हाथ का मैल – विभा गुप्ता : Moral Stories in Hindi

 ” दीदी..इसमें कंजूसी की क्या बात है..मोजे तो ठीक ही हैं, बस ज़रा इलास्टिक ही तो…।फिर बेटी स्कूल पढ़ने जाती है,मोजे दिखाने तो नहीं..।” मालती अपनी जेठानी सुलेखा को समझाने लगी लेकिन हमेशा की तरह सुलेखा ने उसकी बात को अनसुना कर दिया।

        सुलेखा का मायका धनाड्य था और पति महेश एक व्यवसायी।पैसे की कमी थी नहीं उसे, इसलिए वो # आसमान पर उड़ने लगी थी।महँगी-महँगी चीज़ें खरीदती और सहेलियों के सामने खूब इतराती।अपने बेटे निखिल को भी वो जेबखर्च में अक्सर ही पाँच सौ का नोट थमा देती…।

     उसका देवर दिनेश एक सरकारी स्कूल में अध्यापक था।इसलिए मालती पैसे की अहमियत को समझती थी और किफ़ायत से खर्च करती थी।वो सुलेखा को भी समझाती कि दीदी.. निखिल को पैसे की जगह अच्छी शिक्षा दीजिये।पैसा तो हाथ का मैल है..

आज है तो कल नहीं..तब शिक्षा ही उसके काम आयेगी लेकिन सुलेखा पर उसकी बातों का कोई असर नहीं होता।

उसे तो मालती के सादगीपूर्ण रहन-सहन की हँसी उड़ाने में ही आनंद आता।मान्यता के मोजे थोड़े ढ़ीले हो गये थे तो उसने रबर बैंड डाल लिया था जिसे स्कूल जाते समय सुलेखा ने देख लिया तो वो उसका मजाक बनाने लगी तो मालती ने उसे समझाना चाहा लेकिन…।

      मान्यता मेहनत करके अच्छे अंकों से पास होती गई और बारहवीं की परीक्षा पास करके उसने इंजीनियरिंग काॅलेज़ में दाखिला ले लिया।उधर निखिल पढ़ाई न करके दोस्तों के साथ मस्ती करता रहा जिसके कारण बारहवीं की परीक्षा में बहुत कम अंक आये। सुलेखा निश्चिंत थी कि डोनेशन देकर किसी भी काॅलेज़ में दाखिला करवा देगी लेकिन वक्त बदलते तो देर नहीं लगती।

        अचानक महेश को बिजनेस में घाटा होने लगा।कर्ज़दार तकाज़ा करने लगे..सुलेखा को अपने जेवर बेचने पड़े तब वो आसमान से धरती पर आई।उसे मालती की कही बात याद आई लेकिन अफ़सोस..।पैसे की कमी के कारण उसे बेटे का दाखिला स्थानीय काॅलेज़ में करवाना पड़ा।उसने बेटे के हाथ-खर्च कम कर दिये तो निखिल अपने दोस्तों से उधार लेने लगा। 

      मान्यता को इंजीनियरिंग की डिग्री मिलने के साथ ही उसे मुंबई में नौकरी भी मिल गई।वह मुंबई जाने लगी, तब मालती ने उसे समझाया,” देख बेटी, हाथ में सैलेरी देखकर # आसमान पर उड़ने मत लगना..पैसा तो हाथ का मैल है..असली पूँजी व्यवहार है..

अपने साथ काम करने वाले सभी छोटे-बड़ों के साथ विनम्रता से पेश आना…।” वो बोलती जा रही थी और मान्यता ‘जी माँ’ कहती जा रही थी।फिर उसने अपने माता-पिता के चरण-स्पर्श किये और उन्हें बाय कहकर कैब में बैठकर चली गई।

दूर खड़ी सुलेखा सोचने लगी, काश! मैंने भी अपने बेटे को पैसे की जगह शिक्षा दी होती तो आज वो भी..।फिर उसने नम आँखों से आँचल में बँधी अपनी अंगूठी को देखा जिसे बेचकर उसे उधार चुकाना था।

                                            विभा गुप्ता 

# आसमान पर उड़ना          स्वरचित, बैंगलुरु 

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