विक्रम एक बड़े शहर में बिज़नेस करता था। शुरूआत में वह मेहनत से काम करता था, लेकिन जैसे-जैसे पैसा और ताक़त उसके हाथ आई, उसकी नीयत बदलने लगी।
वह ठेके लेने के लिए रिश्वत देता, नकली कागज़ बनवाता और घटिया माल बेचकर लाखों रुपए कमाता। धीरे-धीरे उसने और भी बुरे काम शुरू कर दिए—लोगों से ज़मीन हड़पना, गरीबों को धमकाना और टैक्स चोरी करना।
लोग उससे डरते थे, क्योंकि उसके राजनैतिक रिश्ते भी मज़बूत थे। कुछ सालों तक विक्रम ने ऐशो-आराम की ज़िंदगी जी। बड़ी गाड़ी, आलीशान बंगला, विदेश यात्राएँ—सबकुछ था।
लेकिन कहते हैं, बुरे कर्मों का फल देर-सबेर सामने आता ही है।
एक दिन उसकी बनाई एक इमारत गिर गई, क्योंकि उसने निर्माण में घटिया सामग्री इस्तेमाल की थी। उस हादसे में कई मजदूरों की मौत हो गई। मामला कोर्ट तक पहुँचा और मीडिया ने उसका कच्चा-चिट्ठा खोल दिया।
सरकार ने उसके सारे प्रोजेक्ट्स रद्द कर दिए। बैंक ने उसकी संपत्ति ज़ब्त कर ली। जिन नेताओं पर वह भरोसा करता था, उन्होंने भी उससे किनारा कर लिया।
सबसे बड़ा दुख तब हुआ जब उसका अपना बेटा उससे दूर हो गया। उसने कहा—
“पापा, आपने लोगों की ज़िंदगी बर्बाद की, अब मैं आपके नाम से भी दूर रहना चाहता हूँ।”
विक्रम अकेला और बदनाम रह गया। उसी कोठी में, जहाँ कभी पार्टियाँ होती थीं, अब सन्नाटा छा गया।
तब उसे समझ आया कि उसने जो लालच और छल से कमाया था, वही आज उसके पतन का कारण बना।
वह आँसू बहाकर सोचता रहा—
“सचमुच, कर्मों का चक्र कभी किसी को नहीं छोड़ता। मैंने जैसा किया, वैसा ही भोगना पड़ा।”
शिक्षा
बुरे काम चाहे कितनी भी ताक़त से किए जाएँ, उनका परिणाम अंततः विनाश ही होता है।
Best Regards,
डॉ. स्नेहा नीलेश निंबालकर (खुलगे)