कल रात देर रात तक अपना आर्टिकल लिखते हुए मिसीज सक्सेना काफी देर से सो पाई थीं। अब उन पर नौकरी के कारण सुबह जल्दी उठने के लिए घड़ी की सुइयों का बंधन तो है नहीं।सो, जैसे ही रोज की तरह घड़ी का अलार्म बजा, उन्होंने हाथ बढ़ाकर अलार्म बंद कर दिया
कि थोड़ी देर और सो लेती हूँ। किंतु, एक बार नींद टूट जाने से वे दुबारा सो तो नहीं पाईं, लेकिन अपनी अलसाई दशा में ही बैड पर लेटी रहीं । इस दौरान आराम से लेटने का आनंद उठाते हुए सहसा उनका मन-मस्तिष्क अपने जीवन की यात्रा पर निकल पड़ा।
उनकी नौकरी से रिटारमेंट को लगभग नौ वर्ष होने वाले हैं। रिटायरमेंट के तुरंत पश्चात् ही उनकी भागमभाग भरी जिंदगी में एक ठहराव आया था।किंतु,यह ठहराव केवल सर्विस की नियमावली के बंधनों में हुआ था, उनके जीवन में नहीं
क्योंकि उनकी नौकरी का कार्यकाल पूरा हो जाने से आने वाले इस ठहराव से भी उनके जीवन में एक अनोखी गति का आरंभ हुआ था ।
है न कैसा विरोधाभास ! दरअसल इससे पूर्व उनका जीवन जैसे घड़ी की सुइयों में बंधा था । न तोला इधर, न माशा उधर। अपने मन को ताक पर रखकर, घड़ी अनुसार, बस चकरघिन्नी की तरह चलते रहो, लेकिन रिटायर्ड होते ही एक लंबे अंतराल के पश्चात् उस परम परमेश्ववर ने उन्हें ‘अपने मन’ की करने का वक्त प्रदान किया था।
विवाह के पश्चात, माता-पिता के प्यार की छांव का आंचल छूटते ही उन्हें तुरंत घर-गृहस्थी और बाहर की जिम्मेदारियोंं से दो-दो हाथ होना पड़ा था। उस वक्त ,युवावस्था के प्रभाव से उन्हें कभी यह एहसास ही नहीं हो पाया था कि इन दोहरे दायित्वों को निभाते हुए
भागती हुई नौकरीपेशा महिलाओं के जीवन सेे, ‘सहज गति’ से कार्य करने से मिलने वाली खुशी का एक बहुत बड़ा हिस्सा तो ‘छूट’ ही जाता है। सुबह से रात तक बस भागते ही रहो।
लेकिन अपनी रिटायरमेंट के इन वर्षों में उन्हें इस ‘छूट चुकी’ खुशी का अहसास हुआ है। पिछले नौ वर्षों से, न भागते हुए नाश्ता करनेे की जल्दबाजी, न जल्दबाजी में सिर्फ पेट भरने के लिए लंच लेने की मजबूरी, न समाचार पत्रों की केवल सुर्खियां पढ़कर छोड़ते हुए
‘मन को मारने’ की टीस, न अपनी रुचियों को दरकिनार करने की पीड़ा और न ही मन की स्वतंत्र उड़ान पर किसी और का अंकुश । मतलब नौकरी करते हुए पिछले सालों में जो सुख खोया था,रिटायरमेंट के बाद अब वह ‘सब कुछ’ सूद समेत पाया जा रहा है।
वे अपनी रिटायरमैंट को सदैव ‘विभागीय रिटायरमेंट समझती आई हैं क्योंकि मनुष्य का जीवन ताउम्र उत्तरदायित्वों से पूर्ण रहता है। अतः अंतिम मुक्ति ही सेवा-मुक्ति (रिटायरमैंट) कही जा सकती है। सर्विस से मुक्ति के पश्चात भी जीवन तो कर्मशील एवं गतिमान रहता ही है न । हांं, रुचि अनुसार ‘कर्मक्षेत्र’ अवश्य बदल सकता है।
इन वर्षों में उन्होंने अनुभव किया है कि नौकरी के लिए चुने गए एक ‘विशेष कार्यक्षेत्र’ में रहकर, संसार के विशाल ज्ञान के खजाने में से उतना कहना, सुनना, देखना, पढ़ना और सीखना नहीं हो पाता
, जितना अनकहा, अनसुना,अनदेखा,अनपढ़ा और अनसीखा रह जाता है। सो, वे ईश्वर का बहुत धन्यवाद करती हैं कि उसने रिटायरमेंट के रूप में उन्हें इस ‘छूट चुके’ ज्ञान को इसी जीवन मेें दुबारा प्राप्त करने का सुअवसर प्रदान किया है।
इस दृष्टि से, एडवांस टैक्नोलोजी के इस युग में इंटरनेट उनका बहुत बड़ा मददगार मित्र बन गया है। इस दौरान ही तो उनकी लेखनी ने अपनी गति पकड़ी है। इन वर्षों ने उन्हें उनका पर्याप्त ‘मी टाईम’ देकर उनकी सोई हुई कलम को जगा दिया है।
पुस्तकोंं से अपनी घनी मित्रता से मिलने वाले लाभ एवं आनंद का सही महत्व भी उन्हें अभी महसूस हुआ क्योंकि अब उनके पास समय ही समय है।
रिटायरमेंट के कुछ दिनों बाद ही उनकी माँ ने उन्हें ‘अब ईश्वर की ओर ध्यान लगाने के लिए अधिक वक्त मिल पाने का एहसास’ करवाया था। सचमुच यह भी रिटायरमेंट की एक बहुत बड़ी ‘सौगात’ है।
रिटायरमेंट को अक्सर ‘अवसाद’ ( डिप्रेशन )के साथ जोड़ लिया जाता है, लेकिन नहीं ! वे ऐसा बिल्कुल नहीं मानतीं। उनके अनुसार तो यह जीवन के संघर्षों की आपाधापी और अपने ‘सरवाइवल’ के लिए की गई भागमभाग से निकलकर जीवन को फिर से जीने का सुनहरा अवसर है।
बढ़ती आयु वश शारीरिक शक्ति में आ जाने वाली कुछ कमी के बावजूद,अनेक प्रकार की जिम्मेदारियों से भरी,अफरा-तफरी वाली जिंदगी के सीने में दबा दी गईं अपनी रुचियोंं एवं इच्छाओं को उभारने का यह बढ़िया समय है।
इसीलिए अक्सर अवसर मिलते ही अपनी-अपनी नौकरी से रिटायर्ड अपनी मित्र मंडली में वे कहा करती हैं कि है कि घड़ी की सुइयों से बेखौफ प्राप्त होने वाले इस कीमती समय का भरपूर लाभ उठाएँ क्योंकि यह भी सबको नसीब नही हो पाता है।
सहसा चाय की उठती तलब उन्हें वर्तमान में ले आई और ‘ओह! अलार्म से टूटी इस नींद ने तो आज मुझे कहां से कहां पहुंचा दिया’ सोचकर मुस्कुराते हुए वे किचन की ओर चल पड़ीं।
उमा महाजन
कपूरथला
पंजाब।
साप्ताहिक विषय:#रिटायरमेंट
विशेष: यह मेरी मौलिक रचना है। अपनी रिटायरमेंट के प्रति एक सकारात्मक सोच रखने का रवैया हमें अवसाद से बचा लेता है, यही बात पाठकों तक पहुंचाना इस रचना का उद्देश्य है।