आज फिर मनोहर जी पार्क का चक्कर लगाकर वापस आ गए, लेकिन सुधाकर आज भी घूमने नहीं आया था। मन में बहुत से विचार उठने लगे, “पता नहीं तबीयत ठीक है या नहीं??”
घर आकर भी उन्हें बेचैनी हो रही थी। उनकी पत्नी सरोज जी चाय लेकर आई तो उन्हें चिंता में देखकर पूछ बैठी ” क्या बात है जी ?? कुछ परेशान लग रहे हो।
“हूं… सुधाकर के बारे में सोच रहा था। भाभी जी को गुजरे दो महीने हो गए लेकिन सुधाकर अभी भी घर से बाहर नहीं निकलता। उसके बेटा बहु तो फिर भी कभी- कभी मिल जाते हैं| पता नहीं कहीं उसकी तबीयत खराब ना हो??,, मनोहर जी ने चिंतित स्वर में कहा।
“तो फिर एक बारी उनके घर जाकर देख आइये| हो सकता है कोई परेशानी हो!!!!,, सरोज जी ने सुझाव दिया।
“हूंँ…….., शाम को देखता हूं।,,
सुधाकर उनका दोस्त था । कई सालों से दोनों एक ही कालोनी में रह रहे थे| भरा पुरा परिवार था उनकी पत्नी, बेटा, बहु एक प्यारा सा पोता| पार्क में सुबह की मार्निंग वाक और लाफिंग योगा भी करते थे |
सुधाकर जी इतने हंसमुख और मजाकिया थे कि बुजुर्गों का पूरा ग्रुप उनकी बातों पर देर तक हंसता ही रहता था| किसी दिन अगर वो नहीं आते तो मानो पूरे पार्क में सन्नाटा सा रहता था| करीब दो महीने पहले अकस्मात ही उनकी पत्नी का देहांत हो गया| तब से उन्होंने मानो सबसे नाता ही तोड़ लिया था|
शाम को मनोहर जी सुधाकर के घर की ओर निकल पड़े। आंगन में लगे छोटे से लोहे के गेट को खोला तो देखा सामने ही सुधाकर जी अपने कपड़े सुखा रहे थे |
मनोहर जी को सामने देखकर वो झेंप गए और हाथ पोंछते हुए आगे बढ़ कर मनोहर जी से बोले, ” अरे…. मनोहर तुम????? मैं तो बस यूँ ही मन नहीं लग रहा था तो सोचा थोड़ा बहुत काम ही कर लूँ। ,,
मनोहर जी कुछ और पूछने की अवस्था में नहीं थे। ये वही सुधाकर था जिसने भाभी जी के सामने शायद कभी अपने हाथों से कोई काम नहीं किया होगा| हमेशा यही कहता था, ” यार, मुझसे ये घर के काम वाम नहीं होते| आखिर पत्नी और बहु किस लिए होती हैं ?,,
आंगन में ही रखी कुर्सियों पर दोनों दोस्त बैठ गए। काफी देर बैठने के बाद भी अभी तक किसी ने चाय के लिए भी नहीं पूछा| भाभी जी थीं तो आते ही चाय और नाश्ता तैयार हो जाता था|
मनोहर जी ने बातों बातों में पूछा, “क्या बात है सुधाकर? आजकल पार्क में भी नहीं आते। भाभी जी को गुजरे इतने दिन हो गए थोड़ा घर से बाहर निकलोगे तभी इस दुख से भी बाहर निकल पाओगे| आखिर कब तक खुद को सजा देते रहोगे??,,
इतना सुनते ही सुधाकर फफक पड़ा, ” मनोहर…. मैं कैसे खुद को माफ करूँ??? जब तक तुम्हारी भाभी जिंदा थी मैंने कभी उसकी कद्र नहीं की। मैं चाहे उससे कितना भी नाराज होता फिर भी वो मुझे जबरजस्ती खाना खिला ही देती थी|
बहु को एक बार मना कर दो तो दोबारा पूछती भी नहीं है। बेटा भी अपने काम में लगा रहता है | तुम्हारी भाभी थी तो कितना झकता था मैं उसके साथ| ……फिर भी वो कभी बुरा नहीं मानती थी। अब किसी के पास मेरी बातें सुनने का भी वक्त नहीं है।
कितना ख्याल रखती थी वो मेरा| लेकिन अब कोई तकलीफ होती है तो बस दवाइयाँ ला कर रख दी जाती हैं| कितने सालों से वो बोल रही थी कि एक बार कहीं घूमने चलते हैं, लेकिन मैं हमेशा टाल देता था| लेकिन अब देखो….. वो …..वो….मुझे ही छोड़ कर चली गई…।,,
बोलते बोलते सुधाकर जी का गला भर्रा गया था |
“बस कर यार, एक ना एक दिन तो सबको जाना ही होता है। ,, मनोहर जी ने सांत्वना देते हुए कहा|
“हाँ मनोहर ये तो मुझे भी पता है।…….लेकिन अब इस उम्र में समझ में आ रहा है कि जीवनसाथी की जीवन में क्या अहमियत होती है| ,,
थोड़ी देर बैठने के बाद मनोहर जी वापस अपने घर की ओर चल पड़े| लेकिन आज उनके कदम बहुत भारी लग रहे थे| घर जाकर वो अपनी पत्नी से बोले, “भाग्यवान…., बहुत दिनों से तुम बोल रही थी ना की रामेश्वर धाम जाने का बहुत मन है। चलो इस बार एक हफ्ते के लिए चलते हैं।
मनोहर जी की बात सुनकर उनकी पत्नी आश्चर्य से उनका मुंह देखने लगी , “जी…. जी क्या कहा आपने ?? हम घूमने चलेंगे????
” हाँ सरोज, पता नहीं फिर हमें मौका मिले ना मिले…..लेकिन जितने दिन हम साथ हैं कम से कम अपनी छोटी छोटी इच्छाओं को तो पूरा कर ही सकते हैं । इस जिंदगी का क्या भरोसा…. पता नहीं कब धोखा दे दे ।,,
मनोहर जी की बात सुनकर सरोज जी हौले से मुस्कुरा दी| वो भी उनकी मनोदशा को समझ रही थीं|
प्रिय पाठकों, ये सच है कि जीवनसाथी का स्थान कोई नहीं ले सकता। हमारे सुख दुःख में साथ देने वाले जीवनसाथी का हमें भी पूरा साथ देना चाहिए| क्योंकि बिछडने के बाद उसकी यादों के अलावा और कुछ नहीं रह जाता।
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आपकी सखी
सविता गोयल