“ चाहत बहू, मेरा चशमा ठीक करवा ला बेटा, चार दिन से एक शीशे से पढ़ रही हूं, सिर दर्द होने लगता है”।
बल्कि एक चशमा और ही बनवा दो, ताकि एक टूटे तो दूसरा काम आ जाए, सविता ने बड़े प्यार से बहू चाहत से कहा।
ओह माताजी, आपके काम ही खत्म नहीं होते, कभी दवाई लाओ, कभी चश्मा ठीक करवाओ, कभी मालिश वाली बुलाओ, कभी आखं में दवाई डालो, बस मेरा तो यही काम रह गया। कुछ काम अपने बेटे को भी कह दिया करो।
अभी वो सविता से तीखे स्वर में बात कर ही रही थी कि उसकी माँ का फोन आ गया। “कोई बात नहीं, आप चिंता न करो, मैं आज ही सब कर दूंगी, आती हूं शाम को”। बात तो सविता जी को समझ नहीं आई, बस वो इतना ही सुन पाई। उसके बाद चाहत बाहर की और चली गई थी।
कभी भी न हारने वाला आदमी उम्र के आगे, बच्चों के मोह में और फिर परिसिथितियों के आगे हार जाता है। सविता जी की भी ऐसी हालत थी। अच्छी पढ़ी लिखी, सरकारी नौकरी से रिटायर दो होनहार बच्चों की गर्वित माँ , पति की भी बढ़िया नौकरी, सब कुछ तो था उसके पास। बच्चों को पढ़ाया, शादियां हुई, अपना आशियाना बना । समय गुजरता हुआ, बच्चे जवान हुए तो मां बाप बूढ़े, यही प्रकृति का नियम है।
कहते है न बच्चे , बूढ़े एक समान होते है, लेकिन व्यवहार बदल जाता है।बच्चा एक ही बात बीस बार पूछे तो मां या बाप उस पर बलिहारी जाते हुए उसका जवाब देगें। पार्क में तितलियों के पीछे भागते बच्चे ने पूछा,” ये क्या है , तितली, मां ने कहा, बच्चे ने हंसते हुए फिर पूछा , मां ने फिर वही जवाब दिया। न जाने कितनी बार बच्चे ने यहां वहां भागकर यही सवाल किया और मां ने हर बार और भी खुशी से जवाब दिया।
लेकिन बड़े होकर बुजर्ग एक से दूसरी बार कुछ पूछ ले तो अक्सर सुनने को मिलेगा, रहने दो आप को समझ नहीं आएगा, या फिर मेरे पास समय नहीं, ऐसे ही ढ़ेरो जवाब। लेकिन कोई यह नहीं सोचता कि यह समय सब पर आएगा। कर्मों का चक्कर तो चलता ही रहेगा, पता नहीं किस मोड़ पर क्या हो जाए।
और आज तो बेटी बेटे भी कोई फर्क नहीं। कुछ अपवाद छोड़ दिए जाए तो बेटियों को ज्यादा प्यार मिलता है। बेटियां भी मां बाप की बहुत केयर करती है। ससुराल में रह कर भी वो मायके से ज्यादा जुड़ी रहती है। हर बेटी बहू है और हर बहू किसी की बेटी है। लेकिन बहू बनते ही न जाने क्या हो जाता है। माना कि हर घर में ऐसा नहीं होता लेकिन इस बात से इनकार भी नहीं किया जा सकता।
बात कर रहे थे सविता जी की। सत्तर की उम्र हो चली थी।रिटायरमैंट के बाद घुटनों का आप्रेशन करवाना पड़ा। एक ही साल में पहले उन्के पति रमाकांत का और फिर उन्की आंखों का आप्रेशन हुआ। बेटे रितेश और बहू चाहत की लव मैरिज थी। चाहत की एक और बहन भी थी। उसी शहर में घर था। चाहत के पिताजी कहने को तो पत्रकार थे लेकिन उनका काम में मन नहीं लगता था। पैसे तो काम करने से ही मिलते हैं।
मुशकिल से गुजारा होता। चाहत और उसकी छोटी बहन सुरभि मुशकिल से दंसवी पास कर पाई। ये भी उनकी मां की हिम्मत थी जो कि कपड़ो की सिलाई करके घर खर्च चला रही थी। दोनों बहने सुदंर तो थी ही, किस्मत की भी धनी निकली। अच्छे घरों में बिना लेन देन के बल्कि यूं कहो कि लड़के वालों के खर्च पर ही शादियां हो गई। उधर चाहत के मां बाप की भी उम्र हो चली। अपना एक घर तक नहीं बना पाए। आमदन थी नहीं। लड़कियों के सिर पर ही घर चलता , सुरभि तो दूसरे शहर में थी, कुछ पैसे भेज देती लेकिन चाहत उसी शहर में थोड़ी दूरी पर ही रहती थी।
ससुराल में जितने ठाठ बाठ , मायके में उतनी तंगी, पति ब्रिजेश को तो अपनें काम से ही फुर्सत नहीं मिलती था, सविता जी खुले विचारों वाली थी, उन्हें चाहत के मायके से कभी कोई शिकवा नहीं रहा, वो दोनों पति पत्नी अपने मस्त रहते। दोनों की पैंशन अच्छी थी। चाहत घर पर रहे या मां बाप के पास जाए, उन्होंने कभी नहीं पूछा। घर के काम के लिए मेड थी।
लेकिन दो साल पहले पति के अचानक देहांत से सविता टूट गई। इस समय जरूरत थी उनहें किसी के सहारे की। कितनी भी कोशिश करती लेकिन अभी तक संभली नहीं थी। बेटी कुछ दिन रही, लेकिन उसकी अपनी गृहस्थी थी, ब्रिजेश भी काम पर चला जाता, पोती स्कूल , सिर्फ चाहत ही घर पर होती। हालाकिं मेड सारे काम कर देती थी, लेकिन सविता जी का मन करता कि चाहत उनके पास दो घड़ी बैठे, कुछ बात करे, लेकिन चाहत ये सोचती कि सब कुछ तो उन्हें मिल रहा है, और क्या चाहिए।
एक काम कह दो तो चार बार सुनाती और मुंह सा बना कर चली जाती।हफ्ते में तीन चार बार गाड़ी से मां के पास जाना, बाजार घूमने जाना और अगर बहन आ गई तो बिल्कुल भी फुर्सत नहीं। उसकी शुरू से आदत रही कि उसने ब्रिजेश से कभी चाहत के व्यवहार की बात नहीं की।हर मां की तरह वो बेटे का बसा घर ही देखना चाहती थी।
सविता की छोटी बहन सुशीला उससे मिलने आई। बहन की हालत उससे देखी न गई। आई तो दो दिन के लिए थी लेकिन पद्रंह दिन रह गई। वो बहन जो हर समय सजी धजा रहती थी, उसका ये हाल। न ढ़ग के कपड़े, खिचड़ी बाल, उम्र से दस साल बूढ़ी लग रही थी।क्या कमी है तुझे, अच्छा खासी पैंशन है तेरी, जीजाजी की भी फैमिली पैंशन , कुछ सेविंगस तो होंगी। आ चल बाजार चलें, ए. टी. एम. ले ले अपना।
क्या करूगीं बाजार जाकर, कुछ नहीं लेना, कौन है देखने वाला, सविता बोली। “ दीदी, किसी के जाने से जिंदगी नहीं रूक जाती, माना कि कमी पूरी नहीं होती, लेकिन जीना तो पड़ता है, सुशीला ने कहा।” चाहत बहू दीदी का बैंक कार्ड देना, कुछ सामान खरीदना है। चाहत को मजबूरन कार्ड देना पड़ा।
पद्रहं दिन रह कर सुशीला ने उसे न सिर्फ सदमें से कुछ बाहर निकाला बल्कि उसका हुलिया चेंज कर दिया। पार्लर से लेकर , सब सामान ले दिया और उसकी सहेलियों को भी मिलाया।
किस्मत की करनी, चाहत के बाप को दिल का दौरा पड़ा, प्राईवेट हास्पिटल ले गए, एक दिन के बिल से ही चाहत के होश उड़ गए, सविता और ब्रिजेश के पैसे पर ऐश करने वाली का बाप अब सरकारी हस्पताल में है। आप्रेशन की डेट नहीं मिल रही। न कोई पैसे है और न ही बीमा किया हुआ।
दामाद भी कितना खर्च करें, दिन रात हस्पताल के चक्कर लगा लगा कर चाहत की जान आफत में आई पड़ी है। सुरभि दूसरे शहर में और ब्रिजेश की नौकरी। चाहत को अब समझ में आ रहा है कि कर्मों का फल इसी धरती पर भुगतना पड़ता है, देर सवेर से ही। कर्मों का चक्कर तो चलता ही रहेगा।
सविता ने अब अपने आप को संभाल लिया था। उसने अपनी सहेली की जानकारी से चाहत के पिता के लिए जल्दी ही आप्रेशन की डेट भी ले दी और आर्थिक मदद भी की।
दोस्तों इस कहानी का सिर्फ यही अभिप्राय है कि आजकल परिवार छोटे हो गए है, लड़की हो या लड़का मां बाप की सेवा का फर्ज तो बनता है। लड़कियां भले ही अपने मां बाप का जरूर ध्यान रखे, लेकिन सास ससुर भी उनका ही परिवार है। अगला जन्म है या नहीं लेकिन अपनी और से अच्छे कर्म ही करते रहना चाहिए, बाकी जो किस्मत को मंजूर!
विमला गुगलानी
चंडीगढ़
वाक्य -कर्मों का चक्कर तो चलता ही रहता है।