आज सबमिशन की डैडलाइन थी, प्रोजेक्ट हैड होने के कारण सुनंदा की जिम्मेदारी थी। सुनंदा जल्दी जल्दी अपना काम निबटा रही थी, एक नजर घड़ी पर देख उसके हाथ और तेजी से कम्प्यूटर पर चलने लगे। शाम के सात बज चुके थे, फटाफट सभी फाइलें भेजी फिर क्लाइंट का कन्फर्मेशन आने के बाद उसने चैन की सांस से ली।
काम पूरा कर हाथ में पहनी घड़ी पर नज़र पड़ते ही हड़बड़ा गई, सुई का कांटा आठ बजने में दस मिनट दिखा रहा था। अपना लैपटॉप बैग लेकर सुनंदा ऑफिस से निकली। ऑफिस में सिर्फ सुनंदा ही आखिर में जाने वाली बची थी। मनसुख लाल चौकीदार को ऑफिस बंद करने को कह सुनंदा बसस्टाप पहुंची।
देर होने के कारण सात बजे वाली चार्टेड बस जा चुकी थी।
सुनंदा बस स्टाप पर खड़ी बस की प्रतीक्षा करने लगी। आज ऑफिस में देर हो गई थी तो इक्का-दुक्का लोग थे बस स्टाप पर।
इतने में चार आवारा लड़के आ गए, अकेली लड़की को देख छींटाकशी करते हुए भद्दे कमेंट करने लगे और अश्लील गाना गाने लगे।
पास खड़े दो-चार लोगों को सुनंदा ने उम्मीद से देखा तो वे यह सब इग्नोर कर अपने-अपने मोबाइल देखने लगे।
अंधेरा गहराता जा रहा था, सुनंदा परेशान होकर इधर उधर देखने लगी।
इतने में एक आवाज़ आई,”गुड्डो, चलो मैं आ गया हूॅ॑, देर होने पर पापा ने तुम्हें लेने भेजा है। “
आवारा टोली उस युवक को देख खिसक गई।
सुनंदा ने उस युवक को देखा, अनजान युवक के सौम्य व्यक्तित्व को देख उसे ढांढस मिला। युवक ने कहा,” मैं सागर हूॅ॑। मैंने देखा कि वो बदतमीज लड़के आपको छेड़ रहे थे और पास खड़े लोगों को कोई मतलब नहीं था। मैं अकेला चार-चार जवान लड़कों से कैसे निबटता तो मेरा यह उपाय काम कर गया। अब मैं आपके घर तक छोड़ कर आऊंगा।”
इतने में बस आ गई। सागर सुनंदा के साथ उसके घर तक छोड़ने गया। सुनंदा के माता-पिता ने सागर का बहुत एहसान माना।
इस तरह एक अनजान युवक ने अपनी बुद्धिमत्ता से सुनंदा की उन आवारा लड़कों से रक्षा की। कहने का मतलब यह है कि मदद करने के लिए कोई रिश्ता हो या जान-पहचान हो ऐसा जरूरी नहीं है बस इंसान के दिल में इंसानियत बची होनी चाहिए जो आजकल कहीं लुप्तप्राय सी हो गई है। किसी के साथ बुरा होते देखकर अक्सर लोग नज़रें फेर लिया करते हैं। बहुत कम लोग हैं जो इंसानियत को जिंदा रखे हुए हैं। किसी की रक्षा करने के लिए जरूरी नहीं कि शारीरिक बल का ही प्रयोग किया जाए कभी-कभी दिमाग का इस्तमाल करके भी अनहोनी टाली जा सकती है।
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धन्यवाद।
#रक्षा
-प्रियंका सक्सेना
(मौलिक व स्वरचित)
3 thoughts on “इंसानियत जिंदा है अभी! – प्रियंका सक्सेना”