गुड़गांव की आई.टी. सेक्टर की बड़ी कंपनी में शालीन और शैलजा काम करते थे.
दिल्ली और एनसीआर में ही नहीं, सभी बड़े शहरों में और अब तो कस्बों और गांवों में भी अनेक प्रेम कहानियां रोज ही बनती और बिगड़ती रहती हैं. मैट्रो ट्रेन में, कैंटीन में, बस स्टॉप पर और ऑफिस में रोज ऐसी अनेक मुहब्बत की दास्तान परवान चढ़ती हैं. इसलिए पहले ही बता दूँ कि आज मैं आप को कोई प्रेम कहानी नहीं सुनाने जा रहा हूँ.
शालीन और शैलजा पिछले दो साल से एक दूसरे से प्यार करते थे और आज की व्यस्त जिंदगी में मुहब्बत की हल्की मीठी बयार लम्बे समय तक धीरे धीरे बहते रहना सामान्य सी बात हो गयी है. पूरा स्टाफ जनता था कि बिना किसी कन्फ्यूजन और छुपाव के दोनों एक दूसरे के लिए समर्पित हैं मगर अभी शादी नहीं हुई है. कई अन्य मित्रों की तरह लिवइन में भी रह सकते थे किन्तु शैलजा की सिंगल मदर, जिसके साथ वो दो कमरे के छोटे से फ़्लैट में रहती थी, शादी से पहले किसी प्रकार से शारीरिक सम्बन्ध की इजाजत नहीं देती थी और माँ के प्रति कृत संकल्पित बेटी…
ओफ…. कहानी दूसरी दिशा में जा रही है .
दोनों प्रेमी साथ साथ लंच करते, एक साथ फिल्मे देखते और रोज अपनी शादी की योजना बनाते थे.
आखिर वो दिन आ ही गया जब दोनों ने विवाह बंधन में बंधने का निर्णय ले लिया.
शैलजा और उसके मम्मी, बस घर में दो ही जीव थे इसलिए बिना किसी औपचारिकता के शादी की तैयारी करने के लिए शालीन और उसके चाचा जी सुबह ही शैलजा के घर आ गए थे.
अरे हाँ, शालीन के परिवार का परिचय कराना तो मैं भूल ही गया. शालीन के परिवार में उसके सगे चाचा के आलावा तीसरा कोई नहीं था. चाचा भतीजा एक ही फ़्लैट में साथ साथ रहते थे. उनका फ़्लैट शैलजा के टू रूम सैट से कुछ बड़ा और बेहतर लोकेशन में था. चाची का देहांत हुए दस बरस गुजर गए थे और उन्हें कोई औलाद नहीं थी. दोनों में दोस्ताना सम्बन्ध थे. किसी किसी शाम दोनों चाचा भतीजे एक साथ जाम भी टकरा लिया करते थे.
सोसाइटी के पार्टी हॉल में रात को फेरे डलवाने वाले पंडित, दो वरमाला, लगभग सत्तर अस्सी आदमियों के लिए कैटरिंग और हल्की फुल्की सजावट का प्रबंध कर लिए गया था. दोनों परिवार इकट्ठे पार्टी हॉल में जायेंगे. फेरे पड़ेंगे और थोड़े से, दूर पास के रिश्तेदारों और ऑफिस के साझा मित्रों की दावत होगी. रात को शैलजा, शालीन की कार में उसके घर चली जाएगी. बस इतनी सी थी, दायरों में सिमट गए इस आधुनिक व्यस्त समाज की शादी की कल्पना।
शैलजा की डाइनिंग टेबिल पर बाजार से मंगाई इडली सांभर और जलेबी का नाश्ता करने के बाद शालीन और उनके चाचा जी, ड्रांइग रूम के सोफे पर धंसे हुए टीवी देख रहे थे. सामने के बैडरूम में शैलजा के हाथ पर एक प्रोफेशनल मेहंदी लगा रही थी और उसकी माँ मुग्ध भाव से अपनी बेटी को निहार रही थी.
अचानक शालीन ने टीवी का स्विच ऑफ़ कर दिया. चाचा ने प्रश्नसूचक निगाहों से उसकी और देखा तो उसके चेहरे पर शरारती सी मुस्कान थी.
“चाचा, वो सामने देख रहे हो. एक मेरी शैलजा है, दूसरी मेहंदी लगाने वाली और तीसरी?
“अरे शैलजा की माँ है. और कौन”.
“कैसी है ?
“अबे नालायक. अब इस उम्र में मैं ये तांक झांक करता फिरूंगा क्या.”
“देखो चाचू, नाराज मत हो. ये बताओ कि कैसी है. वैसे मैं तुम्हारे लैपटॉप की हिस्ट्री चैक करता रहता हूँ.”
चाचा ने एकदम शरमाते हुए कहा “अबे नामाकूल, चाचा को तो बक्श दिया कर. वैसे… माशाअल्लाह, बुरी भी नहीं है. लगता नहीं कि एक जवान बेटी की माँ है. दोनों बहन जैसी लगती हैं”.
“तुम्हारा चक्कर चलवा दूँ उन से”.
“अरे शालीन, तू कुछ भी बोलता है यार. रिश्ते का तो लिहाज कर. आज के बाद वो हमारी नजदीकी रिश्तेदार हो जाएगी”.
“रिश्ते की ही तो बात कर रहा हूँ चाचू” शालीन ने चाचा को कन्धा मार कर कहा. फिर एकदम गंभीर होकर बोला “मैं एक बात सोच रहा था मेरे प्यारे आदरणीय चाचा जी. शैलजा का इस शहर में न कोई रिश्तेदार न परिवार और न कोई हमदर्द. दोनों माँ बेटी अकेली रहती हैं. सुख में दुःख में केवल दोनों ही एक दूसरे की मददगार हैं. अब ….. आज ही रात को, शैलजा को तो हम अपने घर ले जायेंगे. फिर उसकी माँ का क्या होगा. कैसे अकेली जीवन काटेगी. बात तो एकदम अजीब और असंभव सी है. मगर… इधर आप भी तो अकेले हैं”.
“क्या बकवास कर रहा है छोटे. अपनी शैतान खोपड़ी में मिट्टी के घरोंदे मत बनाया कर. हालात की लहरों में बह जाते हैं”.
“दुनिया का हर बड़ा काम किसी छोटी सी कल्पना से ही शुरू होता है चाचू. तुम सीरियस हो तो बात चलाऊं.”
“अरे ऐसा कैसे हो सकता है यार. एक अजनबी महिला और ऐसे अचानक”.
“देखो चचा डार्लिंग, भारत में आज भी साठ से सत्तर प्रतिशत अरेंज मैरेज हेती हैं. उनमें एकदम अजनबी ही तो एक दूसरे से जुड़ जाते हैं, और फिर जिंदगी भर साथ भी निभाते हैं. फिर मेरे तो देखी भाली हैं ही. अब ज्यादा जिद न करो. मैं तुम्हारी तरफ से हाँ मानकर शैलजा से बात करने जा रहा हूँ”.
एल.आई.सी. में अच्छे पद पर कार्यरत बावन साल के स्मार्ट और खुद को मेंटेन रखने वाले चाचा किंकर्तव्य विमूढ़ से बैठे रहे और शालीन बड़े उत्साह से उठकर चला गया.
शालीन ने शैलजा को एक ओर बुलाकर सीधे सीधे सवाल उछाल दिया.
“देखो डार्लिंग, मैं सोच रहा था कि तुम तो आज इस घर को छोड़कर मेरे घर में शिफ्ट हो जाओगी जो यहाँ से चार किलोमीटर दूर है. फिर तुम्हारी अकेली माँ का क्या होगा”.
“हाँ यार, एकदम अकेली हो जाएंगी” शैलजा ने उदास होकर कहा. “मगर हम दोनों को ही किसी न किसी तरह देखभाल करनी होगी. थोड़ा समय निकलकर हम…”
“कैसे… कैसे देखभाल करोगी तुम और मैं. बारह घंटे तो ड्यूटी और रास्ते में निकल जाते हैं. फिर तुम्हे अपनी नयी गृहस्थी भी संभालनी होगी. मेरे फ़्लैट में चार कमरे हैं. एक में मैं रहता हूँ. एक में चाचा और तीसरा मेहमानो के लिए”.
“तो”.
“फिर… तुम्हारी माँ की चाचा से शादी करा देते हैं”.
“क्या…? पागल हो गए हो क्या. भांग खाकर आये हो सुबह सुबह. कुछ भी बोलते रहते हो”. शैलजा की भृकुटी एकदम तन गयी.
“देखो डार्लिंग. इस शहर में तुम्हारा कोई सगा सम्बन्धी है क्या. नहीं न. जब तुम्हारी माँ हॉस्पिटलाइज हो गयी थी तो तुम ने किस परेशानी से मैनेज किया था, क्या मुझे पता नहीं. सुख में दुःख में तुम दोनों के आलावा कोई तीसरा है जो तुम्हारी सहायता करता हो.
मेरे चाचा बहुत भले और शानदार इंसान है. अच्छे पैसे कमाते हैं. अकेले हैं. और तुम्हारी माँ भी”.
“ये कैसे बहकी बहकी बातें कर रहे हो शालीन. कहीं ऐसा होता है क्या. हिन्दू रीति रिवाज में ये पता नहीं जायज भी है कि नहीं. लोग क्या कहेंगे. ये समाज क्या कहेगा. तुम शादी के दिन मुझे रुलाकर मानोगे”.
“रीतिरिवाज में ये जायज है. आज तुम्हारी माँ हैं. कल माँ समान चाची होंगी. और मेरी भी तो माँ जैसी ही हैं. इस में बुरा ही क्या है. और समाज, कौन सा समाज. जब तुम्हारे पास इलाज तक के लिए पैसे नहीं होते, या जब तुम अपने ही फ़्लैट में किसी बीमारी से तड़प रहे होते हो, मर रहे होते हो तो समाज के कितने लोग आते हैं तुम्हारी सहायता करने. अरे ये महानगरों की काली संस्कृति है. यहाँ किसी को किसी के जख्म देखने की फुर्सत नहीं है. तुम पता नहीं किस समाज की बात कर रही हो. यहाँ किसी को नाजायज रिश्तों की तरफ निगाह उठाकर देखने का समय नहीं है. लोग अपने बाप की लाश को भी नगर निगम के हवाले कर देते हैं.
अच्छा सोचो, भगवान् न करे, किसी दिन तुम्हारी माँ को हार्ट अटैक आ गया तो दो घंटे तो तुम्हे इस शहर के ट्रैफिक को चीरकर घर पहुँचने में ही लग जायेंगे. कहीं कोई नहीं है शैलू. हमें सब कुछ अपने लिए स्वयं ही व्यवस्थित करना होता है. मैं बहुत सोच समझकर कह रहा हूँ”.
“कुछ भी बोलते हो यार. आज हमारे शादी का दिन है. मैं माँ के साथ किसी पुरुष की कल्पना भी नहीं कर सकती”.
“ठीक बात है. ऐसा ही होता है. एक बेटी होने के नाते तुम्हारी सोच जायज है मगर तुम से अलग उनका भी एक अस्तित्व है. एक शरीर है. हृदय है”.
फिर थोड़ा रुककर बोले “तुम्हे पता है, अकेले दिल्ली में लगभग सात हजार सिंगल ओल्ड पर्सन रहते हैं. पुलिस के पास बाकायदा उनकी एक लिस्ट रहती है और उनकी सुरक्षा का ध्यान रखा जाता है. इसके उपरांत भी हर साल अनेक अकेले वृद्ध लोगों को लूट के लिए मार दिया जाता है.”
“मम्मी इसके लिए कभी तैयार नहीं होंगी शालीन”.
“हाँ, नहीं होंगी मगर एक कल्पना है मेरी. दोनों मिलकर उसे साकार करने का प्रयास क्यूँ न करें. एक सिंगल डौटर होते हुए तुम्हारा दायित्व भी तो है उनके प्रति. और अब मेरा भी. मगर पहले तुम तो मानसिक रूप से स्वयं को तैयार कर लो. तुम धीरे धीरे उन्हें समझाओगी तो वो मान भी सकती हैं. आज न सही. बाद में बात करके देखना. जरा सोचकर देखो. जिंदगी की शाम को दो उदास, अकेली जिंदगियों को एक नयी हेप्पीनैस मिल जाय, जीने का कोई मकसद मिल जाय तो, इस में बुरा क्या है”.
कहानी अधूरी सी रह गई मगर…
बड़े दिनों के बाद मैंने उन्हें एक दिन एक मॉल में गोलगप्पे खाते हुए देखा. बहुत खुश लग रहे थे. शालीन और शैलजा से सुन्दर उनके चाचा और माँ का जोड़ा लग रहा था.
रवीद्र कान्त त्यागी