अपहरण का बदला – रवीन्द्र कान्त त्यागी

रात के दो बज रहे हैं। आंखों में नींद का नामोनिशान नहीं है। मेरी पत्नी अनुष्का अपने तीन साल के वैवाहिक जीवन को ठोकर मार कर चली गई है। बरसों से मेरे हृदय में उसके लिए बसे अगाध प्रेम, समर्पण और विश्वास को एक तीन पंक्ति के कागज के पुर्जे से तार तार करके,

मेरी कोमल भावनाओं को अपनी नुकीली हील की चप्पलों के नीचे कुचलती हुई वह चली गई है। “जाओ… भाड़ में जाओ तुम। में कोई नपुंसक कापुरुष नहीं हूं जो तुम्हारे वियोग में रो-रो कर जान दे दूंगा।

सीख लूँगा जीना तुम्हारे बिना भी। और… और क्या नहीं किया मैंने तुम्हारे लिए। अपने मां-बाप की इच्छा के विरुद्ध तुमसे विवाह किया। अपना घर छोड़ा। शहर छोड़ा। अपने जीने का अंदाज तक बादल डाला तुम्हारे कहने पर।

तुमने कहा कि तुम्हारी भाषा से मध्यम वर्गीय कस्बयी संस्कृति की बू आती है तो अच्छी भली हिंदी छोड़कर खिचड़ी हिंग्लिश बोलने की आदत डाली।

तुमने कहा क्लब में लोगों के साथ जाम नहीं टकराओगे तो बैकवर्ड कहलाओगे तो मैंने वह भी किया। तुमने तथाकथित हाई सोसाइटी का अंग बनने के लिए जो कहा मैंने वो किया। अपना मूल स्वरूप ही बादल डाला।                                                                                                                       फिर भी तुम चली गई अनुष्का। 

तुम क्यों चली गई अनु। देखो तुम्हारे बिना मैं कितना अकेला हो गया हूं। यह घर, इस घर में तुम्हारे हाथों से सजाई गई एक-एक चीज मुझे काटने को दौड़ती है। तुम तो कहती थीं कि मैं तुम्हारे लिए अपने सारे बंधन तोड़कर तुम्हारी दुनिया में चली आई हूं।

हमेशा के लिए। तुम तो कहती थीं कि मैं तुम्हें एक छोटी सी सुंदर सी गुड़िया दूंगी जिसमें थोड़ी सी मेरी झलक दिखाई देगी और थोड़ी सी तुम्हारी। आह, लौट आओ। प्लीज लौट आओ। मैं एक बहुत कमजोर आदमी हूं। तुम्हारे बिना जी नहीं पाऊंगा प्रिये। मर जाऊंगा।”

एक और रात भी इसी प्रकार विलाप करते हुए गुजर गई। फिर धीरे-धीरे कई रातें और फिर कई हफ्ते। वेदना और विरह भरी रातें और आशा व प्रतीक्षा भरे दिन। रोज सुबह उठकर सारे घर की सफाई करवाता। एक-एक चीज को इस तरह से सजाता था जैसे अनु सजाती थी। घर का ताला लगाकर चाबी पड़ोस में छोड़ जाता कि ना जाने किस दिन अचानक अनुष्का लौट आएगी और अपने घर को वैसा का वैसा पाकर खुशी से झूठ उठेगी। फिर हम सारे गिले शिकवे भूल कर एक दूसरे में खो जाएंगे। ऑफिस से लौटते वक्त मानो चाल में पंख लग जाते थे। लगता कि वो द्वार पर खड़ी पलकें बिछाये मेरा इंतजार कर रही होगी किंतु जब द्वार पर वही ताला लटका मिलता तो मन टूट टूट जाता।

और उस दिन… उस दिन सब खत्म हो गया। एक छोटा सा लिफाफा दरवाजे के बाहर झांक रहा था। “शायद हम दोनों एक दूसरे के लिए नहीं बने थे। फिर भी तुम्हारे साथ गुजारे ये साल बुरे नहीं थे। बस अपनी जड़ों से उखड़ने की टीस कभी भुला नहीं पाई। शायद जन्म से बड़े होने तक अपने साँचे में ढल कर ठोस हो गए बर्तन को कोई नई शक्ल नहीं दी जा सकती। लेकिन हम दोनों एक दूसरे पर यह प्रयोग करते रहे। खैर मैं भी अब जिंदगी को नए सिरे से बुनने का प्रयास करती हूं और तुम भी इसके लिए स्वतंत्र हो। मैं जड़ नहीं रह सकती। चेतन होना चाहती हूँ। फिलहाल विदेश जा रही हूँ। जरूरत होगी तो डायवोर्स की औपचारिकता बाद में पूरी कर लेंगे। और हां… यार, तुम भावुक आदमी हो। हमारे इस सेपरेशन को सहज ढंग से लेना प्लीज। स्वयं को तो इसका दोषी बिलकुल मत समझना। एक ही तो जिंदगी है। चलो, एक बार इसे नए ढंग से जीकर देखते हैं। तुम भी और मैं भी। फोन करूंगी। मैं यह नहीं भूलूँगी कि कभी हम पति-पत्नी थे।”

पत्र पढ़ते-पढ़ते मेरा बदन पसीने से भीग गया। मेरे हाथ पैर कांपने लगे। जैसे बर्फ से भी ठंडी छुरी किसी ने हृदय में गहरे तक उतार दी हो। मैं अपने स्थान पर खड़ा नहीं रह पाया और धम्म से कुर्सी पर बैठ गया।

वो रात मेरे जीवन की सबसे भयानक रात थी। आशा का एक दीप जो मेंने आंधियों से बचाकर अपने दिल में जलाए रखा था भक से बुझ गया था और मैं गहरे अंधेरे के गर्त में जा गिरा था। कभी लगता कि अभी इसी वक्त तिनके तिनके से सजाये इस घरौंदे को आग लगा दूं कि एक-एक वह चीज जो हमारे मधुर अतीत की चश्मदीद थी, एक-एक वो लम्हा जिसे हमने चरम तक जिया था, जलकर खाक हो जाये। ये आंखें जिन्होंने उसके रूप के रस को जी भर पिया था, यह हृदय जिसकी गहराइयों तक उसके अकूत प्रेमचिन्ह अंकित थे और यह बदन जिसमें उसकी देह की खुशबू बसी थी, सब भस्म हो जाएँ। शराब या इससे भी जहरीला नशीला कोई पदार्थ अपने भीतर भर लूँ जो मेरे अस्तित्व को निगल जाय। ना जाने कितनी देर तक विलाप करता रहा। घर के कई चीज तोड डालीं। दीवार पर सर मार कर स्वयं को घायल कर लिया और न जाने कब निढाल होकर बिस्तर पर लुड़क गया।

कोई जोर-जोर से दरवाजा पीट रहा था। घड़ी में सुबह के ग्यारह बजे थे। शरीर में इतनी भी शक्ति नहीं बची थी कि उठकर दरवाजा खोल सकूँ। कोई जोर-जोर से दरवाजा खटखटा रहा था। सारी शक्ति लगाकर किसी प्रकार दरवाजा खोल।

पड़ौस में रहने वाले सत्यार्थी जी दरवाजे पर खड़े थे।

“क्या बात है चंद्रा जी। इतनी देर से दरवाजा खटखटा रहा हूं। सुबह से बाहर भी नहीं निकले। तबीयत तो ठीक है ना।”

फिर मेरी हालत देखकर चौंक कर बोले “अरे यह क्या हालत बना रखी है। सर में चोट कैसे लग गई। क्या हुआ भाई। कुछ तो बताओ।”

मेरी रुलाई फूट पड़ी। उन्होने मुझे सीने से लगा लिया और सांत्वना दी।

सत्यार्थी जी एक स्वयंसेवी संस्था से जुड़े हुए थे जो पिछड़े, वनवासी व आदिवासियों के लिए काम करती थी। उन्हें मेरे और अनुष्का के बारे में सब मालूम था। संभव है उस समय उन्होंने मुझे नहीं संभाल होता तो मैं टूट कर बिखर गया होता और कब का समाप्त हो गया होता। 

“सुना है काम पर भी नहीं जा रहे हो। ऐसे कब तक चलेगा भाई। क्या सोचा है आगे का। कुछ तो बताओ।”

“ये घर, ये शहर, सब छोड़ देना चाहता हूं। किसी ऐसी जगह चले जाना चाहता हूं जहां मेरे अतीत की यादें ना हों। दूर दूर तक न कोई अपना ना पराया।”

“तो किसी दूसरे शहर में कोई अच्छी सी नौकरी क्यों नहीं ढूंढ लेते। तुम्हारे पास तो योग्यता है, अनुभव है, डिग्री है। अरे, अभी तुम्हारी उम्र ही क्या है अभिनव। नई जिंदगी शुरू करो। नया घर बसाओ।”

“नहीं भैया जी। अब यह सब नहीं हो पाएगा मुझसे। अपना तो कोई बचपन से ही नहीं था। और फिर अनुष्का के प्रेम प्रवाह में बहकर अपने परिवेश से भी दूर निकल आया था। अब किसके लिए करूँ नौकरी। किसके लिए जिऊँ। उसने गमन ने मेरे जीवन को पूरी तरह मरुथल बना दिया है दादा। अब इस जीवन में तो कोई उसका स्थान नहीं ले सकती।”

“क्या वैराग्य लेना चाहते हो।” उन्होंने कंधे पर हाथ रखकर कहा।

“वैराग्य! कैसे लूं वैराग्य। किस पंथ में जाऊं। मैं अर्ध नास्तिक कैसे हृदय से ईश्वर की सत्ता को स्वीकार कर पाऊँगा भला।”

“अर्ध नास्तिक कुछ नहीं होता। तुम आस्तिक हो। वैसे मेरी दृष्टि से भी मानव सेवा से बड़ा कोई धर्म नहीं है चंद्रा जी। इस एक अरब की आबादी के देश में आधे से ज्यादा लोग अंधविश्वास, अशिक्षा, शोषण और धूर्त राजनीति के चक्रव्यूह में फंसकर जानवरों से भी बदतर जिंदगी जीने को मजबूर हैं। तुम अपने अस्तित्व को समाप्त करने की बजाय उनके लिए इस जीवन का उपयोग क्यूँ नहीं करते। तुम चाहो तो मैं तुम्हें प्रकृति की गोद में बसे वनवासियों के बीच  कार्य करने के लिए अपनी संस्था के माध्यम से तुम्हें भेज सकता हूं। कुछ दिन काम करके देख लो। जब मन बादल जाये दोबारा सामान्य जिंदगी शुरू कर सकोगे।”

“कहीं भी भेज दो दद्दा। बस यहाँ से दूर।” मैंने लगभग रोते हुए कहा।

इस से पहले कि ये बिछोह और अकेलापन मुझे मार डाले मैंने सत्यर्थी जी के निर्देश में इस परिवेश से दूर हट जाने का निश्चय कर लिया था।

ये शहर से 40 किलोमीटर दूर वनों से घिरा हुआ हजार बारह सौ की आबादी का एक गांव था। पहले दिन भोजन की व्यवस्था सत्यर्थी जी के परिचित, गांव के एक संपन्न किसान साहू जी के घर पर थी। माथे पर उम्र और अनुभव की गहरी लकीरें लिए बुजुर्ग साहू जी व उनके जवान बेटे ने बड़े प्रेम से भोजन कराया।

“बड़ा आनंद रहा आपके सानिध्य में साहू जी। लगता है आप इस क्षेत्र के सबसे संपन्न जमींदार हैं।” मैंने कहा।

“जमींदार… नॉट लाइक दैट फिल्मी जमींदार। जिसके घर की दीवारों पर बंदूक टंगी रहती हैं और किले जैसी हवेली के बाहर घोड़े और बड़ी-बड़ी मूंछों वाले लड़ाके, लठैत बैठे रहते हैं। फिल्मी जमींदार साहब आंगन में दोस्तों के साथ बोतल खोल कर बैठते हैं और मुजरा हा हा हा।  हम तो सीधे-साधे किसान हैं चंद्रा जी। खेतों में हाड़ तोड़ मेहनत और आधुनिक तकनीक से खेती करके दो वक्त चैन की रोटी खाते हैं, बस।”

“मगर आप के और गांव के लोगों के जीवन स्तर में तो बहुत बड़ा अंतर तो है। एक ओर संपन्न किसानों के पास सुख सुविधा के सभी साधन मौजूद हैं और दूसरी ओर लोगों के पास खाने को रोटी तक नहीं है। ये असमानता…।”

“आप कम्युनिष्ट तो नहीं हैं? साहू जी ने एकदम गंभीरता के साथ कहा। फिर एकदम हो हो करके हंसने लगे। “देखिए चंद्रा जी, यह हमारी पुश्तैनी जमीन है। समानता लाने के लिए मैं क्यों अपनी जमीन किसी को दे दूं। क्या शहर की ऊंची अट्टालिकाओं में रहने वाले धनपतियों से किसी ने कभी पूछा है कि तुम्हारे घर में आदमी तो दो हैं मगर गाड़ियां छह क्यों हैं। जितनी जगह में छोटे घर बनाकर हजारों परिवार रह सकते हैं उससे अधिक क्षेत्रफल में गोल्फ क्लब क्यों बना रखे हैं जहां दो करोड़पति कई कुलियों के साथ दो चार महीने में एक बार छोटी सी गेंद में बड़ी नजाकत के साथ स्टिक मारते हैं। अब देखिये ना, सारे साहित्य में, नाटकों में और फिल्मों में क्रूर विलासी जमींदार ही भरा पड़ा है। जो मसाज कराने भी थाइलैंड जाते हैं उनका कहीं कोई जिक्र नहीं है।”

“अरे आप तो गंभीर हो गए साहू जी। लंबे समय तक साहित्य, रंगमंच और फिल्मों पर साम्यवादियों का कब्जा रहा है और मैंने भी उनका साहित्य खूब पढ़ा है किन्तु मैं कोई भूमि हथियाओ या भूदान वाले बचकाने आंदोलनों का समर्थक नहीं हूँ। बस मेरी कल्पना है कि नारकीय जीवन जी रहे इन वनवासियों को भी रूढ़ियों, व्यसनों, और अंधविश्वासों से दूर हटाकर इनकी दरिद्रता समाप्त करने के लिए कोई अभियान…।”

“कौन चलाएगा अभियान। वो जो चुनाव के समय वोट की खातिर स्वयं शराब के दरिया बहा देते हैं। जो पूरी दुनिया को मजहब के नाम पर रक्त के सागर में डुबो देना चाहते हैं। कौन चलाएगा अभियान। अभिनव जी, अनपढ़ गरीब और डरे हुए अभावग्रस्त आदिवासी सबके लिए नर्म चारा हैं। वोट के लिए लार टपकाते सत्तालोलुप नेताओं के लिए। चंद सिक्के फेंक कर धर्म बदलवाने वाले छद्म धर्मात्माओं के लिए। डरा धमका कर बेगार लेने वाले ठेकेदारों के लिए और कुत्तों की तरह जिंदा गोश्त टटोलकर अय्याशी करने वाले नरपिशाचों के लिए। सबके लिए यह बेचारे सहज सुलभ चारा हैं।” उनके लड़के ने कहा।

“चंद्रा जी आप एक अच्छे उद्देश्य के लिए आए हैं। हम हमेशा आपके साथ हैं। कभी भी कोई जरूरत हो तो बताइएगा।” बुजुर्ग बोले और मैं चला आया।

अगले दो दिन मैं गरीब बस्तियों को घूमता रहा। लोगों के पास न पहनने के कपड़े थे और ना खाने की रोटी। आदिवासी और वनवासी कहे जाने वाले लोग अपनी परंपरागत प्राकृतिक जीवन शैली से कब के महरूम हो चुके थे। वनों पर ठेकेदारों, बाहुबलियों और हक दिलाने के नाम पर हाथ में हथियार थमाने वाले नक्सलवादियों का कब्जा था। न जाने कितने परिवारों से मैंने  शिक्षा के प्रति जागरूक रहने का अनुरोध किया मगर पहली बार ऐसा लगा कि बार बार धोखा खाकर  वर्तमान व्यवस्था से इन लोगों का मोहभंग हो गया है। अब उन्हें किसी सरकार से या किसी संस्था से कोई अपेक्षा नहीं है। सीधे-साधे ग्रामीण और वनवासी इतनी बार ठगे गए हैं कि किसी अजनबी से बात करने में भी कतराने लगे हैं।

अपनी डूबती जिजीविषा को जागृत करने के लिए और मस्तिष्क पर छाए अतीत के अवसाद को मिटाने के लिए रोज सुबह पाँच बजे उठकर दूर तक स्वच्छ हवा और घने जंगलों में चहकते पक्षियों के कलरव का आनंद लेता। सात बजे विद्यालय पहुंचकर स्वयं सफाई करता। फूलों की क्यारी में पानी देता और आठ बजे घंटी बजाकर स्कूल शुरू होने का ऐलान करता। इनफॉरमेशन टेक्नोलॉजी के इंजीनियर और गांव के प्राइमरी स्कूल के चपरासी, कम मास्टर, कम प्रधानाध्यापक के कार्य में यदि कोई अंतर था तो केवल इतना कि यहां प्रत्येक कार्य करने के बाद असीम मानसिक शांति का एहसास होता था। मेरे अथक प्रयास से धीरे-धीरे पहले छह सात और फिर बीस बाईस छात्र स्कूल में पंहुचने लगे थे।

बढ़िया बारिश होकर थम गई थी। सुहाने मौसम में बच्चों को सामाजिक ज्ञान पढ़ा रहा था। कक्षा के पिछले दरवाजे से एक बालक ने प्रवेश किया। उम्र लगभग आठ या नौ साल, रंग सांवला, बाल घुंघराले, आंखें बड़ी-बड़ी और गहरी। उसके व्यक्तित्व में एक अजीब प्रकार का सम्मोहन था मानो भगवान श्री कृष्ण की बाल्य काल की तस्वीर कैलेंडर से उतरकर साक्षात चली आई हो। “क्या नाम है तुम्हारा।” मैंने पूछा।

“जी गंतु नाम है मेरा। गंतु कनेरी।”

“गंतू, ये क्या नाम हुआ भला।”

“जी यही नाम है मेरा। आप परसों बस्ती में आए थे पढ़ने को कहने। इसीलिए माँ ने भेजा है।” उसने स्वाभिमान से कहा। बालक में गजब का आत्म स्वाभिमान था। उसका शारीरिक सौष्ठव और अल्हड़पन इसकी रगों में दौड़ रहे वनवासी खून की गवाही दे रहा था।

थोड़े ही दिनों में मैं उसे अन्य बालको से अधिक स्नेह करने लगा था। गंतु भी अपने मास्टर जी का पूरा ध्यान रखता था। कभी जंगली महुआ के फूल कभी कैत के खट्टे फल और कभी कच्ची इमली तो कभी शहद टपकता मधुमक्खी का छत्ता लिए भाग चला था। जब मैं प्यार से उसके सिर पर हाथ फेरता तो ऐसी दग्ध दृष्टि से मेरी ओर देखत मानो उसके हृदय में पितृ तुल्य स्नेह कक्ष में असीम रिक्तता पसरी पड़ी हो।

गांव के लोगों में बैठकर स्वास्थ्य और शिक्षा संबंधी बातें करना, साहित्य और दर्शन की किताबें पढ़ना, स्कूल के लिए अधिक से अधिक छात्र-छात्राओं को जोड़ना और जंगल के सुरम्य वातावरण के मनोग्राही सौंदर्य में गहरे डूबते उतरते दिन कट जाता। फिर दिवावसान में अपने हाथों पकाई रूखी सूखी खाकर सो रहना, यही मेरी दिनचर्या थी। निस्वार्थ सेवा के आत्मिक संतोष ने मुझे अनुष्का की बिछोह पीड़ा से उभार कर जीने के नए कारण स्थापित कर दिए थे।

एक दिन गंतू स्कूल नहीं आया। पिछले छह माह से यह पहला अवसर था जब वह कक्षा से अनुपस्थित था। शुरू में तो मैंने विशेष ध्यान नहीं दिया किंतु जब वो कई दिन स्कूल नहीं आया तो एक शाम मैं पूछता पूछता उसके घर गया।

यह एक उमस भरी शाम थी। बस्ती में जगह जगह बरसात का गंदा पानी भरा हुआ था जिसमें उनके द्वारा पाले गए सूअर किलोल कर रहे थे। चारों ओर गंदगी मच्छर और दरिद्रता का साम्राज्य था। टूटी सी चारपाई पर एक कृशकाय सा आदमी नशे में धुत्त पड़ा था जिसके मुंह पर मक्खियाँ भिनक रही थीं। झोपड़ी के भीतर मिट्टी के तेल की ढिबरी के पीले प्रकाश में पीला कमजोर चेहरा लिए गंतू बुखार से तप रहा था। मुझे देखते ही उसके चेहरे पर कई भाव आए और चले गए। मैंने गंतू से इलाज के बारे में पूछा तो उसने खाट के पाये में बंधी जंतर मंतर की पोटली, गले में बंधे ताबीज और माथे पर लगी भभूत की ओर संकेत किया।

अगले दिन वहाँ उपलब्ध एक झोलाछाप डॉक्टर को मैंने कुछ सामान्य दवाइयों के संबंध में निर्देशित करके वहां भेजा तो उन लोगों ने उसे भगा दिया। उन्होने कहा कि इस से देवता नाराज हो जाएंगे और हमारा बच्चा मर जाएगा।

तीसरे दिन शाम को मैं दोबारा गंतू का हाल-चाल जानने उसकी बस्ती में गया तो वहां का माहौल देखकर दंग रह गया। आग जल रही थी और घर के सारे सदस्य उसके चारों तरफ बैठे थे। एक विकृत से चेहरे वाला ओझा टाइप आदमी स्फुट से शब्द बोल-बोलकर आग में कुछ फेंक रहा था।

ओझा का आधा बदन नंगा था। उसने कई प्रकार के मनकों और कौड़ियों की माला पहन रखी थीं। उसने रीछ जैसे बालों वाले शरीर पर राख़ सी लपेट राखी थी। ओझा के सामने रक्त में सना गर्दन कटा मुर्गा, देसी शराब की बोतल, सिंदूर, नींबू, और मछली के कटे टुकड़े पड़े हुए थे। पूरे घर में शराब और

मांस जलने की दम घोटू बदबू भरी पड़ी थी। कई पल अंधेरे में खड़ा ध्यान से सारे कर्मकांड को देखता रहा। ओझा बार-बार कभी अनाज की पोटली, कभी शराब की बोतल तो कभी कटे मुर्गे की देह छप्पर में टूटी खाट पर पड़े बुखार में तप रहे रुग्ण बालक के पास ले जाता। उसके सिर के चारों तरफ

घुमाता और अपने झोले में समेट कर रख लेता। देर तक कर्मकांड देखने के बाद मैं अंधेरे का लाभ उठाकर झोपड़ी का चक्कर काटकर पीछे के द्वार से गंतू की खाट के पास पहुंच गया। वो मूर्छित अवस्था में हांफ रहा था

जैसे जीवन के लिए अंतिम प्रयास कर रहा हो। एक मासूम, इस क्रूर, अंधविश्वासी, अनपढ़, गंवार और रूढ़ियों से घिरे हुए समाज और गरीबी से ग्रस्त परिवार की मुफ़लिसी की भेंट चढ़ जाएगा। स्पष्ट प्रतीत हो रहा था

कि यदि उसे तुरंत उचित चिकित्सा नहीं मिली तो किसी भी समय उसकी सांसें थम सकती हैं। मैं कई क्षण उसके पास खड़ा रहा कि इस बार जब ओझा उसके निकट आएगा तो मैं बालक की उचित चिकित्सा के लिए अनुरोध करूंगा। भले ही इसके लिए मुझे उसके पाँव ही पकड़ने पड़ें या कुछ पैसे देने पड़ें।

थोड़ी देर बाद कुछ वस्त्र और एक कटोरे में शराब जैसा कोई तरल लेकर ओझा गंतू के करीब आया। मुझे वहां देखकर अचकचा कर खड़ा हो गया। मैंने अपने स्वर को बेहद याचना पूर्ण बनाते हुए कहा “देखिए महोदय मैं गंतू का अध्यापक हूं।

मुझे लगता है कि ये इस समय बहुत बीमार है। इस को इस समय उचित इलाज… मेरा मतलब है कि डॉक्टर… अरे इसे ऐलोपैथी के डॉक्टर से इलाज की जरूरत है भाई। वरना ये मर जाएगा। आप चाहे तो मैं इसे शहर…।”

मेरी बात अभी पूरी भी नहीं हुई थी कि ना जाने ओझा को क्या लगा। उसका चेहरा क्रोध के मारे एकदम विकृत सा हो गया। शायद उसने सोचा कि जो माल यह बालक के मां-बाप से एंठ रहा था मैं उसमें बाधा बन कर आया हूं।

इस क्षेत्र में जो उसकी धर्मसत्ता चल रही है मैं उसे भंग कर दूंगा। उसने जोर-जोर से चिल्लाना शुरू कर दिया। बाहर कर्मकांड में बैठे लोग उसी ओर लपके। ओझा मेरी ओर संकेत करके जोर-जोर से चिल्ला रहा था। नशे में धुत्त सुर्ख आंखों वाले दर्जन भर लोग हाथों में बरछी, भाला, तीर कमान लिए मेरी और बढ़ रहे थे।

एक पल को तो मुझे लगा कि आज मेरी जीवन लीला समाप्त हो गई समझो। वे जंगली जानवरों पर प्रयोग होने वाली आखेट कला का प्रयोग करने ही जा रहे थे कि एक चमत्कार हो गया। अचानक गंतू की माँ न जाने क्या सोचकर, मेरी ढाल बनकर सामने खड़ी हो गई और उन्होने मुझे वहां से निकल जाने को कहा।

घर लौटते समय मेरे पांव में मानो किसी ने चक्की के पाठ बांध दिये थे। सावन की ठंडी बयार किसी दावानल की तप्त लपटों से बदन को झुलसाये दे रही थी। मेरे शरीर का सारा रक्त मानो पानी बनकर बह गया था। मुझे लग रहा था कि मैं पेड़ पर ही गल गए पीले पत्ते की तरह डाल से टूटकर धूल में मिल जाने को अग्रसर हो गया हूँ।

जीवनहीन, स्पंदनहीन, मृत, पिला पत्ता। मेरी टांगे मेरा बोझा उठाने में स्वयं को असमर्थ अनुभव कर रही थी। मैं माथा पड़कर सीडियों पर बैठ गया। मेरा अंतर मन चिल्ला चिल्ला कर कह रहा था कि तुम कायर और नाकारा आदमी हो। कहीं ना कहीं तुम्हारे पौरुष में दोष है। अनुष्का यूं ही तुम्हें छोड़कर नहीं चली गई है।

आए तो थे समाज को बदलने और अंधविश्वास व रूढ़ियों की जंजीरों को तोड़ने मगर स्वयं टूट कर बिखर  गए हो। एक मासूम को पाखंडी अजगर के खूनी जबड़े में फंसकर मरता छोड़कर कायरों की तरह भाग आए। धिक्कार है तुम्हारे यौवन पर।

तुम्हारे जीवन पर। मैं अच्छी तरह जानता था कि यदि आज रात कुछ नहीं हो पाया तो सुबह तक गंतू मर जाएगा और मैं पूरे जीवन इस अपराधबोध से मुक्त नहीं हो पाऊंगा। अभी या कभी नहीं। सोचने के लिए समय ही नहीं है।

अचानक एक दृढ़ निश्चय के साथ मेरे खून में ऊष्मा का संचार होने लगा। मेरा पौरुष मुझे इसी पल कुछ कर गुजरने के लिए ललकार रहा था। अगले ही क्षण मेरी मोटरसाइकिल दोबारा बस्ती की तरफ दौड़ पड़ी।

रात का लगभग एक बजा था। मुक्त हस्त से जो सुरा प्रसाद का वितरण और आचमन किया गया था उसी का परिणाम था कि पूरा मोहल्ला गहरी नींद में गाफिल था। छप्पर के अंदर से हल्के कराहने की आवाज आ रही थी। मैं उसी और बढ़ गया।

गंतू मूर्छित अवस्था में धीरे-धीरे कराह रहा था। उसका माथा तवे की तरह तप रहा था। होठों पर सूखकर सफेद पपड़ी जम गई थी और शरीर अस्थि पंजर बनकर रह गया था। मैंने उसे धीरे से झकझोरा। उसने अपनी सारी जिजीविषा समेटकर शायद जीवन की आखिरी उम्मीद के साथ अधखुली आंखों से मेरी और देखा।

अपने शेष जीवन में उन निगाहों को नहीं भूल सकता। मुझे लगा कि उन आँखों में जहां एक ओर मृत्यु का भय था वही दूसरी ओर मानो मुझ से पूछ रही थीं कि “क्या मैं मर जाऊंगा। क्या तुम भी मेरे लिए कुछ नहीं कर सकते। क्या मुझे जिंदा रहने का कोई हक नहीं।”

दुनिया में कई प्रकार के जुनून होते हैं किंतु मन की इस अवस्था को ना मैने किसी साहित्य की पुस्तक पढ़ा है ना सिनेमा के परदे पर देखा है न अनुभव किया है। जैसे एक पागलपन मेरे सर पर सवार हो गई था। मैंने गंतू को बिस्तर से उठाया।

उसे मोटरसाइकिल पर अपने पीछे बिठाया और अपने साथ बांध लिया। शहर की ओर दौड़ पड़ा। तीन घंटे तक ना बाट का पता था ना रास्ते का। कभी मोटरसाइकिल किसी पानी के गड्ढे में घुसकर हमें सराबोर कर जाती तो कभी कंटीली झाड़ियां पैंट फाड़कर टांगों को लहूलुहान कर देती थी।

कभी कोई जंगली जानवर शोर सुनकर चौकड़ी भरता हुआ जंगल में लुप्त हो जाता तो कभी भूखे भेड़िया का रुदन मेरी हड्डियों को कंपा जाता था। मुझे तो यह तक पता नहीं था कि जिसे मैंने पीठ पर बांध रखा है उसमें जीवन भी है या मात्र मृत देह को स्वयं से बंधे निरर्थक ही…।

आह न जाने कब मेरा वाहन किसी पेड़ से टकराकर या किसी गहरी खाई में गिरकर मेरी जीवन यात्रा पर पूर्णविराम लगा देगा और कई दिनों बाद कोई चरवाहा या वनवासी इधर से गुजरेगा तो उसे जंगली जानवरों के अधखाए दो शव दिखाई देंगे। शायद मैं जीवन में पहली बार ईश्वर से प्रार्थना कर रहा था कि यदि मैने जीवन में एक भी ऐसा कार्य किया

हो जिसे पुन्य कहा जा सके तो मुझे विजय देना और इस बालक को जीवन। सुबह चार बजे जब मैं अपने डॉक्टर मित्र का दरवाजा पीट रहा था तो मुझे महाकवि रामधारी सिंह दिनकर की यह पंक्तियां याद आ गई। “खम ठोक ठेलता है जब नर, पत्थर के जाते पांव उखर।

मानव जब जोर लगाता है। पत्थर पानी बन जाता है।” सुविधाहीन पाषाण सा कठोर जीवन, प्राकृतिक आपदाओं के विरुद्ध संघर्ष और अंधविश्वासों में घिरे और अशिक्षित माता-पिता के असुरक्षित संरक्षण ने गंतु कनेरी को ऐसी अद्भुत इच्छा शक्ति और प्रतिरोधक क्षमता से भर दिया था

कि डॉक्टर तीसरे दिन कहने लगा “यार चंद्रा उस दिन तो नहीं लग रहा था कि हम इसे बचा पाएंगे। इस नरकंकाल मेन दोबारा जीवन फूँक पाएंगे। मगर चमत्कार हो गया है यार। चंद दिनों में ही फूल सा खिल उठा है तुम्हारा यह वन बंधु।

गंतू तो ठीक हो गया किंतु मेरे सामने कई प्रकार के कानूनी और सामाजिक संकट खड़े हो गए थे। पुलिस में रिपोर्ट हो गई होगी।

ओझा जैसे पाखंडी षड्यंत्रकारी, अशिक्षित और अंधविश्वासी ग्रामीणों में न जाने क्या-क्या जहर उगल रहे होंगे। गांव में मेरी छवि और संस्था में अपनी स्थिति को लेकर भी मैं चिंतित था। कोई रास्ता दिखाई नहीं दिया तो में गंतू को साथ अपने शहर वाले घर में ले आया था किन्तु समझ में नहीं आ रहा था कि अब क्या करूं। बालक उसके वास्तविक अविभावकों को मिलना ही चाहिए। ये उनका अधिकार है।

बहुत सोच समझकर मैंने एक दिन गंतू के पिता को पत्र लिखा।

“तुम्हारा बेटा मेरे पास है। बिलकुल स्वस्थ और सुरक्षित है। सोमवार सत्रह अगस्त को रेलवे स्टेशन पर आकर ले जाओ। और हां और अकेले आना।”

मैं और मेरा वनवासी मित्र इन दिनों दोस्त बन गए थे। हम साथ-साथ खाना खाते। कैरम खेलते। पार्क में घूमने जाते। खरीदारी करते और रात को सोने से पहले मैं उसे कहानियां सुनाता थ।

नियत तारीख को ग्यारह बजे से पहले ही हम दोनों तैयार होकर रेलवे स्टेशन पहुंच गए थे। मैंने गंतू के पिता के लिए कुछ मिठाइयां, कपड़े और फल खरीदे थे। गंतू का पिता अब रेलवे रेल से उतरा तो मैं उसे पहचान भी नहीं पा रहा था।

उसकी खिचड़ी दाढ़ी कटीले झाड़ सी बेतरतीब बढ़ी हुई थी। उसका चेहरा चिंता और अनिंद्र से पीला पड़ गया था। वह एकदम कमजोर बीमार और भयभीत नजर आ रहा था।

थोड़ी देर बदहवास सा इधर-उधर देखता रहा फिर माथा पकड़ कर एक बैंच पर बैठ गया। एक क्षण को तो मुझे लगा कि मैने उसके साथ अन्याय किया है मगर गंतू को नया जीवन देने के आल्हाद ने इस ख्याल को दबा दिया था।

मैंने धीरे से उसके कंधे को छुआ। मुझ पर निगाह पढ़ते ही पागलों की तरह मेरे पांव से लिपटकर रोने लगा। वो बार-बार अपना बेटा लौटने की गुहार लगा रहा था। उसने अपनी बगल से एक छोटी सी पोटली निकाली और मेरे सामने फैला दी।

पोटली में स्त्रियों के द्वारा सुहाग के चिन्ह के रूप में पहने जाने वाले बिछुए, चांदी के कुंडल और सौ पचास के कुछ तुड़े मुड़े नोट थे। उसने वो मैली सी पोटली मेरे पांव के पास रख रही और गंतू- गंतू कहकर ज़ोर से विलाप करने लगा।

उसने नए कपड़े पहने अपने स्वस्थ पुत्र की ओर एक बार भी नहीं देखा। गंतू जो चंद कदमों की दूरी पर खड़ा अपने पिता की दयनीय स्थिति को उदास निगाहों से देख रहा था, आगे बढ़ा और पिता के कंधे पर हाथ रखकर अरुण स्वर में बोला “बापू।” उसके इस एक शब्द ने विद्युत तरंग सा बापू को चमत्कृत कर दिया।

और बापू कई क्षण तक आंखें फाड़े अपने पुत्र के बदले हुए रूप को देखता रहा। जब पहचान गया तो फिर पलट कर मेरे पांव से लिपटकर बिलख उठा। “आप देवता हैं मालिक।

साक्षात भगवान का रूप हैं। सरकार मैं ही आपको पहचान नहीं पाया हुजूर। चार जूते लगाइए मेरे सिर पर। सजा दीजिये मालिक। मैंने आप को उल्टा सीधा बोला था।”

मैंने उसे उठाकर गले लगा लिया और उदास हृदय से दोनों को विदा किया।

  गंतू के जाने के बाद पता चला कि जब जिंदगी को एक उद्देश्य मिला गया था, एक नन्हा दोस्त मिल गया था तो समय का पता ही नहीं चलता था। एक लक्ष्य था कि बालक को पूर्ण स्वस्थ करके माता पिता को लौटना है।

उसके जाने के बाद एक बार फिर स्वयं को अकेला, असहाय, अपेक्षित, भाग्यहीन और निराशा अनुभव करने लगा। घर के हर कोने में उसके बेबाक सवाल, किलकारियाँ और  मासूम निगाहें दिखाई देती। समय पर खाना-पीना तक छूट गया था। निरुदेश्य जीवन इंसान को अवसाद के  गहरे कुहासे की ओर धकेल देता है। रात को देर तक कोई उपन्यास पढ़ता रहा सुबह। दिन चढ़ गया था। किसी के द्वार खटखटाने से तंद्रा लौटी।

द्वारा खोला तो आंखें फटी रह गई। गंतू, उसके पिता, ओझा, साहू जी, और तमाम गरीब आदिवासी हाथ जोड़े खड़े थे।

“मानेंगे नहीं ये लोग आप को वापस गाँव ले जाये बिना मास्टर जी।” साहू जी ने हँसते हुए कहा।

ना जाने कब उन्होंने मुझ पर अपना इतना अधिकार मान लिया था कि गांव लौट कर ले चलने के लिए पूछने की भी जरूरत नहीं समझी। बस मेरा कुछ सामान बांधा और मुझे अपने कंधों पर उठाकर ट्रैक्टर में बिठा लिया।

“अपहरण के बदले अपहरण” किसी ने कहा और सब लोग हंसने लगे।

रवीन्द्र कान्त त्यागी

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