नहीं, ये कहानी नहीं है. कहानी तो बिलकुल नहीं है. साहित्य वाहित्य का भी इस से कुछ लेना देना नहीं. इंसान के भीतर, जन्म से लेकर उम्र भर तक जो ग्रंथियां बनती बिगड़ती रहती हैं, जिनमे से कई अनसुलझी गुंन्थियाँ बन जाती हैं
और उन पर जीवन भर एक बड़ा वाला अलीगढ़ का ताला पड़ा रहता है, उन्ही में से एक का विश्लेषण है ये. विश्लेषण क्या, बस एक इत्तेफाक है कि एक दिन अचानक एक ताला खुल गया और उस अंधेरी खोह के धुंधलके में जो दिखाई दिया वो हैरानी से चीख निकाल देने वाला था.
जीवन भर हमारे चरों तरफ एक भीड़ होती है और हम आश्वस्त और निश्चिन्त रहते हैं कि हम एक सभ्य, सुसंकृत और संवेदनशील समाज में जी रहे हैं. मगर क्या ये भयानक कडुवा सच नहीं है कि इसी भीड़ के लोग साम्प्रदाइक दंगों में लोगों को जिन्दा जलाकर खुश होते हैं. तड़पते लोगों की चीख में उन्हें सुगम संगीत सुनाई देता है.
इस दारुण कथा को कभी कागज पर न उतारने का निश्चय किया था किन्तु आज लगा कि दार्शनिकों को और मनोवैज्ञानिकों को मानव मन की इस दुरूह सुरंग में झांकने का अवसर भी मिलना चाहिए.
बरसों पहले दास कबीरा कह गए थे कि ‘माया महा ठगनी हम जानी’. पैसा दुनिया का सबसे खतरनाक बैक्टीरिया है जो इंसान के दिल और दिमाग पर एक साथ हमला करता है. ‘कनक कनक ते सौ गुना मादकता अधिकाय’.
पैसा आयेगा तो अपने साथ सौ व्याधियां लाएगा. अनियंत्रण, और विलासिता लाएगा. दम्भ और अहम् लाएगा. प्रदर्शन की इच्छा लाएगा. मन की चंचलता और जबान की चपलता लाएगा. पूरी दुनिया को जीत लेने की लालसा लाएगा. अजी लाख दोष हैं इस माया में मगर चाहिए तो सब को. इसकी लिप्सा से बड़ा दुर्गुण् और क्या हो सकता है.
छोटे कस्बों का एक बंधा हुआ समाज होता है. सबके एक दूसरे के प्रति प्यार मुहब्बत, नफ़रत अदावत या स्पर्धा के जो भी रिश्ते होते हैं, खुले कागज पर लिखी इबारत की तरह स्पष्ट, पारदर्शक और दर्शनसुलभ होते हैं.
उत्तरप्रदेश के एक बड़े से कसबे में, कई पीढ़ियों से दर्शन मिश्रा और कनक चंद झा अड़ौस पड़ोस में रहते थे. एक जैसे धरातल पर अंकुरित हुए दोनों परिवार आज भी कई मामलों में एक समान थे. एक समान पूजा पद्यति, जाती और विचारों के कारण दोनों परिवारों की बहुओं में, बेटे बेटियों में और बुजुर्गों में खूब छनती थी.
दिखावे के लिए तो दोनों परिवारों में बड़े मधुर रिश्ते थे किन्तु भीतर से दर्शन मिश्रा की गरीबी और कनक चंद की आर्थिक ऊंचाइयों ने दोनों के बीच एक अदृश्य लकीर सी खींच रखी थी. इतनी महीन कि किसी और को दिखाई नहीं देती थी.
पैसा हो और दिखाई न दे. गरीबी हो और छुपाई जा सके, ये दोनों बातें ही असंभव सी हैं. पहनावे में, त्योहारों और उत्सवों में, घर की साजसज्जा में, बड़े छोटे आवास में, बच्चों के स्कूलों के स्तर में, यहाँ तक कि कपड़ों के ब्रांड में, चिकित्सक, दूकानदार और मिठाई की दूकान की पसंद में भी पैसे का अंतर हर दिन हर पल अपनी छाप छोड़ता जाता है. शायद ये सब कुछ भी भीतर भीतर कुंठाओं का निर्माण करता रहता होगा.
कनक चंद के बेटे की शादी नैनीताल में व्यापार करने वाले एक पर्वतीय ब्राह्मण परिवार में धूम धाम से संपन्न हुई थी. सारे बाराती और दोनों परिवारों ने विवाह में शामिल होने के साथ साथ एक हिल स्टेशन का भी भरपूर आनंद लिया था. पूरे समाज ने देखा कि कनक चंद ने बेटे के विवाह में अगर सबसे अधिक सम्मान किसी को दिया तो वो उसका पड़ौसी और पुराना मित्र दर्शन मिश्रा और उसका परिवार ही था. बेटी के पिता से अपने पूरे परिवार के साथ, दर्शन मिश्रा की ‘मिलनी’ भी उतने ही सम्मान के साथ कराई गई थी जितनी स्वयं की.
जिस दिन बारात विदा होकर लौटने वाली थी, एक अजीब सी समस्या पैदा हो गयी. नैनीताल और उनके गृहनगर के मध्य रास्ते में मुरादाबाद शहर पड़ता था और मुरादाबाद में साम्प्रदाइक दंगा हो गया. कर्फ्यू लगा दिया गया और रस्ते का माहौल संवेदनशील और असुरक्षित हो गया. इतनी बड़ी बारात को रोका भी नहीं जा सकता था.
सुनश्चित किया गया कि बहु के गहने और दहेज़ की रकम बेटी के पिता के घर ही छोड़ दी जाय और स्थानीय पुलिस से रसूक के चलते बरात को विदा किया जाय.
शादी के दस दिन बाद कनक चंद के बेटे सुशांत ने अपनी नवविवाहिता को लेकर ससुराल जाने का कार्यक्रम बनाया. शादी के बाद बहु दो दिन ससुराल में रह भी लेगी. आस पास के प्राकृतिक स्थानों का भ्रमण भी हो जायेगा और जो सामान व नकदी ससुराल में छोड़नी पड़ी थी, उसे भी ले आएंगे.
मगर इतनी बड़ी रकम और गहने लेकर दोनों का, लम्बा रास्ता तय करना सुरक्षित रहेगा क्या, वो भी उत्तरप्रदेश में. दोनों मित्रों में विचार मंथन हुआ. क्या करें. किस पर विश्वास करें.
अंत में तय हुआ कि सुशांत का मित्र और दर्शन मिश्रा का बेटा कार्तिक मिश्रा भी अपनी पत्नी के साथ नैनीताल जायेंगे. चार लोग होंगे तो यात्रा भी सुखद रहेगी और सुरक्षा और हौसला भी बना रहेगा. पुराना और विश्वसनीय ड्राइवर तो है ही.
नयी ससुराल में चरों मेहमानो की जमकर आव भगत की गयी. दो दिन का कार्यक्रम चार दिन में बदल गया. जमकर घुमक्कड़ी हुई और मंदिरों, झीलों और पर्वतों के दर्शन किये गए.
चौथे दिन भी घर से निकलते निकलते दोपहर हो गयी थी. पहाड़ी रास्ता मिलकर तीन सौ किलोमीटर का लम्बा सफर.
यदि आप साहस के साथ जीवन की मार्मिक ‘अनहोनियों’ को सहन करने की आत्म शक्ति न रखते हों तो इस किस्से को यहीं छोड़कर पलायन कर जाएँ, क्यों कि जो कुछ घटित होने वाला है वो वीभत्स और दुर्लभ है.
मुरादाबाद पार करते करते दिन ढल गया. अँधेरे और सुनसान रास्ते पर गाड़ी तेज गति से भागी चली जा रही थी. दोनों मित्रों और उनकी पत्नियों में अनौपचारिक हंसी ठट्ठा चल रहा था कि ….
अचानक एक भयानक आवाज के साथ गाड़ी किसी वाहन से टकरा गयी.
दर्शन मिश्रा के बेटे कार्तिक की तन्द्रा लौटी तो सबसे पहले अपने हाथ पाँव हिलाकर देखे. फिर धीरे से अपने शरीर को टटोलकर देखा. एक पाँव के पंजे में भयानक दर्द था. माथे से भी खून की एक लकीर बहकर कान की लौ तक आ गयी थी.
फिर उसने अपने चरों तरफ देखा. सबसे निकट उसकी पत्नी पड़ी हुई थी. कार्तिक ने इसकी नाक के पास हाथ लगाकर देखा. कोई स्वांस नहीं. वो मर चुकी थी. मित्र सुशांत का शरीर दो सीटों के बीच फंसा हुआ था. उसके भी प्राण पखेरू उड़ चुके थे. नव विवाहिता का जीवन भी दुर्घटना की भेंट चढ़ गया था. गाड़ी के अगले भाग के परखच्चे उड़ गए थे और ड्राइवर का शरीर तो साबुत भी नहीं बचा था.
मोबाईल का तो जमाना ही नहीं था इस लिए शहर से दूर इस निर्जन से हाइवे पर लगभग चालीस मिनट के बाद एम्बुलेंस और पुलिस पहुँच पायी थी.
पूरे कस्बे में भयानक हादसे की चर्चा थी और शोक की लहार दौड़ गयी थी. पांच यात्रियों में से चार, काल के गाल में समां गए थे. सैकड़ों लोगों ने एक साथ चार चिताओं का हृदयविदारक मंजर देखा था.
गाड़ी के भीतर से दहेज़ की रकम और गहने बरामद न हो पाना इस प्रकार की दुर्घटनाओं के बाद सामान्य बात है. राहगीर लूट सकते हैं और पुलिस …… पुलिस का चरित्र तो पूरी दुनिया में संदिग्ध है और भारत में …… वो भी उत्तरप्रदेश में! कनक चंद झा का परिवार छाती पर पत्थर रखकर बैठ रहा. जब बेटा और बहू नहीं रहे तो धन का क्या है। हमारा भाग्य.
हाँ. दुर्घटना के कई दिन के बाद एक युवा पुलिस अधिकारी और एक वकील कनक चंद्र झा के घर आये. उन्होंने कुछ कागजों पर दस्तखत कराकर एक छोटी सी पोटली मिश्रा जी की हाथों में थमा दी.
पोटली के भीतर दुलहन का मंगलसूत्र, हाथों की सोने की चूड़ियां, तीन चार अंगूठियां और कानो के बुँदे थे. कुछ हजार रुपये भी थे जो उन सब की जेबों से बरामद हुए थे. कनक जी ने प्रश्नसूचक निगाहों से उनकी और देखा और बोले “ये क्या है.
गाड़ी में तो एक बड़ी रकम और इन से कई गुना अधिक गहने मौजूद थे. अगर लूटने ही थे तो इन्हे ही क्यों लौटा रहे हैं. मेरा तो सब कुछ पहले ही लुट चूका है. सब कुछ के लिए छाती पर पत्थर रख लिया है तो ये भी सही. ले जाइये सब. बेटा बहू नहीं रहे तो ……..” और वो फुट फूटकर रोने लगे.
जब वे कुछ शांत हुए तो पुलिस अधिकारी ने धीरे धीरे कहना शुरू किया.
“देखिये झा साहब. इस प्रकार की सड़क दुर्घटनाओं के बाद सामान्यतः कुछ भी नहीं बचता है. सभ्य से दिखने वाले राहगीर ही महिलाओं के कानो को फाड़कर बालियां तक नौच कर ले जाते हैं. पुलिस में भी सब दूध के धुले नहीं बैठे हैं. वैसे भी आप ने जो कुछ गंवाया है उसके सामने ये सब कुछ भी नहीं है. किन्तु ………
बस एक बात आप से कहना चाहता हूँ. दुर्घटना के बाद सबसे पहले मैं और मेरी टीम ही वहाँ पहुंचे थे. उस समय तक वहाँ कोई नहीं था. जो सामान हमने सील किया और आप को लौटा रहे हैं, उसका भी अच्छा ख़ासा मूल्य है और किसी का इमान डुलाने के लिया पर्याप्त है.
अगर कोई बाहर का व्यक्ति वहां पहुंचा होता तो इन्हे भी क्यों छोड़ता. मैं आप से शपथ के साथ कहता हूँ कि घटना स्थल पर इसके आलावा कुछ भी बरामद नहीं किया जा सका था”.
लोग तो कहते हैं कि दुर्घटना के छह माह बाद दर्शन मिश्रा ने मुख्य बाजार में जो दूकान खरीदी है, उसका ताल्लुक उसी दुर्घटना से है.
कुछ दूसरे अनुभवी, पुराने ज़माने के बुजुर्गों का मानना है कि जब किसी की पत्नी की मृत देह सामने पड़ी हो तो कोई ऐसा सोच भी कैसे सकता है भला.
अब सच क्या है ये तो राम जाने, मगर कनक चंद झा और दर्शन मिश्रा के संबंधों के बीच पड़ी अदृश्य लकीर अब एक ऊंची दीवार में तब्दील हो गयी है.
———- रवीन्द्र कांत त्यागी ———