निभा पाॅंच भाई-बहनों में सबसे छोटी थी।उसकी दो बड़ी बहनें और दो छोटे भाई थे। दोनों बड़ी बहनों की शादी हो चुकी थी।घर में सबसे छोटी होने के कारण सबकी दुलारी थी। भगवान ने उसे मानो फुर्सत में गढ़ा था।दूधिया रंग,सुतवा जैसी नाक,गुलाबी होंठ,लम्बा कद उसकी खुबसूरती में चार चाॅंद
लगाते।निभा स्नातक कर चुकी थी।उस समय लड़कियों को ज्यादा पढ़ाने का रिवाज नहीं था।स्नातक करते ही उसके पिता उसकी शादी के लिए जी-जान से प्रयास करने लगें।निभा के पिता उसके लिए सर्वगुण सम्पन्न लड़का खोज रहें थे। उन्हें निभा की जोड़ी का कोई लड़का ही पसंद नहीं आता।
निभा की माॅं भी बेटी की शादी के लिए चिन्तित रहतीं, परन्तु वे अपने पति को सलाह देते हुए कहतीं -” सुनिए!हड़बड़ाने की जरूरत नहीं है!जब निभा की शादी का संयोग बनेगा,तब लड़का अपने आप मिल जाएगा!”
संयोग से निभा की शादी उसी शहर के प्रतिष्ठित परिवार में हो गई। लड़का नवीन एक बहन और चार भाई था।वह दिल्ली में नौकरी करता था।उसके पिता प्रोफेसर और माॅं गृहिणी थीं। ससुराल आकर कुछ ही दिनों बाद निभा को एहसास हो चुका था कि उसकी ससुराल का माहौल उसके मायके से बिल्कुल अलग है। यहाॅं घर में उसकी सास का कड़ा अनुशासन है।उनके खिलाफ घर में कोई किसी
बात के लिए ना नहीं कर सकता था।निभा घर की तीसरी बहू थी।छोटे देवर की अभी शादी नहीं हुई थी।सास रमा देवी की जिंदगी में उनके चार बेटे और एक बेटी के सिवा परिवार के अन्य सदस्यों का व्यक्तित्व गौण था। घर की पहली बहू रीमा तो सास से सदा डरी-सहमी रहती, क्योंकि उसके साधारण रुप-रंग के कारण उसके पति भी उसकी उपेक्षा करते।दूसरी बहू मीना के पति सदैव उसके पक्ष में रहते,इस कारण उस पर रमा देवी का कोई खास जोर नहीं चलता।
ससुराल में निभा भरसक सभी के साथ ताल-मेल बिठाने का प्रयास करती, विशेषकर पति और सास से।वैसे तो नवीन का व्यवहार उसके साथ ठीक ही था, परन्तु वह माॅं की गलत बातों पर भी ऑंखें बंद कर विश्वास कर लेता था।निभा मायके में माता-पिता तथा घर भर की दुलारी थी।उसके माता-पिता ने बहुत खोज-बीन के बाद उसकी शादी नवीन से की थी।नवीन दिल्ली में नौकरी करता था।निभा को
समझ में आ चुका था कि पारिवारिक शांति के लिए सास के साथ समझौता करना ही होगा।उसके ससुर सुदेश जी बहुत ही सुलझे हुए और समझदार व्यक्ति थे, परन्तु पत्नी के सामने उनकी एक नहीं चलती थी।यदा-कदा वे बहुओं का पक्ष लेकर पत्नी से उलझ पड़ते, परन्तु रमादेवी उन्हें डाॅंटकर चुप कराते हुए कहती -“तुम घर के मामले में चुप ही रहा करो।मेरे राजकुमार जैसे बेटों के पल्लू कैसी लड़कियाॅं बॅंध गईं हैं, जिन्हें किसी बात का सऊर ही नहीं है!”
सुदेश जी -“रमा!एक दिन तुम्हें बेटों का घमंड ले डूबेगा। हमारी सभी बहुऍं पढ़ी-लिखी और अच्छे खानदान से हैं।संस्कारवश अभी तुम्हारी बातों का जबाव नहीं देती हैं ,जिस दिन तुम्हें ना कहना सीख लेंगी,तुम्हारा जीना दुश्वार हो जाएगा!”
रमा देवी पति को डाॅंटते हुए कहती हैं -” तुम बहुओं की ज्यादा तरफदारी मत किया करो।”
सुदेश जी पत्नी से बहस करने की बजाय चुप रहना ही बेहतर समझते हैं।
रमा देवी के बेटे-बहू वैसे तो अपने पतियों के पास ही रहतीं, परन्तु छः महीने के अंतराल पर या तो वे खुद बहुओं के पास चली जातीं या उन्हें अपने पास बुला लेती न।उनकी बेटी भी बच्चों के साथ आ जाती।रमा देवी बस बहुओं पर हुक्म चलाया करतीं। उन्हें बस अपने बेटे और बेटी के खाने-पीने और
पहनने ओढ़ने की चिन्ता रहती।वे छोटी-छोटी बातों को लेकर बहू को फटकार लगातीं।इस कार्य में बेटी भी उनका साथ देती। मान-मर्यादा की दुहाई देकर सुदेश जी बहुओं को ही चुप रहने को कहते।
रमा देवी की गंदी आदत थी कि सभी खाने का सामान अपने बेटों के लिए छुपाकर रख देती ।सबसे पहले चारों बेटों और बेटी को खाना खिलाकर खुद पति-पत्नी खाना खा लेते। उन्हें बहुओं की खाने की परवाह नहीं रहती। कभी-कभी रसोई में खाली बर्त्तन देखकर सुदेश जी पत्नी से पूछते -“खाना तो खत्म हो गया? बहुऍं अब क्या खाएंगी?”
पति को चुप कराते हुए रमा देवी कहतीं -“बहुओं के प्रति तुम ज्यादा लाड़ मत दिखाओ।घर में बहुत सारा सामान पड़ा हुआ है,कुछ भी खा लेंगी!”
कुछ समय बाद सुदेश जी नौकरी से रिटायर हो गए।अब पति-पत्नी ज्यादातर बेटों के ही पास रहते, विशेषकर तीसरे बेटे नवीन के पास।उनकी बेटी भी वहीं पास में ही रहती थी और नवीन माॅं की हर बात में हाॅं-में-हाॅं मिलाया करता था। सास-ससुर के आ जाने से निभा की परेशानियाॅं बढ़ जातीं।उसकी ननद भी माॅं से मिलने के बहाने बच्चों साथ रोज आ जाती।रमा देवी सभी के साथ बैठकर गप्पें
हाॅंकतीं।वे न तो खुद एक काम करतीं,न ही बेटी और बेटों को एक गिलास पानी लेने देतीं।निभा चकरघिन्नी की तरह दिन भर खटती रहती।शाम में नवीन के आने पर निभा की बेवजह शिकायतें भी करतीं।माॅं के बहकावे में आकर नवीन चिल्लाते हुए कहता -“निभा! तुम्हें माॅं की पसंद -नापसंद के बारे में बिल्कुल पता नहीं है? माॅं को खाने में दही पसंद है,आज तुमने उन्हें खाने में दही क्यों नहीं दिया?”
निभा -“घर में दही खत्म हो गया था।खाने में खीर तो थी ही!”
नवीन -“अगर घर में दही खत्म था,तो तुम दुकान से लेकर क्यों नहीं आई?एक बात और माॅं को साफ-सफाई बहुत पसंद है।कल से रोज माॅं के बिस्तर की चादरें बदला करो और घर में भी साफ-सफाई रहनी चाहिए!”
निभा की खामोश जुबां और क्रंदन करता हुआ मन सोचता है कि ये कैसा विवाह का बंधन है,जिसे मैं बेवजह निभाने की कोशिश करती जा रही हूॅं।ये रिश्ते मरूस्थल जैसे सूखे और प्यासे पेड़ बनते जा रहें हैं। शादी के पाॅंच वर्ष बाद तक भी माॅं नहीं बनने के कारण निभा मन मारकर मुस्कराकर अपने सब
कर्त्तव्य निभाती जा रही थी।इतनी उपेक्षा के बाद भी निभा को कहीं -न-कहीं अपनों से एक स्नेहिल स्पर्श की उम्मीद थी। सहानुभूति और विश्वास से भरे दो शब्दों की चाहत में उसका मन छटपटा रहा था।इतने वर्षों तक मशीनी जीवन जीते-जीते मानो वह संज्ञाशून्य बन गई थी।अपने लिए मानो वह जीना ही भूल गई थी।जीवन एक परिधि में सिमट गया था।
आज जब सास ने उसे किसी छोटी-सी बात पर ताना देते हुए कहा -“मेरे बेटे की तुम्हें बिल्कुल परवाह नहीं है और उल्टा उसे ऑंखें दिखाती रहती हो।इस घर में तुम्हारी मनमानी नहीं चलेगी। पाॅंच साल में मेरे बेटे को एक बच्चा तो दे नहीं पाई और जुबान लड़ाती हो।बच्चा के बिना तो यह घर ऐसा मनहूस लगता है कि यहाॅं आने को मन नहीं करता है।अपने मन का करना है तो अपने बाप के घर चली जाओ।”
हरेक बात की एक सीमा होती है।आज निभा के बर्दाश्त करने की हद टूट चुकी थी।सास की तीखी वाणी चुभते पैनों की तरह उसका कलेजा छलनी कर गया।उसके मन का आवेग शब्दों द्वारा फूट ही पड़ा।उसने सभी को सुनाते हुए गुस्से में कहा -” अब मेरे बर्दाश्त करने और आप लोगों के हाॅं-में-हाॅं मिलाने की क्षमता खो चुकी है।आप लोगों ने मुझे आगे पढ़ने नहीं दिया, मैं चुप रही।आपके तानों को
आपका आशीर्वाद समझती रही।आपने अपने बेटे को छोटा-सा काम भी करना नहीं सिखाया। मैं बाहर और घर के काम चुपचाप करती रही।आज आपने बच्चा न होने का ताना देकर मेरा मुॅंह खुलवा दिया है। मैं बिना बच्चे के भी नवीन के साथ खुश हूॅं।अगर बच्चे बिना आपको मेरा घर मनहूस लगता है,तो आगे से यहाॅं आने की जरूरत नहीं है!हाॅं!सबसे महत्त्वपूर्ण बात सुन लीजिए बच्चा न होने का कारण मैं नहीं, बल्कि आपका बेटा ही है!”
रमा देवी और नवीन निभा के इस रूप को देखकर भौंचक थे। उन्होंने निभा के इस रूप की कल्पना भी नहीं की थी।सुदेश जी बगल कमरे से सारी बातें सुन रहें थे। उन्होंने पत्नी और बेटा को एक बार फिर से आगाह करते हुए कहा -“निभा के प्रति तुमलोगों को अपना रवैया बदलना ही पड़ेगा।वह इस घर की बहू है, कोई गुलाम नहीं।तुमलोगों की हठधर्मिता के कारण बहू विद्रोह कर बैठी और गलत बातों पर ना कहना भी सीख लिया है!”
नवीन,रमा देवी और उनकी बेटी समझ चुके थे कि हवा का रुख बदल चुका है!
समाप्त।
लेखिका -डाॅ संजु झा (स्वरचित)