जब मानवता बोल उठी। – ज्योति आहूजा

अप्रैल 2021 — कोरोना की दूसरी लहर पूरे देश में कहर बरपा रही थी।

अस्पतालों में लंबी कतारें, ऑक्सीजन की कमी, और हर घर में चिंता का माहौल था।

इन्हीं दिनों संध्या की तबीयत अचानक बिगड़ गई।

तेज़ बुखार और साँस की दिक्कत ने  संध्या के पति अमित और पूरे परिवार को घबरा दिया।

कोरोना पॉज़िटिव आने पर उसे तुरंत गाज़ियाबाद के एक अस्पताल में भर्ती करवाया गया।

अस्पताल का कमरा जैसे एक अलग दुनिया बन गया था —

ना कोई अंदर आ सकता था, ना पास बैठ सकता था।

रिश्तेदारों का भी यही हाल था — फ़ोन पर हालचाल पूछते रहे,

लेकिन आना किसी के लिए आसान नहीं था।

क्योंकि जैसे संध्या और अमित के लिए यह कठिन समय था,

वैसे ही  दिल्ली में रह रहे रिश्तेदारों के लिए भी — ये एक कोरोना काल ही था।

लेकिन जब अपने पास नहीं आ सकते,

तो कभी-कभी ऐसे लोग मिल जाते हैं जो अपनों से बढ़कर साथ निभा जाते हैं।

अमित की ऑफिस टीम ने यही करके दिखाया।

टीम के सदस्य — राहुल, निखिल, और आदित्य,

बारी-बारी से अपने-अपने घरों से

सादा, पौष्टिक, और ताज़ा खाना बनवाकर अस्पताल भेजते रहे।

हर दिन किसी एक घर से

दलिया, खिचड़ी, जूस, फल, हल्की सब्ज़ियाँ पहुँचती थीं —

वही सब, जो एक कोरोना मरीज़ के लिए ज़रूरी होता है।

उनके घरों की माएँ भी इस सेवा में दिल से जुट गईं —

उन्हें मालूम था कि क्या देना है, क्या नहीं।

कभी सूप भेजतीं, कभी मौसमी फल।

ये कोई औपचारिकता नहीं,

एक भावनात्मक जुड़ाव था — निस्वार्थ सेवा।

अमित बहुत बार मना करता रहा —

“देखो, समय बहुत कठिन है।

तुम लोगों को भी संक्रमण हो सकता है।

ज़रूरत नहीं है आने की।”

लेकिन कोई नहीं माना।

किसी ने कहा —

“भाभी अस्पताल में हैं, खाना तो पहुँचना ही चाहिए।”

किसी ने कहा —

“हम मास्क पहनकर, पूरी सावधानी से आ रहे हैं, चिंता मत करिए।”

और इस तरह,

बिना किसी शोर-शराबे के, बिना किसी दिखावे के —

उन्होंने एक ऐसा साथ निभाया जो शब्दों से परे था।

संध्या अस्पताल में थी,

और उसी दौरान उनके दोनों बच्चे —

समायरा और विवान — भी कोरोना पॉज़िटिव हो गए।

सौभाग्य से दोनों को हल्का संक्रमण था,

और दो दिनों में वे ठीक भी हो गए।

लेकिन घर में कोई देखभाल करने वाला नहीं था —

अमित हर वक़्त अस्पताल में संध्या के साथ था।

तब अमित के कहने पर

उनकी टीम के एक सदस्य ने आगे आकर कहा —

“सर, आप भाभी का ध्यान रखिए।

मैं कोविड पास की व्यवस्था कर देता हूँ,

बच्चों को सुरक्षित नाना-नानी के पास पहुँचा दिया जाएगा।”

उसने ज़रूरी दस्तावेज़ों के साथ

कोविड ई-पास के लिए ऑनलाइन आवेदन किया,

और तय योजना के अनुसार,

बच्चों को पूरी सावधानी से नाना-नानी के शहर पहुँचाया गया।

जब अमित को बच्चों के सुरक्षित पहुँचने की सूचना मिली,

तो उसके चेहरे पर पहली बार कुछ राहत की झलक थी।

एक दिन अस्पताल के कमरे में अकेली बैठी संध्या के दिल से एक दुआ निकली —

“हे भगवान, जिन्होंने इतनी सेवा की है,

उनके सारे दुःख दूर करना।

अगर कोई तकलीफ़ हो, तो उसे हल्का कर देना।”

कुछ ही दिनों में अमित ने बताया —

“राहुल की माँ, जो कई सालों से बीमार थीं,

अब उनकी तबीयत में धीरे-धीरे सुधार आने लगा है।”

जहाँ कोरोना के दौर में ज़्यादातर बुज़ुर्गों की हालत बिगड़ रही थी,

वहाँ राहुल की माँ के साथ इसके विपरीत हुआ —

उनमें वर्षों बाद सकारात्मक बदलाव दिखने लगे।

क्या पता — संध्या की दिल से निकली दुआ का ही असर हो

जो राहल की माताजी धीरे-धीरे ठीक होने लगीं।

तभी तो कहते हैं — सेवा और दुआएँ कभी व्यर्थ नहीं जातीं।

हृदय से निकली दुआ जब कमाल दिखाती है,

कीमत इक तुच्छ की भी आसमान छू जाती है,

ये तो वो बेशकीमती उपहार है,

जिसे मिल जाए, समझिए उसका बेड़ा पार है!

जब संध्या ठीक होकर घर लौटी,

तो उसने अमित से कहा —

“मुझे बात करनी है उन तीनों टीम मेंबर्स की माओं से —

जिन्होंने मेरे लिए बिना किसी स्वार्थ के सेवा की।”

अमित ने कॉल मिलवाए।

संध्या ने जब एक-एक माँ से बात की, तो कहा:

“आपने मेरे कठिन समय में मेरा साथ दिया।

मैं इसके बदले आपको कुछ उपहार देना चाहती हूँ —

कृपया बताइए, मैं क्या दे सकती हूँ?”

एक माँ ने मुस्कराते हुए जवाब दिया —

“बेटा, तू ठीक होकर घर आ गई —

यही तो हमारा सबसे बड़ा तोहफ़ा है।”

और सच में तुम मुझे कोई तोहफ़ा देना ही चाहती हो, तो बस जीवन में जब कभी किसी को तुम्हारी ज़रूरत हो, तो तुम भी सेवा की भावना  रख उसकी सहायता अवश्य करना, तो इससे अच्छा और क्या हो सकता है?

और ये सुनकर

संध्या की आँखों से अश्रुधारा बह निकली।

शब्द वहीं रुक गए,

जहाँ भावनाएँ बोल उठीं।

संध्या आज भी उस घटना को याद करती है —

न बड़े-बड़े रिश्ते काम आए,

न ऊँचे-ऊँचे नाम।

बस कुछ साधारण से लोग,

जिन्होंने असाधारण मानवता दिखाई।

थे तो वो अमित की टीम के ही सदस्य —

न कोई पारिवारिक जुड़ाव, न कोई गहरा परिचय।

चाहते तो फ़ोन पर हालचाल पूछकर बात पूरी कर सकते थे।

लेकिन उन्होंने तो अपना समझ कर साथ निभाया।

आज के समय में जब अपनों से भी उम्मीद कम हो गई है,

वहाँ इन ‘परायों’ ने जो अपनापन दिखाया —

उसने संध्या और अमित को

एक बार फिर से मानवता पर पूरा विश्वास दिला दिया था।

ज्योति आहूजा

Leave a Comment

error: Content is protected !!