बेदर्दी कोसी   – गार्गी इवान

शाम की गोधूलि बेला ने ज़मीन और आसमां दोनों को गुलाबी रंग से सराबोर कर दिया था। मोरम की कच्ची सड़क के किनारे, बूढ़े बरगद से पक्षियों के मजलिस की आवाज़ आ रही थी। गले में घंटी लटकाये बकरियों का झुंड, जुगाली करती हुई बढ़ चली थी घर की दिशा में।सावन आ चुका था।

 “क्यों रे टुनिया! शंभू कइसन बा?” तभी पीछे से गायों को चराकर लौटते प्यारेराम काका ने पूछा। टुनिया ने घूंघट की आड़ से उदास आवाज़ में उत्तर दिया  – ” कोनो सुधार नहीं काका”

“राम पर भरोसा रख ” कहकर काका बढ़ गए।

टुनिया, कोसी किनारे बसे एक छोटे से गाँव मोमिना में, अपने अपाहिज पति और 8 साल के बेटे गणेश के साथ किसी तरह मजूरी करके परिवार का पेट पाल रही थी।

वो  जब अपनी झोपड़ी में पहुंची तारों ने आसमां में हाज़री लगा दी थी। “माई! मैंने चूल्हा जला दिया है” – मुस्कुराते हुए गणेश बोला। टुनिया ने उसके गाल थपथपा दिए। पति शंभु के कमर का निचला हिस्सा एक एक्सीडेंट के बाद बेकार हो चुका था। आँखों के सामने टुनिया को अकेले खटते देख उसके दिल में ग़म की आरी चलती रहती। उस रात चटाई पर लेटी टुनिया छप्पर वाले छत के छेदो से टिमटिमाते तारे देख सोच रही थी कि इस बरसात,किसी तरह कोसी मईया सहाय बन जाए और उसकी टूटी-फूटी झोपड़ी बच जाए।

देहाड़ी करके उस दिन जब टुनिया पगार लेने ठेकेदार के पास गई, ठेकेदार ने मौका देखकर उसका हाथ पकड़ कर खींचने की कोशिश की थी। उसकी लड़ाई न सिर्फ निष्ठुर किस्मत से थी बल्कि बेशर्म सोच वाले लोगों से भी थी, जिससे उसे हर पल लड़कर जीतना होता था। उस दिन टुनिया को बिना पगार के ही घर वापस लौटना पड़ा था।



अगले दिन आसमान का चेहरा लटक गया और मूसलाधार बारिश शुरु हो गई जो थमने का नाम नहीं ले रही थी।कोसी मईया विकराल रूप धारण कर चुकी थी। वो बारिश न थम रही थी, न कोसी मईया मान रही थी। “ज़िद न कर टुनिया। सब लोग राहत शिविर में जाए रहे।” रामावती चाची ने समझाया। पर.. जाने क्या था जो टुनिया को रोक रहा था? तिनका-तिनका जोड़कर तो उसने ये आशियाना बनाया था। छोटी- छोटी खुशियाँ और बड़े-बड़े ग़म काटे थे इसी छत के नीचे। फिर कैसे सब कुछ छोड़-छाड़ कर चली जाए?

 बारिश बेशर्म बनकर बरसी जा रही थी। ऐसे ही सात दिन बीत गए। घर का राशन भी  खत्म हो चुका था। बस मुड़ी का ही सहारा था अब।खपरैल की छत और माटी की दीवारें गलने लगी थी। “टुनी! अब यहाँ रहे तो हमारे साथ साथ गणेश की जान भी खतरे में आ जाएगी।” – भारी मन से शंभु ने कहा। तभी बाहर माइक की  आवाज़ आई  – “सुनो! सुनो! मोमिनपुर के लोगों को सूचित किया जाता है कि जल्द से जल्द गाँव खाली करके, हाईवे पर बने सरकारी राहत शिविर में चले जाएं… कोसी का जलस्तर खतरे से ऊपर बह रहा है।” टुनिया को बेटे, गणेश का मुँह देखकर आख़िर  फैसला लेना ही पड़ा।

राहत शिविर में खिचड़ी मिली थी पहले दिन। दीनू भैया से सुना था उसने कि कोसी मईया आधे गाँव को  निगल गई हैं, जिसमें टुनिया का आशियाना भी था। रात का अंधियारा, उस तिरपाल के शिविर में रह रहे लोगों के जीवन में भी छाने लगा था। खोमोशी भी तो कितना शोर करती है। रमावती चाची की करुण आवाज़ में गाने के बोल शिविर में गूँज रही थी –

“धीरज धारिहअ मंगरू के माई, मन मत करिऔ मलाल,

कोसी सन नीदरदी जग में कोय होइ हो सहाई राम।”

टुनिया की आँखें में भी एक कोसी उफान मार रही थी।राहत शिविर के भीतर भी एक जोड़ी आँखें झमाझम बरस रही थी। चुपचाप…. तिरपाल के छत पर बने छेदो से काला आसमान और काला दिख रहा था जिसमें से रह रहकर बिजली की लकीर किसी काल नागिन जैसे बलखा रही थी।

(स्वरचित)    
गार्गी इवान            
गुरुग्राम 

     

  

 

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