कुछ तो लोग कहेंगे – नीरज श्रीवास्तव

   कुछ तो लोग कहेंगे की हरिया पागल हो गया तो शायद कुछ कहेंगे कि हरिया भाग्यशाली था जो वह ऐसी घटना का साक्षी बना।

         हरिया लखनपुर गाँव में रहता था। हरिया के परिवार में उसके अलावा और कोई न था क्योंकि हरिया के माँ-बाप तो बहुत पहले ही हैजा रूपी महामारी के शिकार हो चुके थे और इस दुनिया को सदा-सदा के लिए अलविदा बोल चुके थे।

हरिया के माँ-बाप ने हरिया का नाम हरि राम रखा था ताकि इसी बहाने वह भगवान का नाम ले सके। लेकिन उनके मृत्यु के पश्चात गाँव के लोगोें ने उनके बेटे को हरिया बुलाना शुरू कर दिया। हरि राम, हरि राम से कब हरिया बन गया? उसे खुद पता न चला।

             माँ-बाप का साया सिर से उठ जाने के बाद तो हरिया का इस दुनिया में भगवान के अलावा और कोई सहारा ही न था क्योंकि रिश्तेदारों ने तो हरिया से अपना नाता पहले ही तोड़ लिया था और गाँव के लोग उसकी जिम्मेदारी कहाँ उठाने वाले थे?

           वह तो भला हो उस रामू काका का जिन्होंने बेचारे हरिया को अपनी दुकान में रख लिया। रामू काका साईकिल और गाड़ियों की पंचर बनाया करते थे। हरिया भी उनके साथ पंचर बनाना सीख गया और रामू काका के साथ काम करने लगा। रामू काका ने हरिया को वहीं दुकान में छोटी सी जगह दे डाली थी। हरिया जैसे-तैसे उसी में रहता और अपना गुजर-बसर करता।

         हरिया बजरंगबली का बहुत बड़ा भक्त था। कोई मंगलवार ऐसा न होता कि वह अपने बजरंगबली के लिए उपवास न करता और उनकी पूजा अर्चना न करता। लखनपुर में बजरंगबली का बहुत बड़ा और भव्य मंदिर था। गाँव के सभी लोग उस मंदिर में जाते और पूजा अर्चना करते। हरिया भी मंदिर जाता लेकिन वह बाहर से ही भगवान को माथा टेककर वापस आ जाता, क्योंकि मंदिर के पुजारी उसे मंदिर के अन्दर कभी न जाने देते।

       जब से हरिया के माता-पिता का स्वर्गवास हुआ था तब से गाँव के लोग हरिया को मनहूस कहने लगे थे और हरिया से दूरी बनाकर रखते थे। यही कारण था कि मंदिर के पुजारी भी हरिया से दूर रहते थे और उसे मंदिर में प्रवेश करने से रोकते थे। पर हरिया किसी की बातों का बुरा न मानता और अपनी किस्मत समझ आँसू के घूंट पी जाता।

        एक बार चैत्र माह की पूर्णिमा अर्थात हनुमान जयंती के दिन हरिया ने सोचा कि वह हनुमान जी के लिए कुछ  अच्छा सा पकवान अपने हाथों से बनायेगा और मंदिर जाकर उनको अपने हाथों से भोग लगायेगा।

      हनुमान जयंती थी। इसलिए मंदिर को काफी अच्छे से सजाया गया था और श्रद्धालुओं की भीड़ भी अच्छी खासी थी। हरिया ने सोचा कि भीड़ में उसे कोई नहीं पहचानेगा और वह भगवान को भोग भी आसानी से लगा देगा। लेकिन ऐसा बिल्कुल न हुआ। भीड़ में हरिया की किसी व्यक्ति से टक्कर हो गई और वह नीचे फर्श पर जा गिरा। जिससे सबका ध्यान उसकी ओर स्वत: ही चला गया।

तभी भीड़ से किसी ने चिल्लाया – “हरिया तू? तू यहाँ क्या कर रहा है? चल हट यहाँ से मनहूस कहीं का।”

हरिया उठते हुए बोला : अरे किशोर चाचा, मैं तो बस भगवान को भोग लगाने आया था। बस भोग लगाकर चला जाऊँगा।

किशोर : तू जाता है या धक्के मारू?

किशोर और हरिया की आवाज सुनकर वहाँ मंदिर के पुजारी आ गये और वो भी बेचारे हरिया पर ही चिल्लाने लगे। बेचारा हरिया क्या करता? वह बात को और आगे बढ़ाना न चाहता था इसलिए वह मुँह लटकाये वहाँ से अपने घर की ओर वापस चल दिया।

       इधर समय भी अब शाम से रात्रि के सफर पर निकल चुका था। रात के 10 बज चुके थे। मंदिर में श्रद्धालुओं की भीड़ लगभग समापन की ओर था। पुजारी जी ने सोचा – चलो मंदिर के गर्भ गृह का द्वार आधे घंटे में बंद कर दूँगा। बस यही सोचकर पुजारी जी अपने किसी अन्य कार्य में लग गये।

         उधर हरिया के आँखों से अश्रुधार की नदिया बह चली थी। वह अपने झोपड़े में लेटा हुआ बस यही सोच रहा था कि आखिर उसने ऐसी कौन सी गलती कर दी थी कि किस्मत उसे इतनी बड़ी सजा दे रहा था। क्या वह वाकई में मनहूस था?

क्या उसके माँ-बाप उसी के वजह से मर गये थे? यही सब सोचता हुआ हरिया भावुक हो उठा और अपने आप में चिल्लाने लगा – “इस दुनिया में मेरा कोई अस्तित्व नहीं। कोई मुझसे प्यार नहीं करता। सब मुझसे नफ़रत करते हैं। शायद मैं मनहूस ही हूँ। तभी तो मैं आपने माँ-बाप को भी खा गया।

मैं हत्यारा हूँ। मैं पापी हूँ। बजरंगबली भी मुझसे इतने नाराज़ हैं कि वह मुझे अपने मंदिर में प्रवेश तक नहीं करने देते हैं। मुझे जीने का कोई हक नहीं।” यही बुदबुदाते हुए हरिया दिवाल पर अपना सिर मारने लगा। हरिया का सिर रक्त से लाल हो चला था। तभी हरिया के कानों में आवाज़ आई -“हरिया, वो हरिया।”

          हरिया ने पलटकर देखा तो कोई व्यक्ति झोपड़ी के बाहर से हरिया को आवाज़ दे रहा था। उसकी उम्र लगभग 60 साल थी। माथे पर लाल तिलक, कंधे पर एक गमछा और उसके कमर में धोती थी। वह बूढ़ा तो था लेकिन बड़ा ही हट्टा-कट्टा दिख रहा था।

हरिया ने बोला – अभी दुकान बंद है। कल आना। तभी बदले में बाहर से फिर आवाज़ आई – हरिया मुझे भूख लगी है।बेटा, कुछ खाने को हो तो दे दे।

हरिया दरवाजे के पास जाते हुए बोला – पर मैं तुम्हें नहीं जानता।

उस व्यक्ति ने जवाब दिया – मैं बजरंगी चाचा हूँ। तुम मुझे जानो या ना जानो। मैं तो तुम्हें अच्छी तरह से जानता हूँ।

हरिया – हाँ, हाँ, क्यों नहीं जानोगे?? मैं मनहूस जो हूँ। यह तो पूरा गाँव ही जानता है।

बजरंगी चाचा – हरिया ऐसी बात नहीं है। तुम तो दयालु और उदार हृदय के हो और तो और तुम बजरंगबली के कितने बड़े भक्त भी हो। तुमसा कोई कहाँ?

हरिया गुस्से से चिल्लाते हुए बोला – तुम यहाँ से चले जाओ। मेरे पास तुम्हें देने के लिए कुछ भी नहीं है।

बजरंगी चाचा, हरिया के पास जाकर उसके चोट पर लगे खून को अपने गमछे से साफ करने लगे।

हरिया – अरे चाचा, ये क्या कर रहे हो??

बजरंगी चाचा मुस्कुराते हुए बोले – दिख नहीं रहा तुम्हारा खून साफ कर रहा हूँ।

हरिया – रहने दो, वह खुद ही ठीक हो जायेगा। मुझे किसी की मदद नहीं चाहिए।

बजरंगी चाचा ने हरिया को डांटते हुए बोला – चुप-चाप खड़े रहो।

बजरंगी चाचा ने हरिया के सारे घाव को साफ कर दिया। हरिया को ऐसे लग रहा था जैसे उसे कोई चोट लगी ही न थी। उसका दर्द भी तुरंत ही ठीक हो चुका था। हरिया आश्चर्य चकित था।

बजरंगी चाचा ने कहा – अब जाओ मेरे लिए कुछ खाने को लेकर आओ।

हरिया – मैंने कहा ना? घर में कुछ भी नहीं है।

बजरंगी चाचा – झूठ मत बोलो। मुझे सब पता है। आज तुमने स्वादिष्ट खीर और मोतीचूर के लड्डू बनाये हैं।

हरिया – तुम्हें कैसे पता??

बजरंगी चाचा – वो तुम जब मंदिर लेकर इन्हें गये थे, तभी मैंने यह पकवान तुम्हारे हाथों में देखा था। अब जाओ जल्दी लेकर आओ।

हरिया – जब तुम्हें इतना पता है तो यह भी पता होगा कि यह पकवान मैंने तुम्हारे लिए नहीं बल्कि अपने बजरंगबली के लिए बनाये थे।

बजरंगी चाचा – तो कौन सा पुजारी जी ने तुम्हारे बजरंगीबली को भोग लगाने ही दिया। वापस तो लेकर आ गये तुम। अब तुम्हारे बजरंगबली तो इसे खाने से रहे। ऐसा करो तुम इसे मुझे ही खिला दो।

हरिया – पर चाचा। बजरंगबली नाराज़ हो जाएँगे।

बजरंगी चाचा – हरिया इस दुनिया के कण-कण में ईश्वर यानि भगवान का वास है। तो इसका मतलब यह हुआ कि इंसान में भी भगवान का वास है अर्थात मुझमें भी तुम्हारे बजरंगबली का वास है और मैं भूखा भी हूँ। तुम यह खाना मुझे खिला दो। तुम्हारे बजरंगबली तुमसे नाराज़ नहीं बल्कि खुश हो जाएँगे।

हरिया को बजरंगी चाचा की बात काफी हद तक पसंद आई। हरिया बोला – चाचा आप बिल्कुल ठीक बोल रहे हैं। रामू काका भी कहते हैं कि भूखे, असहाय और गरीब लोगों की मदद करने से भगवान खुश रहते हैं। आप यही रुको मैं आपके लिए खाना लेकर आता हूँ।

कुछ देर बाद हरिया ने बजरंगी चाचा को भर पेट भोजन कराया। बजरंगी चाचा हरिया से काफ़ी खुश थे। बजरंगी चाचा ने भोजन के बाद हरिया से विदा लिया और वापस जाने लगे, तब हरिया ने बजरंगी चाचा से पूछा – चाचा आप कहाँ रहते हो?  बता दो? मैं आपसे मिलने आ जाया करूँगा। आप बड़े अच्छे हो।

बजरंगी चाचा – हरिया बेटा, अगर तुम्हें मुझसे मिलना हो तो तुम मंदिर आ जाना। मैं तुम्हें वहीं मिलूंगा।

हरिया : मंदिर, कौन से मंदिर???

बजरंगी चाचा – हनुमान मंदिर और कहाँ?? वहीं तो मैं रहता हूँ।

हरिया – अच्छा तो अब आप भी गाँववालों की तरह मेरे मज़े लेने लगे। अरे चाचा, घर का पता नहीं बताना तो मत बताओ लेकिन मुझे ऐसे मज़ाक बिल्कुल पसंद नहीं।

बजरंगी चाचा – हरिया, मैं मज़ाक नहीं कर रहा हूँ। आज के बाद तुम्हें मंदिर जाने से कोई नहीं रोकेगा। अच्छा अब मैं चलता हूँ। तुम अपना ख्याल रखना।

हरिया ने बजरंगी चाचा को अलविदा तो बोल दिया लेकिन वह चाचा के बारे में कुछ सोचता हुआ ख्यालों में खो सा गया कि आखिर यह चाचा है कौन? मैंने तो इसे पहले कभी नहीं देखा। पर यह मुझे जानते भी हैं और पहचानते भी हैं।

       हरिया अभी ख्यालों में खोया ही था कि एक आवाज़ ने उसे ख्यालों से बाहर आने पर मजबूर कर दिया। यह आवाज़ किसी और की नहीं बल्कि मंदिर के पुजारी की थी। जो गाँव में घूम-घूमकर हल्ला मचाए जा रहे थे कि हाय अनर्थ हो गया, बहुत बड़ा अनर्थ हो गया।

पुजारी जी को भीड़ ने घेर रखा था। भीड़ में से किसी ने पूछा कि क्या अनर्थ हो गया, कैसा अनर्थ हो गया?

पुजारी : बजरंगबली की मूर्ति किसी ने मंदिर से चुरा ली है। अब मंदिर के गर्भ गृह में प्रभु की मूर्ति नहीं है।

हल्ला सुन, गाँव के मुखिया भी वहाँ आ चुके थे। मुखिया जी को विश्वास न था कि हनुमान जी की मूर्ति किसी ने चोरी कर ली है क्योंकि मूर्ति किसी धातु का नहीं बल्कि पत्थर का था और मूर्ति की वज़न इतनी ज्यादा थी कि किसी आम इंसान के बस का नहीं था कि वह मूर्ति को एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जा सके।

मुखिया जी ने पुजारी से कहा। चलो मंदिर चल कर पता लगाते हैं कि माजरा क्या है? अगर चोरी हुई है तो चोर कोई ना कोई सुराग जरूर छोड़ कर गया होगा।

मुखिया के साथ-साथ भीड़ के सभी लोग मंदिर की ओर चल दिये। हरिया भी उनके पीछे-पीछे चल पड़ा। जब मुखिया जी मंदिर पहुंचे तो वह मंदिर का गर्भ गृह देखते ही पुजारी जी पर चिल्ला पड़े।

मुखिया : पुजारी जी यह क्या मज़ाक है? मुझे आपसे ऐसी उम्मीद न थी। आप तो पागल हो ही गये हैं और हमें भी पागल करने पर तुले हुए हैं।

पुजारी डरते हुए : मुखिया जी, मैं आपकी बात समझा नहीं। आप कहना क्या चाहते हैं?

मुखिया : गर्भ गृह के अंदर देखो।

पुजारी ने गर्भ गृह के अंदर जैसे ही देखा। उसके तो पसीने छूटने लगे। पुजारी चिल्ला पड़ा – नहीं यह नहीं हो सकता। अब यह मूर्ति यहाँ कहाँ से आ गई। अभी कुछ देर पहले तक तो यह मूर्ति यहाँ नहीं थी।

मुखिया : पुजारी जी आप अपना इलाज करवाइये।

पुजारी : मुखिया जी, मेरी बात मानिए। मैं सच कह रहा हूँ। हनुमान जी की मूर्ति यहाँ नहीं थी।

मुखिया : तो पुजारी जी आप कहना क्या चाहते हैं कि बजरंगबली इस गर्भ गृह से निकलकर बाहर घूमने गये थे और फिर खुद ही गर्भ गृह में आ गये?

पुजारी : मुखिया जी मुझे नहीं पता कि क्या हुआ था? मूर्ति कहाँ चली गई थी? पर मेरा विश्वास किजिये बजरंगबली की मूर्ति यहाँ नहीं थी। मैं कोई झूठ नहीं बोल रहा हूँ।

मुखिया : तो पुजारी जी आप कहना क्या चाहते हैं कि हम सब गाँववाले पागल हैं? अरे आप ही बताइए इतनी बड़ी मूर्ति मंदिर परिसर से बाहर कैसे चली जायेगी?

पुजारी जी और मुखिया अभी आपस में बहस कर ही रहे थे कि भीड़ से हरिया निकला और बोला – अरे याद आया। यह तो वहीं गमछा है।

जिससे बजरंगी चाचा ने मेरे चोटीले घाव को साफ किया था और इस पर मेरे सिर का खून भी लगा हुआ है। इसका मतलब बजरंगी चाचा भी यही कहीं हैं। हरिया जोर जोर से बजरंगी चाचा को पुकारने लगा। पर उसके सामने कोई न आया।

पुजारी : बजरंगी चाचा? कौन बजरंगी चाचा?

हरिया : जो इस मंदिर में रहते हैं।

पुजारी : इस मंदिर में कोई बजरंगी चाचा नहीं रहते हैं।

हरिया : ऐसा कैसे हो सकता है? उन्होंने ने तो यही का पता बताया था और बजरंगबली के मूर्ति पर जो गमछा है। उस पर तो अभी भी मेरा खून लगा हुआ है। इसका मतलब वह यही हैं।

मुखिया : गमछा? कैसा गमछा? और ये बजरंगी चाचा कौन है??

पुजारी : मुझे तो कुछ समझ नहीं आ रहा कि यह क्या हो रहा है?

हरिया ने अपने और बजरंगी चाचा के मुलाकात के बारे में एक-एक बात सबको बताई। किसी के कुछ पल्ले नहीं पड़ा। पर पुजारी जी रोने लगे और बोले – हाय, मैं कितना अभागा हूँ कि प्रभु के दर्शन मुझे नहीं हुए और इस हरिया को हो गये।

जरूर मेरी भक्ति में कोई कमी रह गई होगी। मुझे माफ़ कर दे हरिया। मनहूस तू नहीं। मनहूस तो हम सब। वरना बजरंगबली हमें भी दर्शन देते और हमारे घर चाचा बनकर आते। मुझे माफ़ कर दे हरिया। आज के बाद मैं तुझे मंदिर आने से कभी नहीं रोकूंगा।

       पंडित जी के साथ – साथ हरिया की आँखें भी नम हो चली थी। उसे विश्वास न हो रहा था कि साक्षात बजरंगबली उसके झोपडी में खाना खाने आये थे।

हरिया बोला – पुजारी जी आपका लाख-लाख शुक्र है। अगर आपने मुझे मंदिर आने से ना रोका होता तो आज बजरंगबली मेरे घर न आते। कोटि-कोटि धन्यवाद आपको।

उस घटना के बाद तो पूरे गाँव में हरिया का सम्मान बढ़ गया। अब उसे कोई मनहूस नहीं कहता।

(पूर्णतः स्वरचित, सुरक्षित, अप्रकाशित, काल्पनिक एवं मौलिक रचना)

लेखक : नीरज श्रीवास्तव
          मोतिहारी, बिहार

सीख :
इस कहानी से हमें यह सीख मिलती है कि : 

1. हमें कभी भी किसी का मज़ाक नहीं उड़ाना चाहिए क्योंकि हो सकता है मजाक उड़ाने वाला खुद एक मज़ाक बनकर रह जाये।

2. अगर ईश्वर के प्रति भक्ति और श्रद्धा सच्ची हो तो ईश्वर के दर्शन किसी ना किसी रुप में अवश्य होते है।

नोट : कहानी कैसी लगी। प्रतिक्रिया अवश्य दीजियेगा। आपकी समीक्षा हमारे लिए अमूल्य निधि है। धन्यवाद।

Leave a Comment

error: Content is protected !!