रेलवे स्टेशन की पुरानी घड़ी ने जैसे ही शाम के पाँच बजाए, राघव बाबू की ड्यूटी खत्म हो गई। आज का दिन उनके जीवन का सबसे अलग दिन था,
क्योंकि यह उनकी नौकरी का आख़िरी दिन था। चालीस वर्षों की अनवरत सेवा के बाद वे आज रिटायर हो रहे थे। स्टेशन मास्टर की वर्दी उतारते हुए उनके हाथ काँप गए। यह सिर्फ़ कपड़े नहीं थे, बल्कि उनके जीवन की पहचान बन चुके थे।
चायवाले से लेकर कुली तक, हर कोई उन्हें आदर से “राघव बाबू” कहकर पुकारता था। आज सबकी आँखों में एक अजीब-सी नमी थी। रेलवे के साथी कर्मचारियों ने विदाई समारोह रखा था। किसी ने फूलों का गुलदस्ता थमाया, किसी ने कंधे पर हाथ रखकर कहा – “आप जैसे अधिकारी बार-बार नहीं मिलते।”
घर लौटते समय, रिक्शे की सीट पर बैठे राघव बाबू की आँखों के सामने नौकरी के सारे दृश्य चलचित्र की तरह घूम गए। युवा अवस्था में जब पहली बार स्टेशन पर नियुक्ति मिली थी, तब उनके चेहरे पर उत्साह और सपनों की चमक थी।
तब सोचते थे कि यह नौकरी घर चलाने का साधन है, पर धीरे-धीरे यही उनका परिवार, उनका गर्व और उनका जीवन बन गई।
घर पहुँचते ही पत्नी सुधा ने थाली में आरती उतारी। बेटे और बहू ने पैर छुए। पोते ने उत्सुकता से पूछा-दादाजी अब आप हमेशा घर पर रहेंगे? हमें रोज़ कहानी सुनाएँगे? यह सुनकर उनके चेहरे पर मुस्कान आ गई, लेकिन दिल में कहीं हल्की-सी खालीपन की टीस भी उठी।
अगली सुबह जब अलार्म नहीं बजा, तो राघव बाबू की नींद देर से खुली। बरामदे में अख़बार पढ़ते हुए अचानक उन्हें लगा जैसे कोई ज़िम्मेदारी छिन गई हो। अब न तो समय पर ट्रेन पकड़नी थी, न टिकट चेकिंग का दबाव, न यात्रियों की शिकायतें। यह खाली समय उन्हें बेचैन करने लगा।
सुधा ने कहा – “अब आप आराम से जीएँ, सारी उम्र मेहनत में गुज़ार दी।” पर राघव बाबू का मन चैन कहाँ लेने वाला था। वे सोचने लगे – “क्या अब मेरा जीवन सिर्फ़ आराम करने के लिए रह गया है? क्या मेरी ज़रूरत खत्म हो गई?”
कुछ दिनों तक वे घर में खामोश रहने लगे। लेकिन पोते की मासूम शरारतें, पड़ोसियों का हालचाल पूछना, और पुराने मित्रों का आना-जाना धीरे-धीरे उनकी उदासी कम करने लगा। एक दिन उन्होंने अख़बार में पढ़ा कि उनके मोहल्ले में बुज़ुर्गों के लिए एक साहित्य मंच की शुरुआत हो रही है। मन में उमंग जागी।
युवावस्था से ही राघव बाबू को लिखने-पढ़ने का शौक़ था, पर नौकरी की व्यस्तता ने कभी समय नहीं दिया। वे मंच से जुड़े और अपनी पहली कहानी सुनाई। लोगों की तालियों की गड़गड़ाहट ने उनके भीतर दबे आत्मविश्वास को फिर से जगा दिया।
धीरे-धीरे वे बच्चों को पढ़ाने लगे, पड़ोस के लोगों को जीवन अनुभव बाँटने लगे। रेलवे की कहानियाँ, स्टेशन की घटनाएँ और यात्रियों की स्मृतियाँ सबके लिए रोचक बन गईं। मोहल्ले के बच्चे उन्हें “कहानीवाले दादाजी” कहकर पुकारने लगे।
अब राघव बाबू समझ चुके थे कि रिटायरमेंट जीवन का अंत नहीं, बल्कि एक नया अध्याय है। यह वह पड़ाव है जहाँ आदमी अपने अनुभव,
अपनी उपलब्धियाँ और अपनी ऊर्जा समाज को लौटाता है। उन्होंने महसूस किया कि नौकरी की पहचान से बड़ा जीवन का असली मूल्य है , अपनेपन का सुख और दूसरों के जीवन में रोशनी भरने की क्षमता।
शाम को जब वे बरामदे में बैठते, तो सुधा हँसते हुए कहती – आप तो नौकरी से ज़्यादा अब व्यस्त रहते हैं। राघव बाबू मुस्कुराकर जवाब देते – “अब मैं काम नहीं कर रहा, अब मैं जी रहा हूँ।
निष्कर्ष-
रिटायरमेंट जीवन का ठहराव नहीं है, बल्कि आत्मचिंतन और आत्मविकास का अवसर है। यह हमें यह सोचने का मौका देता है कि हम अब तक क्या बने और आगे समाज के लिए क्या कर सकते हैं। राघव बाबू की तरह हर इंसान अगर इस नए चरण को अवसर मान ले, तो बुज़ुर्गावस्था भी आनंद और ऊर्जा से भरी हो सकती है।
प्रतिमा पाठक
दिल्ली