संध्या की सर्दी धूप की बची-खुची तपिश को निगल चुकी थी। रिया का छोटा सा कमरा अब घर का दिल बन चुका था। उसी कमरे में कोने में बैठी बुआजी पुरानी साड़ी को सीधा करके रिया से पूछ रही थीं —
“बिटिया, इसमें बॉर्डर बहुत सुंदर है… इससे कुछ और बन सकता है क्या?”
रिया ने मुस्कुरा कर कहा,
“हाँ बुआजी, इससे एक बहुत प्यारा टेबल रनर बन सकता है… देखिए ऐसे…”
वो फटी पुरानी साड़ी को चाक से नापते हुए किनारे की कढ़ाई को बचा लेती है और एक सादा कपड़ा उससे जोड़कर सुंदर डेकोरेटिव पीस तैयार करने का तरीका समझाने लगती है।
अब रिया का घर कोई टूटी-फूटी चीज़ें जोड़ने वाला केंद्र नहीं रह गया था। अब वहाँ पुराने कपड़ों में नए रंग बुनने लगे थे। फटे पजामे से तकिए के कवर, पुरानी साड़ियों से झक्क रजाइयाँ, बच्चों के छोड़े कपड़ों से सुंदर सी थैली या ड्रॉस्टर बैग — हर एक कपड़ा जैसे अपनी नई कहानी कहने लगा था।
आंगन में रुई फैली थी, गद्दे की खोलियाँ खुली पड़ी थीं, और कुछ महिलाएँ सिलाई मशीन के आगे बैठी थीं। रिया पास बैठी, सबको समझा रही थी —
“देखिए चाची, ये जो पुराना सलवार है न — इससे दो अच्छे-खासे झबले बन जाएंगे। और ये ज़रा देखिए — ये पैंट पूरी घिस गई है, पर इसकी जेबें अभी काम की हैं। इनसे मोबाइल पॉकेट बना सकते हैं — हैंडी और ट्रेंडी दोनों!”
निर्मला देवी बरामदे की कुर्सी पर बैठी सब देख रही थीं। वही सास, जो कुछ दिन पहले तक बड़बड़ाया करती थीं — “हाय राम, मेरी तो किस्मत ही फूट गई जो ऐसी बहू मिली…” अब चुपचाप अपनी पुरानी रेशमी साड़ी को हाथ में लेकर बैठी थीं, और रिया की बताई सिलाई पर फुंदने टांक रही थीं।
रिया ने जब देखा, तो पास आकर धीमे से कहा —
“माँजी, इस रेशम की बॉर्डर बहुत रॉयल है… इससे ना एक ‘पॉजिटिविटी वाल हैंगिंग’ बना देते हैं, जिसमें ‘माँ का आशीर्वाद’ लिखा हो…”
निर्मला कुछ नहीं बोलीं। बस चुपचाप साड़ी को पकड़कर आंखों से नापने लगीं, जैसे पहली बार अपने ही कपड़े में कुछ मूल्य देख रही हों — सिर्फ रेशम नहीं, यादें भी थीं उसमें।
धीरे-धीरे मोहल्ले की महिलाएं रिया के पास सीखने आने लगीं —
पुराने कपड़ों से नया जीवन — यही था उसका मूल मंत्र।
वो फटी जींस को स्टाइलिश बैग में बदलना सिखाती,
साड़ियों से बेडशीट की बॉर्डर बनाना सिखाती,
बच्चों के पुराने स्कूल यूनिफॉर्म से रजाई बनाना सिखाती,
त्योहारी कपड़ों से दीवारों के लिए सुंदर हैंगिंग्स।
एक दिन एक 14 साल की बच्ची लाजवाब सा टेबल कवर लेकर आई — उसमें नीले रंग की पुरानी फ्रॉक के टुकड़े थे, दादी की पैंट की पॉकेट्स, और माँ की साड़ी का पल्लू।
रिया ने उसे देखकर ताली बजाई —
“वाह! ये तो #FamilyPatch है… हर पीस में एक रिश्ता जुड़ा है।”
निर्मला मुस्कराते हुए कहती हैं —
“रिया, तुम सिर्फ कपड़े नहीं जोड़ती…
तुम रिश्तों की सिलाई करती हो।
पुरानी बातों के धागों को नए पैटर्न में ढाल देती हो।”
हर बुधवार और शनिवार, रिया “कपड़ा सृजन कार्यशाला” चलाने लगी।
बड़ों के लिए पुरानी रजाइयों से गद्दा बनाना,
युवतियों को स्क्रैप क्लॉथ से बैग बनाना,
बच्चों को बटन लगाने, सीधी सिलाई करना सिखाना।
घर की छत पर पतंगें उड़ रही थीं। नीचे सिलाई मशीनों की आवाज़ और हंसी-ठिठोली थी।
निर्मला अपनी चाय की प्याली लेकर कहती हैं —
“पहले जो कहती थी — हाय राम मेरी तो किस्मत फूट गई —जो ऐसी बहु मिली।
अब लगता है कि ये बहू मेरे पुराने सपनों को नया रूप दे रही है।”
रिया मुस्कराती है —
“कभी-कभी माँजी, किस्मत को भी सिलाई की ज़रूरत होती है…”
और सिलाई की हर टांका… अब घर की दीवारों में दिखता है —
जहाँ पुराने कपड़ों से नए रिश्ते गूंथे जा रहे हैं।
दीपा माथुर