” बहु यह मत भूलो कि भगवान सब देखता है!!” – एकता बिश्नोई : Moral Stories in Hindi

“यह क्या रोज-रोज इतना तला भुना खाना बना लेती हो?अब इस उम्र में ये सब चीजें हमसे हजम नहीं होती। तुम्हें तो पता है तुम्हारे बाबूजी को डॉक्टर ने बिल्कुल हल्का-फुल्का खाना बता रखा है, फिर भी तुम रोज ही इतना गरिष्ठ खाना बना लेती हो,कभी तो कुछ हमारे हिसाब से भी बना दिया करो बहू।” आज हिम्मत करके कमला देवी ने अपनी बहू से कह ही दिया।

    मेरे पास इतना समय नहीं है मांँ जी कि मैं सब की फरमाइश का खाना बनाती रहूं । मुझे और भी काम करने होते हैं। आजकल के बच्चे लौकी तोरई खाना पसंद नहीं करते।अब अगर बाबूजी को परहेजी खाना खाना है तो आप ही बना दिया करो उनके लिए।मेरे बस का नहीं है पूरे दिन रसोई में खटना। कहकर बहू ने अपनी बात खत्म की और पैर पटकती हुई वहां से चली गई।

   कमला देवी और सर्वेश्वरदयाल दोनों की आंँखों में बेबसी के आंँसू थे।कहें भी तो किससे ? बेटे की नौकरी दूसरे शहर में थी वैसे भी बेटा पूरी तरह बहू के रंग में रंगा हुआ था। वे बेटे से कभी कुछ कहने की कोशिश भी करते तो उसे अपनी मांँ और बाबूजी की ही गलती दिखाई देती। पोता- पोती अपनी पढ़ाई में ही इतने व्यस्त रहते कि उनके पास अपने दादा-दादी के लिए बिल्कुल भी समय न था।

अगर कभी दोनों कमला देवी और सर्वेश्वरजी के पास आकर बैठ भी जाते तो बहू उन्हें आवाज लगाकर बुला लेती।समय ऐसे ही गुजर रहा था। आजकल सर्वेश्वरदयाल का स्वास्थ्य कुछ ठीक नहीं चल रहा था। बहू की बातों से मन भी उचाट हो चुका था। उन्होंने अचानक अपनी छड़ी उठाई और बाहर दरवाजे की ओर जाने लगे…

   “मैं अभी आता हूंँ।”

    ” अरे कहांँ जा रहे हो?

      “आता हूंँ अभी।

 कमलादेवी पीछे से आवाज ही देती रह गईं,पर सर्वेश्वरदयाल तेजी के साथ घर से बाहर निकल गए और कुछ देर बाद लौटे तो उनके हाथ में एक पैकेट था।

  “इसमें क्या है?”

  ” सामने वाले ढाबे से ताजी दाल और गर्मागर्म रोटियांँ लाया हूं शिकवा कर”।

 ” इसकी क्या जरूरत थी? मैं घर पर ही बना देती। कमला देवी संकोच से बोली।वे शरीर से स्वस्थ और हृष्ट-पुष्ट महिला थीं, काम करने में कोई कमी नहीं थी उनके। मगर बहू ने रसोई घर पर ऐसा कब्जा किया था कि भी रसोई घर की तरफ जाते हुए भी संकोच करती थीं।

” जरूरत थी कमला, सहयोग की बात और है मगर बहू के होते हुए भी तुम्हें अपनी ही रसोई में अलग खाना बनाना पड़े तो इससे बेहतर हम आज ही अलग हो जाते हैं।”

“नहीं मैं कहीं नहीं जाऊंगी अपने घर को छोड़कर।”

” जाना कहीं नहीं है ,हम यहीं अपनी रसोई अलग करेंगे और अपने मन मुताबिक बनाकर खाएंगे। इतनी पेंशन तो मिल ही जाती है मुझे कि मैं अपना और तुम्हारा खर्चा आराम से उठा सकूं। कभी तुम्हारी इच्छा नहीं हुई खाना बनाने की तो रामलाल का ढाबा है ही।”

 कहते हुए सर्वेश्वरदयाल ने हंँसने की भरपूर कोशिश की। सर्वेश्वर दयाल जी ने यह फैसला बड़ी सोच समझ कर किया था क्योंकि वे जानते थे कि एक ही रसोई में काम करने पर सास और बहू में नहीं बनेगी।कमलाजी जानती थीं

कि उनकी यह हंसी कितनी बनावटी है।वे एकटक अपने पति को देख रही थी ,उनके दिल से एक ही आवाज निकल रही थी” बहू यह मत भूलो भगवान सब देखता है। तुम आज जैसा व्यवहार हमारे साथ कर रही हो कभी तुम्हारे बच्चे भी तुम्हें यह दिन दिखाएंगे। अपने ही बच्चों से अलग होना कितना कष्ट कारक होता है यह तुम्हें आज नहीं तो कल समझ में जरूर आएगा।

” भविष्य की सोच कर उनका दिल भर आया मगर उन्होंने अपने भावों को अपने पति पर व्यक्त न होने दिया और आंसुओं को छिपाती हुई खाने के पैकिट की ओर बढ़ गईं।

नाम – एकता बिश्नोई

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