रिश्ते अहंकार से नहीं,त्याग और माफ़ी से टिकते हैं – गीता यादवेन्दु : Moral Stories in Hindi

त्याग और माफ़ी दो ऐसे शब्द हैं जिन्हें आप जितना भी करते जाओ कभी उनकी सीमा ख़त्म ही नहीं होती क्योंकि जिन्हें आपके त्याग और माफ़ी की कद्र नहीं है वे कभी उसका मूल्य नहीं समझते और आपसे सदा त्याग की ही उम्मीद करते जाते हैं और वो भी बिना कोई श्रेय दिए और वे माफ़ी तो कभी माँगते ही नहीं बस आप ही उन्हें नादान समझ माफ़ करते जाते हो और अपने उत्पीड़न के बावज़ूद

उनके लिए त्याग करते जाते हो । ऐसा ही होता रहा समीक्षा के साथ । समीक्षा का एक लड़की हो कर पैदा होना ही उसका सबसे बड़ा अपराध था और वो भी दो लड़कियाँ पहले से होने के बावज़ूद । माँ ने तो जैसे उसे बचपन से ही त्याग दिया था और फ़िर धीरे धीरे पिता ने भी आँखें फ़ेर लीं ।

समीक्षा भी बड़ी ज़िद्दी थी । अपने बल पर जीती रही,पढ़ती रही, पढ़ाती रही और आगे बढ़ती रही । उपेक्षा और अपमान उसे डिगा नहीं पाए और एक दिन सरकारी नौकरी पा कर अपने पैरों पर खड़ी हो गई । बरसों तक अकेले लड़ती आ रही समीक्षा के लिए नौकरी पा जाना उसकी सबसे बड़ी जीत थी जिसने उसे आत्मसम्मान से जीने का हौसला दिया ।

रिश्ते तो अब भी थे पर उसे उन रिश्तों से अब कोई उम्मीद नहीं थी वरना तो अब वही माता-पिता,भाई-बहन उससे जुड़ने को तैयार थे । समीक्षा को अब अपने भीतर उनके लिए किसी भी त्याग और माफ़ी की संभावना मर गई सी लगती थी ।

विश्वास जो एक बार डिग जाता है वह आसानी से वापस नहीं आता है । आज बड़ी बहन का फ़ोन आया है कि “माँ की बीमारी से हालत ख़राब है और अंतिम साँसें गिन रही हैं । उन्हें समीक्षा से किए गए अपने व्यवहार का पछतावा है और आख़िरी वक़्त उससे मिलना चाहती हैं ।”

समीक्षा क्या करती आख़िर! जन्मदात्री तो वह थी ही उसकी सो चली गई । हमेशा चीखती-चिल्लाती रहने वाली माँ सूख कर काँटा हो गई थी । दोनों बेटियों में से अभी एक की भी शादी नहीं हुई थी और एक जो बेटा था वो आवरागर्दी करता था, उसे पढ़ने-लिखने में और परिश्रम में कोई रुचि नहीं थी ।

पिता जी भी चुपचाप सब देखते रहते थे । समीक्षा का दिल सबकी स्थिति देख कर पसीज़ गया । आख़िर ख़ून के रिश्ते थे ! माँ को अपने साथ ले आई । अच्छा इलाज़ कराया और धीरे धीरे वह ठीक हो गई । कर्तव्य था तो पूरा किया पर स्नेह और अपनत्व अभी भी नहीं जगा था ।

फ़िर भी परिवार की भरसक आर्थिक मदद करने लगी । लेकिन वे लोग उसका फ़ायदा उठाने लगे और उसे पैसा फेंकने की मशीन समझने लगे क्योंकि उनकी प्रवृत्ति ही यही थी । समीक्षा समझ गई कि इनके लिए अपना जीवन होम करना मूर्खता ही होगी ।

उसने अपने सहकर्मी अशोक से विवाह कर लिया और माता पिता भाई बहनों से अपना रिश्ता मात्र औपचारिकता तक सीमित कर लिया । अब उसका अपना परिवार था जहाँ उसे स्नेह,त्याग और माफ़ी जैसे मूल्यों को अपनाना और उनका महत्व सबको सिखाना था क्योंकि “रिश्ते अहंकार से नहीं त्याग और माफ़ी से टिकते हैं ।”

गीता यादवेन्दु

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