसी तरह परिवार को पाल रहे।

ऐसे में भाई की शादी भी कर दी।

और जब उसे प्रसव वेदना हुई तो वो वहां मौजूद थीं।

खैर कुछ देर की जद्दोजहद के बाद एक बेटी को उन्होंने जन्म दिया।

जन्म उन्होंने दिया पर दिलों दीमाग जाने क्यों मरा दहल गया वो इसलिए कि मम्मी की तरह ही भाभी भी कम पढ़ी लिखी भाई की पसंद थी।

वो सोचने लगी।

सच स्त्री तो कुछ घंटों की प्रसव वेदना सहकर मां बनती है पर पुरूष तो पूरी उम्र खामोशी से परिवार का भरण पोषण करता है और चुप रहकर सबकी कमियों को भी नज़र अंदाज़ करता है।

भले आज स्त्री और पुरुष कंधे से कंधा मिलाकर चल रहे हैं पर आज भी समाज का दो तिहाई हिस्सा पुरूषों पर निर्भर है।

कहीं न कहीं भाभी के प्रसव के बाद वो सोचने पर मजबूर हैं कि स्त्री प्रसव वेदना एक दो तीन बार सहती है पर पुरूष परिवार के भरण पोषण की जिम्मेदारी ताउम्र निभाता है।

सोचती हुई पास खड़े पापा के सीने से लिपट कर बिफर पड़ी।

 

स्वरचित

कंचन श्रीवास्तव

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