ननद हो तो ऐसी – विभा गुप्ता : Moral Stories in Hindi

  ” क्यों नहीं खेलेगी रंग…अंशु, चल आ..अपनी चाची पर रंग डाल..पर ज़रा संभल के..कहीं उसकी आँखों में न पड़ जाये…।” पुष्पलता ने अपने दस वर्षीय भतीजे से कहा तो रमा ने घबराकर अपने कदम पीछे कर लिये।रंग खेलने आई महिलाएँ चौंक उठी और आपस में काना-फूसी करने लगीं,” ये कैसी ननद है जो अपने भाई की विधवा पर रंग डालने को कह रही है..।”

         दो छोटे भाईयों की बड़ी बहन थी पुष्पलता।सहारनपुर के मेन मार्केट में उसके पिता देवीदयाल बाबू की कपड़े की दुकान थी जिससे इतनी कमाई तो हो जाती थी कि वो खाने-पीने के साथ-साथ अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा दे सके।

       पुष्पलता अपनी पढ़ाई के साथ-साथ रसोई और घर के कामों में माँ तुलसी का हाथ भी बँटाती थी।समय-समय पर छोटे भाइयों अंकित-अंकुर के होमवर्क कराने में भी वो मदद कर दिया करती थी।

       बारहवीं पास करके पुष्पलता काॅलेज़ जाने लगी तब उसके रिश्तेदार उसके पिता पर दबाव डालने लगे कि लड़की सयानी हो गई है..उसकी शादी कर दो लेकिन वो तैयार नहीं हुए।चाहते थे कि बेटी अपना ग्रेजुएशन पूरा कर ले।कुछ महीनों बाद उसके पिता के एक मित्र ने उन्हें एक रिश्ता बताया और कहा कि लड़का सरकारी नौकरी करता है

और परिवार भी छोटा है।मित्र का मन रखने के लिये वो लड़के को देखने चले गये।घर-वर दोनों उन्हें बहुत पसंद आये।तुरंत उन्हें अपने घर आने का न्योता दे आये।घर आकर उन्होंने बेटी से कहा कि अच्छा परिवार है..वो लोग तुम्हारी पढ़ाई भी पूरी करवाने को तैयार हैं।उसने पिता की बात का मान रख लिया और खुशी-खुशी ससुराल चली गई।

       ससुराल में उसे सभी का बहुत प्यार मिला।पति पलकों पर और सास- ससुर हथेली पर बिठा कर रखते थे।कभी-कभी बड़ी ननद आतीं तो उससे हँसी-ठिठोली भी कर लेतीं।साल बीतने के बाद भी जब उसकी गोद सूनी रही तब सास ने उसे टोका,” बच्चे में अभी देरी करोगी तो बाद में नहीं होगा।

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हमारे तो ससुराल में कदम रखने के दो महीने बाद ही पैर भारी हो गये थे।” सुनकर वो चुप रही, पति से कहा तो उसने अनसुना कर दिया।फिर तो सास-ससुर के तेवर बदलने लगे।डेढ़ साल बाद तो ननद भी अपनी माँ की हाँ में हाँ मिलाने लगी,” माँ..दूसरी लड़की देखना शुरु कर दो..इसे बच्चा न हुआ तो भाई की दूसरी शादी कर देना।” पति का साथ था, इसलिये वो सबकी बातें सुनकर चुप रहती।

       कुछ महीने और बीते तब पुष्पलता पति से बोली,” किसी दिन मुझे डाॅक्टर के पास ले चलिये.. अगर मुझमें कोई कमी होगी तो…।” तब उसके पति बोले,” माँ की बात को दिल पर मत लो…।” लेकिन वो ज़िद पर अड़ गई तब वो बोले,” ठीक है..कल मैं ऑफ़िस से जल्दी आ जाऊँगा, तब चल चलेंगे।” 

      अगले दिन जब पुष्पलता का पति ऑफ़िस से लौट रहे थे तो एक तेज आती ट्रक से उनके स्कूटर की भिड़ंत हो गई और हाॅस्पीटल पहुँचते-पहुँचते ही उन्होंने दम तोड़ दिया।माँग का सिंदूर क्या मिटा, उस पर ससुराल वालों का कहर टूट पड़ा।पिता आये तो उन्हें भी सास ने खूब जली-कटी सुनाई।उन्होंने साथ ले जाना चाहा लेकिन उसने मना कर दिया।

      पति के दफ़्तर से जो पैसा मिला, उसे ससुर ने दबा लिया ताकि बहू उनके नियंत्रण में रहेगी।सास पहले बच्चे के लिये ताने मारती थी और अब कहतीं हैं,” खुद तो बच्चे जने नहीं और मेरे बेटे को खा गई।ये मरे तो मेरी जान छूटे..।पुष्पलता के जीने की इच्छा मर चुकी थी।वो दिन-भर घर के कामों में खुद को व्यस्त रखती लेकिन रात को कमरे में आकर पति को याद करके खूब रोती।ऐसे ही उसके दिन कट रहे थे।

      देवीदयाल बाबू बेटी का दुख बर्दाश्त नहीं कर सके और उन्होंने बिस्तर पकड़ लिया।कुछ महीनों बाद उनका देहांत हो गया।सास ने सुना तो कहने लगी,” पति-बाप को तो खा गई..पता नहीं अब किसे।” उधर पति के वियोग में तुलसी जी ने भी खाट पकड़ ली।

    एक दिन अंकुर ने अपनी दीदी को फ़ोन किया और रोते हुए बोला,” दीदी..शायद माँ न बचे..।” सुनते ही पुष्पलता बोली,” मैं आती हूँ।” वो जानती थी कि सास के ताने तो कभी खत्म नहीं होगे और उधर माँ चली गई तो मेरे भाइयों को कौन संभालेगा।उसने तुरंत ससुराल छोड़ने का निर्णय किया और उसी रात अपने मायके के लिये रवाना हो गई।

      घर पहुँचकर माँ की मरणासन्न स्थिति देखकर उसके आँसू निकल गये।तुलसी जी इशारे-से बोली,” अंकित-अंकुर का ख्याल..।” 

   ” मैं रखूँगी माँ..आज भी और कल भी..।” कहते हुए उसने दोनों भाइयों को अपने हाथों में समेट लिया।तुलसी जी निश्चिंत होकर अपनी आँखें हमेशा के लिये मूँद ली।

     पुष्पलता ने कुछ महीनों के लिये दुकान एक विश्वासी को दे दिया।बीच-बीच में अंकित-अंकुर भी दुकान चले जाते थे। ग्रेजुएशन पूरा होने के बाद अंकित ने दुकान की बागडोर अपने हाथ में ले लिया।कुछ महीनों के बाद मालती नाम की लड़की के साथ उसने अंकित का विवाह करा दिया।साल भर बाद वो एक भतीजे की बुआ भी बन गई।

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     इस बीच मायके में बैठे रहने के लिये उसने लोगों के ताने भी सहे।दो बार ससुर उसे ले जाने के लिये भी आये..संपत्ति से बेदखल करने की धमकी भी दी लेकिन उसने अपने कानों में रुई डाल ली और अपने कर्तव्य-पथ पर चलती रही।

        अंकुर की पढ़ाई पूरी हुई तो अपनी दीदी की आज्ञा मानकर वो भी भाई के साथ दुकान पर बैठने लगा।ईश्वर की कृपा से दुकान में सेल बढ़ने लगी।शादी-ब्याह और त्योहारों के मौकों पर तो ग्राहकों की भीड़ लगी रहती थी।अंकुर का पैर जमता देख उसने पिता के परिचित की भतीजी के साथ उसका विवाह करा दिया।

      अब दोनों भाई दुकान संभालते और मालती- रमा घर।मालती दो बेटों की माँ बन चुकी थी और रमा की गोद में छह महीने की बेटी थी।पुष्पलता को उनके बच्चों के साथ खेलते देख मोहल्ले वाले कहते,” भई.. ननद हो तो ऐसी।” 

     लेकिन जीवन तो परिवर्तनशील है..धूप-छाँव और आना-जाना इसी का एक हिस्सा है।एक दोपहर अंकुर खाना खाने दुकान से घर आ रहा था कि एक तेज आती ट्रक उसके मोटरसाइकिल को कुचलती निकल गई।एंबुलेंस आते-आते तक उसके शरीर से काफ़ी रक्त बह चुका था जिसके कारण उसकी मृत्यु हो गई।

      घर में मातम छा गया।भाई के जाने का दुख पुष्पलता के असहनीय था लेकिन जब वो रमा की उजड़ी माँग देखती तो उसका कलेजा मुँह को आ जाता।ऐसे दुख की घड़ी में रिश्तेदार भी चार बातें सुनाने से बाज नहीं आते।

     रमा अपने बेरंग जीवन को समेटते हुए बेटी का मुख देखकर जीने की कोशिश कर रही थी।मालती उसे हिम्मत देती रहती फिर भी..।

      अंकुर के जाने के बाद दूसरी होली आई तो घर में शोर होने लगा।रमा की बेटी भी रंगों को निहार रही थी कि तभी अंशु ने अपनी चाची को रंग लगाना चाहा तो मालती ने उसे मना कर दिया।तब पुष्पलता तेज स्वर में बोली कि अंशु अपनी चाची को भी रंग लगायेगा….।सुनकर महिलाएँ राम-राम बोलती हुई चली गईं।

      उस रात पुष्पलता को नींद नहीं आई।वो सोचने लगी, आज मैं हूँ तो रमा को मालती का सहारा है लेकिन मेरे बाद..क्या वो ज़िंदगी भर दूसरों पर आश्रित..कल को मालती के मन में खोट आ गया तो…।उसने एक निर्णय लिया।

       अगले ही दिन वो रमा को लेकर बीएड काॅलेज़ गई और उसका दाखिला कराते हुए बोली,” रमा..मैंने वैधव्य- जीवन का दंश सहा है।तुम अपने पैरों पर खड़ी रहोगी तो बेटी को भी आत्मनिर्भर बनाओगी…फिर बोलने वाले भी चुप हो जायेंगे।” उस वक्त रमा को उसकी ननद दुर्गा का अवतार नजर आ रही थी।वो दीदी कहकर उसके पैरों पर गिर पड़ी थी।

       रमा मन लगाकर पढ़ाई करती और पुष्पलता उसकी बेटी संभालती।मालती भी अपना पूरा सहयोग देती।उसे काॅलेज़ जाते देख मोहल्ले की औरतें बातें बनातीं..घर आकर मालती के कान भरतीं कि तुम्हारी ननद सर्वनाश करने पर तुली है लेकिन मालती ने उनकी बातों पर कान नहीं दिया।

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     बीएड की डिग्री मिलते ही रमा को एक प्राइवेट स्कूल में अस्थाई नौकरी मिल गई।अपनी नौकरी के साथ-साथ उसने सरकारी स्कूल के लिये भी परीक्षा दे दी और उसका चयन हो गया।

     घर में खुशी का माहोल था लेकिन रमा घबरा रही थी कि मेरी बेटी कैसे…।तब मालती बोली,” बड़ी दीदी तुम्हारे लिये समाज से टकरा गईं हैं..हम लोग बहुत भाग्यशाली हैं जो ऐसी ननद हमें मिली हैं।यहाँ तक आकर अब पीछे मत देखो।बेटी की चिंता छोड़ दो..उसके लिये बुआ, ताऊ-ताई और दो-दो भाई हैं..।”

  ” दीदी..।” कहकर रमा मालती के गले लगकर रो पड़ी।रमा के प्रति मालती का स्नेह देखकर पुष्पलता की आँखें खुशी-से छलछला उठी।

     पहले जो लोग पुष्पलता की निंदा करते थें,वो ही अब रमा को अध्यापिका बन विद्यालय जाते देख उसकी प्रशंसा करते हुए कहते,” ननद हो तो ऐसी..।”

                             विभा गुप्ता 

# ननद               स्वरचित, बैंगलुरु   

              ससुराल में छोटी ननद बेटी समान होती है तो बड़ी ननद माँ समान..।पुष्पलता अपना दुख भूलकर पहले अपने भाईयों को संभाला और फिर उसने रमा को अपने पैरों पर खड़ा करके समाज के लिये एक उदाहरण प्रस्तुत किया।

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