सुबह की धूप अब आंगन में उतर आई थी। चिया अपने बैग से योगा मैट निकाल रही थी, और मम्मी—सुनीता जी—रसोई में अदरक काटती हुई बड़बड़ा रही थीं।
“ढेले भर काम का सहारा नहीं ऊपर से एक्सरसाइज करवा कर और थका दो! काम क्या कम हैं?”
चिया ने रसोई के दरवाज़े पर आकर मुस्कराते हुए कहा, “मम्मी, आप कभी बताती भी नहीं हो कि कितने काम हैं। आप बताओ, फिर मैं कुछ न करूं तो डांटना।”
सुनीता जी पलटकर बोलीं, “पहले पढ़ लो। ये काम लड़कियों को जानने होते हैं। जिंदगी भर काम करने होते हैं। अच्छी अफसर लग जाओगी तो भी अपना अस्तित्व तभी बना पाओगी जब घर का भी समझोगी। वरना चाहे जितना पढ़ लो, लोग कहे कहे करवा लेंगे, पर पूछेगा कोई नहीं।”
कुछ पल की खामोशी के बाद उन्होंने साड़ी का पल्लू कसकर लपेटा और कहने लगीं, “अपनी निर्मला मौसी की बेटी कीषु को देखो। कितना सुकून है उसकी ज़िंदगी में। पहले पढ़ाई पर ही ध्यान देती थी, अब हर काम में अव्वल है। ससुराल वाले भी पूछकर काम देते हैं।”
चिया ने कुछ नहीं कहा। बस माँ की थकान भरी आवाज़ में एक छुपी चिंता को पढ़ लिया। वो जानती थी कि ये शिकायत नहीं थी, बल्कि माँ की कोशिश थी—उसे ज़िंदगी से पहले ही सुलझा देने की।
उसी दिन शाम को, अचानक घर में हलचल मच गई। पास वाले शर्मा अंकल की बेटी, रिया, जो उन्हीं की कॉलोनी में ब्याही गई थी, का ससुराल से फोन आया—”रिया ने कमरे में खुद को बंद कर लिया है, घंटों से बाहर नहीं आई।”
पड़ोसियों और रिश्तेदारों में खलबली मच गई। चिया भी माँ के साथ भागी। जब दरवाज़ा तोड़ा गया, रिया पलंग पर बैठी थी, रोते-रोते थक चुकी थी। किसी ने कुछ पूछा नहीं। बस, माँ—सुनीता—धीरे से उसके पास बैठ गईं, उसका सिर गोद में रख लिया।
रिया फूट-फूटकर रो पड़ी, “माँ बनने के लिए शादी नहीं की थी, बस इंसान समझा जाए इतना ही चाहा था… रोज़ के तानों से अब दम घुटता है। हर बात में तुलना… हर बार ‘तू तो कुछ नहीं करती’ का उलाहना…”
सुनीता की आंखें झुक गईं। मानो उन्होंने कुछ अनकहा सुन लिया हो—अपने ही कहे हुए शब्दों की परछाईं उस लड़की के चेहरे पर उतरती देख ली हो।
वो लौटीं तो रात को चिया के कमरे में आईं। चुपचाप बैठ गईं। बहुत देर तक कुछ नहीं बोलीं। फिर कहा—
“पता है, रिया की माँ भी उसे यही कहती थी—‘हर काम सीख लो, वरना कोई पूछेगा नहीं।’
पर कोई ये क्यों नहीं कहता कि पहले खुद को समझो… पहले खुद को पूछो…”
फिर थोड़ी देर बाद बोलीं, “कल से मैं भी तेरे साथ एक्सरसाइज करूंगी।”
“सच मम्मी?” चिया की आंखें चमक उठीं।
“हां… और तू मुझे कंप्यूटर सिखा देना। एक ऑनलाइन बेकरी कोर्स भी देखा है, शायद कुछ नया करना चाहूं।”
“मम्मी… आप सबसे स्पेशल हो।”
सुनीता ने मुस्कराकर कहा, “अब समझी हूं… खुद को नजरअंदाज़ करके कोई भी स्त्री ‘अच्छी’ नहीं बनती, बस थकी हुई बन जाती है।”
उस दिन चिया ने अपनी डायरी में लिखा—
> “माँ आज पहली बार अपनी नहीं, अपने भीतर की औरत की बात कर रही थी। और मुझे लगता है, जब एक औरत अपनी बेटी से दोस्त बनने लगे—वहीं से असली बदलाव शुरू होता है।”
बरामदे में टंगे हुए कपड़े अब भी हवा में लहरा रहे थे…
पर आज उनमें थकान नहीं, एक नई उम्मीद झूल रही थी।
# अस्तित्व
दीपा माथुर