पापा के काम से आने के पहले ही बैठक छोड़ कर अंदर भाग जाता था रवि।बचपन में बहुत लाड़ जताया करता था पापा से। जैसे-जैसे बड़ा होता गया,अकारण ही दूरियां बढ़ गई थीं बाप-बेटे के बीच।पिता को घर आते ही बेटा गायब मिलता,और बेटी आतुर होकर पानी का गिलास लिए भागती आती थी।सुमित खुशी से चहकते कहते
“देखा विमी,मेरी बेटी को कितनी चिंता है मेरी।तुम्हारे लाड़ले के पास तो समय ही नहीं कि,कुछ देर पास बैठ कर बतिया ले।जब पैसे की जरूरत होती है,तो बस मां से कहलवा देता है।कह देना अपने लाड़ले से,मां के आंचल से बाहर निकले।दुनियादारी भी सीख ले थोड़ी।”
विमी को बहुत बुरा लगता,पर रवि के मन में जाने कौन सा डर समा गया था कि,पिता के सामने आने से कतराता। बाप-बेटे के बीच संवाद ना के बराबर ही होता था,और होता भी तो बेटी रिमी के माध्यम से।
अपनी नौकरी के प्रति अति गंभीर सुमित ने कभी अपने स्वास्थ्य का ध्यान नहीं रखा।लगातार भूखे रहकर ड्यूटी करते रहने से शरीर में कमजोरी आ गई थी। स्वास्थ्य में गिरावट की वजह से चिड़चिड़ापन भी आ गया था।बचपन में बहन के साथ पापा की मोटर साइकिल पर बैठ कर बहुत घूमा था रवि।अब आठवीं पहुंचते-पहुंचते पापा के साथ कहीं भी जाना नहीं चाहता था।
इस कहानी को भी पढ़े
सुमित नि:संदेह एक भावनात्मक इंसान थे।अपने बच्चों के लिए किसी भी हद तक जा सकते थे।बाहर खाना खिलाने ले जाने पर कभी कीमत नहीं देखी उन्होंने,ना ही त्योहारों में कपड़े खरीदते समय प्राइस टैग देखा।रिमी तो खुले आम कहती”मेरे पापा सबसे बेस्ट हैं।मैं भी बड़ी होकर पापा के जैसी बनूंगी।”मजेदार बात यह भी थी कि रिमी की अधिकतर आदतें सुमित से मिलती थी।
रवि इसके विपरीत कहता”मुझे नहीं बनना पापा के जैसा।इतना काम करते हैं कि, छोटी-छोटी बात पर गुस्सा करने लगते हैं।
ना अपनी सेहत का ध्यान रखते हैं,ना ही पैसों का। मम्मी,बाहर सारे लोग बेवकूफ बनाकर पापा से पैसे खर्च करवाते रहतें हैं।मैंने कई बार फोन पर दोस्तों से बातें करते हुए सुना है उन्हें।तुम भी तो कुछ नहीं बोलती।चुप रहती हो हमेशा उनके सामने।जो ग़लत है,उसका प्रतिवाद तो करना चाहिए।ऐसा जरूरी नहीं है कि बड़े हमेशा सही ही हों।”
बेटे के आचरण में बगावत की गंध आती देख विमी सजग होने लगी।रवि को प्यार से समझाया उसने”देख बेटा,दादाजी ने सारी जिंदगी सिर्फ नौकरी की थी।एक पैर खोने की वजह से बाहर का कोई काम वो कर नहीं पाते थे।
(सेना में थे,पर कमीशन पूरा नहीं हो पाया था।इसी वजह से कोल इंडिया में भर्ती हो गए थे)बाहर की सारी जिम्मेदारी तेरे पापा ने अपने कंधों पर उठाई है।बहुत कम उम्र से ही अपने माता-पिता,और बहनों की देखभाल की है इन्होंने।
घर के बड़े बेटे हैं ना,तो थोड़ा सा ईगो तो होगा ही।मैं बीच में उनकी बात काटूं,ये उन्हें पसंद नहीं आता है।चुप रहने में क्या बुराई है बेटा?अपने सारे दायित्व तो संजीदगी से निभाते हैं ना।तुम दोनों बच्चों पर जान लुटाते हैं।बोनू को देख कितनी सहजता से बात करती है उनसे,बस तू ही जब देखो तब मुंह फुलाए रहता है।”
जाहिर था रवि को मां की बातें पसंद नहीं आईं।बारहवीं में जाते ही उसने कहा था”अब इसके बाद मुझे बाहर भेज दोगी ना मम्मी,पढ़ने?मैं यहां से निकलना चाहता हूं।”विमी ने झट सिर हिलाकर कहा”तू निश्चिंत रह।मैं तुझे खदान में काम करने नहीं दूंगी।मेरे बेटे के लिए मैं लड़ लूंगी पापा से।”
इस कहानी को भी पढ़े
इधर रिजल्ट आने के बाद से ही सुमित ने कहना शुरू कर दिया था”विमी,रवि को डिप्लोमा करने के लिए मना लो।सरकारी नौकरी मिल जाएगी।मैं रिटायर होने से पहले अपने बेटे को सरकारी नौकरी करते हुए देखना चाहता हूं।”विमी फट पड़ती अब”बिल्कुल नहीं।मुझे अपने बेटे को यहां नहीं रखना।अच्छे नंबर आएं हैं,
तो किसी अच्छे से प्राइवेट कॉलेज में एडमिशन मिल ही जाएगा।उसे नहीं बनाना चाहती मैं आपके जैसा।उसकी पसंद,उसके शौक,सब कुछ आपसे अलग है।वो मेरा बेटा है।”सुमित बिना कुछ बोले हथियार डाल देते।एक दिन तो हद ही हो गई,जब एक परिचित ने पूछ लिया”दादा,इतना पैसा फालतू में लगा दिए कंपनी के क्वार्टर में।
रिटायरमेंट के बाद क्या शीट और ईंटे खोदकर ले जाओगे?”इतना बोलना था उनका कि सुमित ने भड़कते हुए कहा”आज कह दिया,फिर मत कहना कभी।इस घर में ही मेरा बेटा रहेगा।मैं शर्त लगा सकता हूं।बोलिए,लगाते हैं शर्त?खबरदार जो शीट और ईंटों को निकालने की बात फिर कभी की।”दुबकते हुए वे तो निकल लिए,
पर एक पिता की जुबान पर शायद ईश्वर का वास हुआ था।असमय शुगर की बीमारी बढ़ जाने से,सुमित की तबीयत खराब रहने लगी।नौकरी भी पूरी नहीं कर पाते महीने भर।रवि में पता नहीं कहां से इतनी समझ आ गई कि उसने बाहर कॉलेज में जाकर पढ़ने का विचार त्याग कर पास के सरकारी कॉलेज से डिप्लोमा करने की सहमति दी।
बहुत रोई थी विमी उस दिन।बेटे के साथ के अधिकतर दोस्त कोटा जा रहे थे, बारहवीं के बाद।रवि का मन पाकर सुमित ने खुश होकर कहा”विमी,तुम निराश मत होना।मेरे बेटे को कभी निराश नहीं होना पड़ेगा।प्राइवेट नौकरी से जब-तब निकाले जाने का डर नहीं सताएगा।बस दो साल के लिए कर लें डिप्लोमा,फिर तुम डिग्री करने भेज देना बाहर।”
एक पिता के चेहरे में संतोष ,मां की निराधार चिंताओं से ज्यादा कीमती था।पिता की शारीरिक अस्वस्थता ने रवि को अचानक से उनके करीब ला दिया।दो साल होने को ही थे,तभी एक दिन कॉलेज के प्रोफेसर ,जो कि सुमित के दोस्त भी थे आए और कहा”भाभी जी,रंग तो आपके बेटे को आपका मिला है।
इस कहानी को भी पढ़े
लंबाई अपने दादा जी की मिली।पर शक्ल देखिए,एक दम सुमित की मिली है।बालों की वही हेयर स्टाइल हेयरस्टाइल , बिल्कुल सुमित की फोटोकॉपी है।गुस्से में तो बाप से चार कदम आगे है यह।”विमी हतप्रभ होकर उनकी बात सुन रही थी,तभी सुमित ने चेहरे में विजयी मुस्कान लाते हुए कहा”ये हुई ना बात!अरे मेरा बेटा है,
तो मेरे जैसा ही होगा ना।तुम्हारी भाभी ने तो कोशिश कम नहीं की थी ,अपने पल्लू में बांधे रखने की।आज मेरा कलेजा चौड़ा हो गया।विमी ने रवि की तरफ आश्चर्य से देखा तो वह उठकर चला गया।विमी भी रवि में आए शारीरिक और मानसिक बदलाव देख रही थी।
अब रवि कभी नहीं कहता कि मुझे पापा जैसा नहीं बनना।इसके विपरीत बड़ी शान से कहता कभी -कभी”पुरुष का पौरुष ही उसकी ताकत है।अपने स्वाभिमान को मारकर जीने वाला ,इंसान नहीं होता।”
सुमित की बीमारी ठीक हो नहीं रही थी।रवि अब अपने पापा की तरह घर की ज़िम्मेदारी के साथ-साथ पापा को भी संभालने लगा था।अचानक सुमित की किडनी फेल हो गई,और महीने भर अस्पताल में रहने के बाद वो हमेशा के लिए चले गए।
पिता की जगह रवि को अनुकंपा नियुक्ति मिल गई।उसी कंपनी के क्वार्टर (जिसमें जिद करके दो-दो ए सी लगवाया था सुमित ने) में अब रवि मुखिया बनकर रह रहा था।आचार और व्यवहार में पिता की झलक दिखाई देने लगी थी।अपने स्वास्थ्य और भोजन के प्रति पापा की तरह लापरवाह नहीं था बस।जहां काम पर जाता था,
वहां सुमित के सहकर्मी भी थे।सभी रवि को भी दादा कहने लगे थे अब।किसी भूखे को भरपेट खाना खिलाना हो,या अपरिचित बच्चों को बिस्कुट और टाफी खिलाना हो, बिल्कुल अपने पापा की तरह तैयार रहता।उन्हीं की खरीदी हुई कार,उन्हीं की तरह बड़े शान से चलाते हुए आज कहा उसने”मम्मी,मैंने बहुत कोशिश की कि पापा की तरह ना बनूं,
पर देखो मेरा पूरा अस्तित्व पापा की ही देन है।मुझे देखकर रोज़ प्रायः दस लोग बोलतें हैं,वो देखो!छोटा दादा आ गया ।मेरी नौकरी में भी पापा के कारण सभी मुझसे अच्छा व्यवहार करतें हैं।वो कहीं नहीं गएं हैं।मेरे पूरे अस्तित्व में समाए हैं वो।मैं यहां से कहीं और जा ही नहीं सकता,क्योंकि उनकी आत्मा इस घर में रहती है।
मैं अब खुद यह स्वीकार करता हूं,पिता से ही बच्चों का अस्तित्व होता है।मुझे गर्व है कि वो मेरे पिता हैं।हमेशा उनकी कमियां ढूंढ़ता रहा।तुम्हें चुपचाप उनकी बात सुनती हुई देखकर लगता कि वो तुम्हें प्रताड़ित करतें हैं मानसिक रूप से।ऐसा नहीं था मम्मी,घर की बागडोर संभालते -संभालते शायद पापा जिद्दी हो गए थे।
इस कहानी को भी पढ़े
मुझे डिप्लोमा करने का और बाहर जाकर ना पढ़ पाने का भी कोई अफसोस नहीं।पापा को शायद अच्छी तरह से पता था कि, मैं बाहर जाकर पढ़ नहीं पाऊंगा।मुझे सुरक्षित भविष्य भी वो ही दे गए जाते-जाते।
मेरी हर तकलीफ का निदान आज भी वही कर देतें हैं,बिना मेरे बोले। अफ़सोस सिर्फ एक ही है कि उनके रहते मैं बोल नहीं पाया कि मैं उनका लाड़ला हूं। उन्होंने सीमित संसाधनों में भी जो सुविधाएं हमें दी ना,वो अच्छे-अच्छे रईस लोग नहीं दे पाते।”
विमी हतप्रभ होकर गाड़ी का स्टियरिंग झटके से काटते हुए अपने बेटे को देख रही थी।हंसकर बोली”बाबू,तू तो पूरा पापा बन गया है रे!”
वो भी हंसकर बोला”यही तो स्वाभाविक है मम्मी।”मूवी से लौटकर आते ही सुमित की फोटो की ओर देखकर कहा विमी ने”तुम यही सुनना चाहते थे ना हमेशा।देख लो,ये मेरा नहीं तुम्हारा ही लाड़ला निकला।तुम्हारी तरह बस ज्यादा गुस्सा नहीं करता,
पर नाक -मुंह फुला लेता है तुम्हारी तरह।काम की जगह सभी से अच्छा व्यवहार भी करता है।तुम जहां-जहां मंदिर में चंदा देते थे ना ,ये भी देता है।तुम जहां भी हो,अपने बच्चों पर अपना आशीर्वाद सदा बनाए रखना।अब ये ताना अपने मन से निकाल ही देना,कि मेरी तरह बना दिया है मैंने,समझे।”
शुभ्रा बैनर्जी
#अस्तित्व