“नंदिनी …नंदिनी!” बाहर से राधा की आवाज सुनकर नंदिनी रसोई से बाहर निकली। बाहर गेट पर राधा खड़ी थी, उसकी पड़ोसन।
“ क्या बात है राधा?
“नंदिनी तुमसे कुछ कहना था!”
“ हां बोलो?”
“ तुम्हें पता है मेले में कठपुतली का डांस आया है। चलोगी? चलो ना। बहुत मज़ा आता है कितना दिन हो गया देखें हुए।”
“पहले काम तो खत्म कर लें !”
“हां दोपहर में चलते हैं। शाम तक वापस आ जाएंगे।”
“ठीक है!” राधा की बात सुनकर नंदिनी के हाथों में फुर्ती आ गई। उसने जल्दी-जल्दी काम समेट कर राधा के साथ मेला चली गई।
बचपन की यादें ताजा हो गई थी। बचपन में वह कठपुतली देखने जरूर जाया करती थी।
कई सालों बाद गांव में फिर से कठपुतली आया था। थोड़ी देर बाद वे लोग टिकट कटा कर हाॅल में पहुंचे।
कठपुतली का डांस शुरू होने वाला था। मंच के संचालक ने सामने आकर कहा “भाईयों और बहनों,आपके सामने हम कठपुतली का डांस दिखा रहे हैं जो आपको अपने आसपास ही दिखेगा।जो घटता है वही बुनता है।”
थोड़ी देर बाद कठपुतली का डांस शुरू हुआ।
कठपुतली -”सुनो बहुरिया जरा चाय बनाना!”
“ हां जी अभी लाती हूं!”
“ बहुरानी चाय देना!”
“ हां बाबा अभी देती हूं !”
“बहुरिया अरे मेरे घुटने में बहुत दर्द है। जरा मेरे घुटने की मालिश कर देना।”
“ अभी कर देती हूं!”
“ भाभी आज मुझे खाने में कढ़ी चाहिए।”
“ हां बना दूंगी।”
“पर मैं नहीं खाऊंगा ।मुझे तो दाल ही चाहिए। मुझे कढ़ी बिल्कुल पसंद नहीं ।”
“ठीक है दाल भी बना दूंगी ।”
“बहू शाम हो गई है।चाय कहां है ?”
“अभी लाई।”
“अभी तक कपड़े सूखे नहीं! क्या करती हो तुम दिन भर? घर में रहती हो फिर भी कोई काम नहीं होता समय से!”
“ओ…हो …करती तो हूं ना!”
“सुनो रात के खाने में मेरे लिए आलू दम बना देना!”
“ ठीक है जी, पर मिक्सी खराब है !”
“तो…?”
“ मुझे खुद से ही पीसना पड़ेगा !”
“तो?”
“कुछ नहीं!”
“मां मेरे जूते नहीं मिल रहे वो सफ़ेद वाले।”
“अच्छा…अभी ढूंढ़ती हूं।”
“घर है या कबाड़खाना! पता नहीं क्या करती रहती हो तुम! कोई भी चीज नहीं मिलता?”
नंदनी को अपना चेहरा उस कठपुतली में दिखने लगा था।
वह भी तो एक कठपुतली ही है।कठपुतली की तरह नाचती रहती है दूसरों के इशारे पर। अपने घर परिवार के आगे उसकी अपनी कोई सोच नहीं,कोई पसंद नहीं!
उसका भविष्य उसी नजर आने लगा था। कठपुतली नाचते हुए वह एक दिन सो जाएगी चुपचाप।
नहीं नहीं मैं कोई कठपुतली नहीं! मैं एक इंसान हूं।मेरी अपनी सोच है।मेरी भी अपनी इच्छा है। किसी के हाथ में अपनी भविष्य की डोर नहीं थमा सकती मैं। मुझे अपने बारे में सोचना ही पड़ेगा।
जब वह पीएचडी करना चाहती थी तो उसके सास ससुर ने मना कर दिया था कि हम बहू को नौकरी नहीं करने देंगे।
जब वह सिलाई सिखाना चाहती थी तब उसके पति को आपत्ति थी। यहां तक कि उन्हें तो पसंद ही नहीं था कि नंदिनी घर के कामों के अलावा भी कुछ करें।
धीरे-धीरे यही स्वभाव नंदिनी का भी होता गया। सबकी इच्छा में अपनी इच्छा जताना। उनकी हां में हां मिलाना। तभी उसकी अपनी कोई अहमियत नहीं रह गई है।
नंदिनी की आंखें खुल चुकी थी। वह बड़े ही विश्वास के साथ घर लौटी। शाम की चाय, नाश्ता, सब की फरमाइशों के बाद रात का खाना ,बर्तन सब कुछ करने के बाद भी नंदिनी आज बहुत खुश थी ।उसकी मन संतुष्ट हो गया था ।वह थकी हुई थी मगर उसके अंदर एक नया उत्साह आ गया था। उसे जीने की राह मिल गई थी। एक नया सूर्योदय उसकी प्रतीक्षा कर रहा था।
सोने से पहले उसने अपनी अलमारी खोला।
सबसे नीचे बेकार सामानों के बीच में उसकी फाइल दबी हुई थी जो चीख चीखकर कर यह कह रही थी कि मुझे यूं बेजाया मत करो।
आज उसे अपने हाथ में लेकर नंदिनी बहुत ही खुशी महसूस कर रही थी। उसके अंदर उसके पीएचडी के कागज थे ।
‘यह क्या कर रही हो ?”उसके पति नरेंद्र ने उससे पूछा।
“ जो काम पहले नहीं कर पाई ,वह अब करना चाहती हूं ।”
“क्या करना चाहती हो?”
“पीएचडी करना चाहती हूं और अड़ोस-पड़ोस के बच्चों को जो मैं सिलाई और क्रोशिया वगैरा सिखाती थी वह दोबारा करना चाहती हूं ।”
“अब यह हाल हो गया है तुम्हारा कि तुम अब सिलाई सिखाओगी ?”
“क्यों नहीं, मेरे अंदर टैलेंट है। आखिर लोग किसी के पास जाकर तो सीखते हैं ना! तो मेरे पास आकर सीखेंगे तो क्या हो जाएगा?”
“मगर अचानक तुम्हें हो क्या गया ?”उसके पति मोबाइल से अपनी आंखें हटाकर नंदिनी की तरफ देखने लगे ।
“बस जीने का बहाना मिल गया है। अब जाकर एहसास हो गया कि मैं कोई कठपुतली नहीं हूं। मैं एक इंसान हूं जो जीना चाहती है ।खुली हवा में सांस लेना चाहती है। चिड़ियों की तरह उड़ान भरना चाहती है और फूलों की तरह खुशबू भी बिखेरना चाहती है।”
“अब इस उम्र में!”व्यंग्य से मुस्कुरा कर उसके पति ने कहा।
“जब जागो तब सवेरा! अब मैं आज ही जगी हूं तो आज ही अपने काम पूरे करूंगी ताकि मैं मरते समय मुझे अफसोस ना हो। आप मुझे रोकिएगा मत क्योंकि मैं रुकने वाली नहीं हूं।”
उसके विश्वास से भरे आवाज सुनकर उसके पति चुप हो गए। फिर उन्होंने कहा “नहीं मैं तुम्हें नहीं रोकूंगा, तुम जो चाहे वह करो। तुम्हें भी जीने का हक है। आज तक मैं तुम्हारी सीमाएं केंद्रित करता रहा मगर आज मैं तुम्हें छूट रहा हूं। जो मन में आए वह करो।”
“थैंक्यू, मुझे मेरी आजादी लौटाने के लिए।”नंदिनी ने मुस्कुरा कर अपने पति की तरफ देखा और जुट गई एक नए सुबह की तैयारी में।
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सीमा प्रियदर्शिनी सहाय
# कठपुतली
पूर्णतः मौलिक और अप्रकाशित रचना बेटियां के साप्ताहिक विषय हेतु