सूने से घर में पति-पत्नी के अलावा अब कोई नहीं था। खामोशी में लिपटी दरों-दीवार की चमकदार रंगत किसी काम की नहीं।कभी-कभी ऐसी खामोशी कि जिसे भेदना भी मुश्किल।दो जोड़ी आंखें किसी के आने की आस में रास्ते निहारते तो थे पर खुद को दिलासा देकर पलकें बंद भी कर लेते।दीवारों पर लगी तस्वीरें ही एकमात्र सहारा थी।खुशी भरे पल की गवाह थी कि कभी इन बच्चों से घर में रौनक रहा रहती थी।उन तस्वीरों को देखते -देखते बहुत दूर निकल जाते।
अब बच्चे भी कहाँ जल्दी-जल्दी लौट पाएंगे।पानी,हवा,जगह सब बदल चुके है। बच्चों की चाह है कि हम उनके साथ रहें। हमारे अपने अपना फर्ज भूले नहीं हैं इसलिए अगर-मगर की कोई बात कहां..?उनकी अपनी लाइफ स्टाइल है कुछ उन्हें रास नहीं आता और कुछ इस उम्र में हमें!अब उनका अपना नीड़ हुआ,जिसकी सुख-सुविधाएं जुटाने में उनकी भी उम्र निकल जाएगी।हम मां-बाप होने के नाते बच्चों की जरूरतें , भागदौड़ समझ सकते हैं।उनके जीवन की अपनी जद्दोजहद है उनपर आकांक्षाओं का पहाड़ कितना लादें।
दो बेटे, दोनों अलग-अलग जगह में।अब सबका एकसाथ इक्ट्ठा होना शायद ही संभव हो।
सुबह से शाम तक की दिनचर्या में जितनी बातें हो सकती है आपस में उतनी ही बातें होती।अगर पेट की आग परेशान न करती तो बर्तन की खटर-पटर भी नहीं होती।एकदम शांत माहौल वातावरण को भारी बना देती है।फोन कॉल ही उनके जीने का सहारा था। उनसे मिलन की उम्मीद मन में आशा के दीप जलाए रखती मगर कबतक !लौ भी तो हांपती,कांपती है जब हवाएं परेशान करती है।
दीपक बाबू आजकल बड़े खोए-खोए से रहने लगे थे।अंर्तमन में विचारों का प्रवाह भी तो आजकल खूब जोरों पर था। हालांकि अपने सब्र पर लगाम बड़ी मजबूती से लगा रखी थी उन्होंने! पर कबतक…?जिस पड़ाव तक जाने के लिए इतना सफ़र किया अब वही पड़ाव एक वीरान दुनिया में तब्दील हो जाएगी कहां सोचा कभी!जबतक नौकरी रही भागदौड़ लगी रही।वक्त का पहिया दुगनी गति से दौड़ता हुआ लगता। अब जबकि सेवानिवृत्त होकर आराम से रहने का वक्त आया तो अब वक्त कटता ही नहीं।शरीर और मन की थकान इस वक्त ने बढ़ा दी है। कल-पुर्जे में जंग लग जाती है अगर उससे काम न लिया जाए।उम्र के ढलान पर कर ही क्या सकते हैं कभी मन साथ नहीं देता तो कभी तन…!
इन्हीं ख्यालों में उलझे दीपक बाबू अपनी ओर चाय लेकर आती हुई पत्नी नंदा के चेहरे को बड़े गौर से देखते हैं।मन ही मन बुदबुदाते हैं।”यह वही नंदा है जिसे ब्याह कर लाया था…?”…पहले कभी पढ़ने की कोशिश नहीं की पर अब सब साफ-साफ दिखता था।काश!वो दिन लौट पाता तो सारी शिकायतें दूर कर देता,मगर इसने कभी शिकायत की ही कहां । आखिर क्यूं..?
आज इस चेहरे पर बहुत कुछ धुमिल सा है फिर भी सब पढ़ सकता हूं।नजर से नजर मिलते ही उन्हें ग्लानि सी होने लगी।
“आजतक नंदा ने मुझसे अपनी मन की कोई खास इच्छा नहीं बताई।घर, परिवार, बच्चे और उसका घेरा! इतना ही तो दायरा नहीं होता इच्छाओं का।आज सुबह मार्निंग वॉक करते हुए किसी दंपती की आपसी बातचीत में .’क्वालिटी टाईम’..का जिक्र आया था।भले ही हमारे जमाने में इसका प्रचलन न था पर इसकी चाहतें तो होंगी ही। कितना कुछ गंवा दिया मैंने! चंचलता को गंभीर लबादे में ढंककर अपराध ही तो किया है।क्या समझौता कर लिया था इसने अपने-आप से!अब मेरी कोशिश यही रहेगी कि इसके मन के भीतर जमी सारे वर्फ को पिघला सकूँ।
मुझे चाय की प्लेट थमाते हुए उसने सवाल किया-“ब्ल्डप्रेशर चेक किया आपने…?”…मैं चुपचाप अपनी चाय खत्म कर रहा था। उसने एक-दो बार और पुछा मगर मैंने चुप्पी साध रखी थी।वह एकदम से मेरे पास आई और मेरे चेहरे को अपने हाथ में सीधा पकड़ते हुए कहा-“इतनी बार पुछ रही हूं जबाब क्यूं नहीं देते। क्या मैं पागल दिखती हूं या तु्म्हें सुनाई नहीं देता…?”
उसके गुस्से से तमतमाए चेहरे पर ना जाने क्यूँ प्यार आ रहा था।वह मेरे सामने ही बैठकर काफी देर तक बड़बड़ाती रही और मैं सुनता रहा।
“वह पहले ऐसी तो नहीं थी मगर आजकल बात-बात पर गुस्सा करने लगी थी।जिम्मेदारी के बोझ तले दब कर चिड़चिड़ी सी हो गई है।जो बातें पहले मुझे चुभती थी वही अब अच्छी लगने लगी थी।वाह रे जिंदगी! क्या खूब तमाशा है…और एक हल्की सी हँसी होंठों पर आ ठहरती।
“एक कप चाय और मिलेगी…?”… मेरे इतना कहते ही उसने मुझपर एक नजर डाला क्यूंकि चाय का शौकीन नहीं था कभी।इससे पहले शायद ही कभी ऐसी इच्छा जताई हो। वह चुपचाप किचन की ओर मुड़ गई।
मैं अपने ख्यालों में इस
कदर खो गया कि उसका आना-जाना भी पता न चला।चाय ठंडी पड़ चुकी थी। मैंने फिर से उसे आवाज दी।
“चाय जरा गर्म करके ले आओ।”
लॉन में टेबूल पर चाय रखती हुई नंदा झल्ला उठी…
“ये दूसरी बार है एक ही चाय को गरम करने से वो स्वाद बिगाड़ देती है।इससे अच्छा है चाय पीना ही छोड़ दो।मुझसे नहीं होगा बार-बार सीढ़ियों से ऊपर-नीचे ,आना-जाना।कमर अकड़ जाती है मेरी।”
“अरे!ये दो-चार सीढ़ियां ही तो है। हाथ-पैर चलते रहेंगे तो स्वस्थ भी रहोगी।बगल वाली भाभी जी को ही देख लो कैसे बैठै-बैठे हुक्म बजाती रहती है अपनी बहू पर। कितनी लाचार है उठने -बैठने में। उनसे तो अच्छी भली हो।
“हम्म! मैं तो अभी-अभी ही आई हूं इस घर में! मेरी हड्डियां भी एकदम तंदुरुस्त है। जितना चाहो दौड़ा लो।…है न!…
वैसे आजकल तुम किन ख्यालों में खोए रहते हो..?कोई और बात तो नहीं है न! कुछ दिनों से तुम्हारे बदले हुए स्वभाव को देख रही हूं।”
“तुम औरतों को तो बस जाने क्या सुझता है।मैं प्यार भरी बातें कर रहा हूँ और तुम्हारा दिमाग कहीं और दौड़ता फिर रहा है।उसे वापस लेकर आओ अपनी जगह पर।”
“प्यार भरी बातें.????
लगता है किसी नशे के शिकार हो गए हो।याद भी है तुम्हें कब हम साथ घुमने गये थे,नहीं न।
बड़े आए प्यार से बात करने वाले!
हूँँ.।”
“आओ बैठो! शांत हो जाओ।मानता हूँ तुम्हारी सारी शिकायत अपनी जगह जायज है।
पर ,मैं भी तो इन तमाम खुशियों से वंचित रहा।
तुम्हारा हँसता हुआ चेहरा मैं नहीं देख पाया वर्षों तक ।
अब जब हम-दोनों के लिए एक-दूसरे के सिवा और कोई नहीं है तो क्यूँ न जिंदगी को एक नये अंदाज से,नये तरीके से जीना शुरू करें।
हमलोग साथ ही चाय पिया करेंगें अब से!…ठीक है न।”
उसने मेरी ओर देखा और कहा-“अच्छा!उसकी बातों में आश्चर्य भरा था।इस बार लहजे में शिकायत भरी थी।”इतनी देर तक यहां बैठी थी मगर तब ख्याल नहीं आया।”
नंदा हमें जिंदगी के हर उस हिस्से में खुशी ढूंढनी है जिससे आजतक वंचित रहे।उसके हाथों को थामे हुए दीपक बाबू दिल की बात कहे जा रहे थे।नंदा एकटक दीपक बाबू के चेहरे को देखती रही।
“कितनी मासूमियत है इन बातों में और सच्चाई भी है।दोनों ही अपनी-अपनी जगह लगे रहे।
जिस पल के लिए तरसती रही वो अब जाके मिला है ।मैं इसे गँवाना नहीं चाहती।”
दीपक आज कहीं चलें घुमने हमलोग!इस नयी पारी की शुरुआत भी करनी है।
सपना चन्द्रा ____
कहलगांव भागलपुर बिहार